Saturday 30 May 2020
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Friday 29 May 2020
कोरोना काल की बंदिशों को आदत बनाना होगा।
Thursday 28 May 2020
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Wednesday 27 May 2020
श्रमिक एक्सप्रेस को भी राजधानी जैसा महत्व मिले
Tuesday 26 May 2020
चीन की हरकतों पर सतर्कता जरूरी
Monday 25 May 2020
ग्रामीण भारत में प्रगति के द्वार खुलने का अवसर
Saturday 23 May 2020
लॉक डाउन अवधि का ब्याज माफ़ किया जाए
Friday 22 May 2020
छोटे बच्चों के स्कूल खोलने में जल्दबाजी न की जाए
Thursday 21 May 2020
लॉक डाउन : ढील का गलत फायदा न उठायें
Wednesday 20 May 2020
प्रवासी पलायन : ताकि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो
Tuesday 19 May 2020
चीन भारत के बढ़ते महत्व से भन्नाया है
Monday 18 May 2020
कोरोना : एक लाख का आंकड़ा बड़ी चिंता का कारण
गाँव - मोहल्ले में आत्मनिर्भरता के बाद भी सब एक दूसरे पर निर्भर थे परिवारों की टूटन से सामाजिकता के संस्कार भी कमजोर पड़े
मेरे बचपन का गाँव आत्मनिर्भर था किन्तु गाँव का हर व्यक्ति एक दूसरे पर निर्भर था | सहकारिता की अर्थव्यवस्था में गाँव में अमन - चैन और खुशहाली का भाव था , जो आज कहीं खो गया है | फेसबुक पर मित्रवर लक्ष्मीकांत शर्मा की उक्त पोस्ट ने मेरा ध्यान ही नहीं खींचा मानो एक दिशा दिखा दी | मुझे ये स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि गाँवों से मेरा किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है | लेकिन दूसरी तरफ ये भी सही है कि बचपन से गाँवों में मेरा आना जाना रहा है | यहाँ तक कि मैं ऐसी कुछ बारातों में भी शामिल रहा जो किसी गाँव में आज की तरह केवल एक रात नहीं अपितु तीन दिन ठहरीं | मेरे ननिहाल में पुरानी जमींदारी होने से गर्मियों की छुट्टियों में नाना जी के साथ ग्रामीण इलाके देखने का भी खूब मौका मिला किन्तु उसके पीछे आकर्षण खुली जीप में धूल भरे रास्तों पर घूमना ज्यादा था | लेकिन ग्रामीण भारत का जो रेखाचित्र किशोरावस्था से मानसपटल पर अंकित हुआ उसके रंग बहुत ही पक्के होने से आज तक हल्के नहीं पड़े |
और फिर बतौर अधिकारी लगभग साढ़े तीन वर्ष तक राष्ट्रीयकृत बैंक की ग्रामीण शाखा के प्रबन्धक के रूप में सेवाएं देने के दौरान भी गाँवों को निकट से देखने और जानने का अवसर मिला | बावजूद उसके ग्रामीण जीवन पर कुछ कहने या लिखने के लिए मैं स्वयं को पात्र नहीं मानता |
लेकिन लक्ष्मीकांत जी ने बहुत ही कम शब्दों में गाँवों के सामाजिक ढांचे के साथ आर्थिक नियोजन का जो खाका खींच दिया वह एक तरह का सूत्र है जिसकी सहायता से भारत की आत्मा से साक्षात्कार किया जा सकता है | लेकिन मैं इसके आधार पर हमारी उस मोहल्ला व्यवस्था को स्मृत करना चाहूँगा जो मेरे जीवन से बेहद अंतरंगता से जुड़ी हुई है | हालाँकि मोहल्ले से कॉलोनी में आये भी 36 बरस का लम्बा अरसा बीत गया किन्तु 1956 में हमारा परिवार जबलपुर आया तो शहर के बीचों - बीच स्थित साठिया कुआ नामक मोहल्ले में पहली मंजिल पर किराये का एक मकान हमारा आश्रयस्थल बना | उस मोहल्ले की ख़ास बात ये थी कि उसमें उस जमाने के बहुत बड़े जमींदार , गांधीवादी राजनेता और साहित्यकार ब्यौहार राजेन्द्र सिंह की बखरी थी, जिससे किसी राजप्रासाद का एहसास होता था | महात्मा गांधी भी उसमें ठहर चुके थे | अपनी भूदान पदयात्रा के दौरान आचार्य विनोबा भावे को बखरी में आते मैनें देखा और बाद में जयप्रकाश नारायण जी को भी | जबलपुर छोड़ने के पहले तक आचार्य रजनीश भी उनसे मिलने आते थे , जो बाद में ओशो नाम से विख्यात हुए |
उस मोहल्ले की सामाजिक रचना इस तरह की थी मानो वह किसी कम्यून की तरह हर दृष्टि से आत्मनिर्भर हो | सुनार , बढ़ई , नाई , धोबी , घरेलू काम करने वाली जातियां , खेलने हेतु दो मैदान , अखाड़ा , मलखम्ब , मंदिर , पुजारी , हलवाई , किराना , आटे की चक्की , पान की दुकान ,सार्वजनिक कुए , लड़कियों और लड़कों के लिए माध्यमिक शिक्षा तक का अलग - अलग स्कूल जैसी समस्त मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध थीं |
वहां रहने वालों में प्रोफेसर , शिक्षक , रक्षा कारखानों के कर्मचारी , वकील , चिकित्सक , पत्रकार , व्यवसायी सभी पेशों से जुड़े हुए लोग थे | जैसा प्रारंभ में गाँव के बारे में कहा गया , यहां भी सब अपने आप में आत्मनिर्भर होने के बाद भी एक दूसरे पर निर्भर थे | सामाजिक समरसता इतनी थी कि किसी भी जाति या पेशे का बड़ा - बुजुर्ग आ रहा हो तो उसे हम सम्मान देते थे | और वह भी अधिकारपूर्वक हिदायतें देने या डांटने तक का अधिकार रखता था | जिस नाई से बाल कटवाते वह लाख निवेदन के बाद भी मशीन चला ही देता था | बढ़ई के पास जाकर कहते दादा गिल्ली खो गयी तो वह थोड़ी सी ना - नुकुर करने के बाद लकड़ी के किसी टुकड़े से नई बनाकर चेतावनी भी देता कि अबकी बार गुम हुई तो नहीं बनाऊँगा | हालाँकि उसने अपनी चेतावनी पर कभी अमल नहीं किया |
मोहल्ले के सभी बच्चे साथ खेलते थे | दुर्गा जी की प्रतिमा के लिए एक चबूतरा था | पूरा मोहल्ला उसके लिए चंदा देता और दशहरा जुलूस में मोहल्ले के लोग प्रतिमा को हनुमानताल में विसर्जित करने जाते | होली पर भी सार्वजनिक चन्दा होता था और जमकर रंग खेला जाता | मोहल्ला पूरी तरह हिन्दुओं का था लेकिन मोहर्रम के समय एक सुनार और दो कायस्थ सवारी रखते थे जिसमें सभी शामिल होते |
छोटे - बड़े का आधार आयु होती थी , आर्थिक हैसियत नहीं | यही वजह थी ब्यौहार जी से , जिन्हें सब राजा भैया कहते थे , हम बच्चे भी निःसंकोच मिल लेते | स्कूल की छुट्टियों में उनकी विशाल बखरी हम बच्चों का क्रीड़ास्थल रहता था | हमारे मकान मालिक का अपना एक प्रिंटिंग प्रेस था | 27 साल हमारा परिवार उनका किरायेदार रहा लेकिन कभी विवाद नहीं हुआ | जिस महिला ने बर्तन मांजने का काम शुरू से किया वह मोहल्ला छोड़ते तक काम करती रही |
अति साधारण परिवेश के बावजूद उस मोहल्ले से एक से एक प्रतिभाएं निकलीं | ब्यौहार जी के पुत्र स्व. राममनोहर सिन्हा विश्वप्रसिद्ध चित्रकार थे | आचार्य नन्दलाल बोस के शिष्य के रूप में उन्होंने भारतीय संविधान की मूल प्रति को अपनी कला से संवारा था | कुल मिलाकर वह एक सम्पूर्ण इकाई थी जहाँ रहने वाले एक पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे | फर्क था तो ये कि पुरुष बाबा , दादा , चाचा , काका या भैया थे तो महिलाएं बड़ी माँ , चाची , काकी या दीदी थीं | अंकल - आंटी संस्कृति का प्रवेश उस समय तक वहां नहीं हुआ था | छोटे बच्चे पूरे मोहल्ले में एक घर से दूसरे में खिलाये जाते थे |
वक्त बदला , पीढ़ी बदली , और फिर लोगों का वहां से जाना शुरू हो गया | सायकिल से स्कूटर युग आ चुका था | हम भाई - बहिन बड़े हुए और जगह कम पड़ने लगी तब 1984 में अपने नए मकान में आने को हुए तो पूरा मोहल्ला दुखी था | हम सब भी बेहद भावुक थे | मकान मालिक को पिताजी ने घर की चाबी सौंपते हुए उनके प्रति आभार व्यक्त किया तो उलटे उन्होंने पिता जी का हाथ पकड़कर कहा कि आप अपने मकान में जा रहे हैं , ये खुशी की बात है लेकिन हमारी इच्छा तो थी , यहीं रहते |
जिस कॉलोनी में हम रहने गये उसमें भी 27 साल बिताये लेकिन उसमें मोहल्ले जैसे सम्बन्ध नहीं बन सके | और बीते एक दशक से जिस कॉलोनी में रह रहे हैं यहाँ सामाजिक मेलजोल तो काफी है , लेकिन निःसंकोच कहूंगा कि वह माहौल नहीं है जिसका जिक्र मोहल्ले के संदर्भ में किया जा चुका है | हालाँकि बढ़ती उम्र इसका कारण हो सकती है किन्त्तु कॉलोनी के बच्चों और युवाओं में भी वैसी पारिवारिकता नहीं दिखती |
हालांकि ये मेरे अकेले का अनुभव नहीं , अपितु हम में से न जाने कितनों के मन में भी इसी तरह की अनुभूतियां भरी पड़ी हैं | मोहल्ला छोड़े हुए 36 साल बीत गए | अधिकतर लोग दूसरी जगह रहने चले गये लेकिन जब भी किसी शादी - ब्याह में मिलना होता है तो थोड़ी देर का वह पुनर्मिलन भावनाओं की अभिव्यक्ति और सुनहरी यादों को पुनर्जीवित करने का अवसर बन जाता है | नई पीढ़ी के बच्चों से परिचय पुराने पड़ोसी के रूप में नहीं बल्कि रिश्ते का नाम लेकर करवाया जाता है |
दरअसल हमारे समाज में जो पारिवारिकता थी उसका स्रोत संयुक्त परिवार से मिले संस्कार ही थे | अब चूँकि परिवार हम दो , हमारे दो तक सिमट गए हैं और ताऊ - ताई , चाचा - चाची, मामा - मामी , बुआ - फूफा सब अंकल - आंटी में आकर केन्द्रित हो गये , इसीलिये समाज में संवेदनहीनता आती जा रही है |
मौजूदा संदर्भ में जो माहौल देश भर में दिखाई दे रहा है उसके पीछे गाँव और मोहल्लों की सामाजिक रचना में आया बदलाव भी है | उसे देखकर ये डर भी लग रहा है कि शहरों की बेरुखी से हलाकान हो चुके जो श्रमिक गाँव लौट रहे हैं क्या उन्हें वह सब मिल सकेगा जिसकी उम्मीद लिए वे पांवों के छालों का दर्द भूलकर भी चले आ रहे हैं |
सवाल और भी हैं किन्तु जवाब किसी के पास नहीं क्योंकि गाँव में भी अब नीम की दातून करनी वाली पीढ़ी इतिहास बन गयी है और परिवार को फैमिली कहा जाने लगा है |