Saturday 30 May 2020

ऐतिहासिक उपलब्धियों पर कोरोना की छाया



मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल को आज एक वर्ष पूरा हो गया।  बीते एक वर्ष में केंद्र सरकार ने जिस ताबड़तोड़ अंदाज में  निर्णय किये और अनेक लंबित मामले निबटे उससे राष्ट्रीय राजनीति  की दिशा तय होने लगी  थी।  असहमति और आलोचनाओं के बावजूद एक बात तो साबित हो ही गई  कि नरेंद्र  मोदी में कड़े निर्णय लेने का साहस है।  जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर उसे दो हिस्सों में विभाजित करने का फैसला जिस सुनियोजित तरीके से लागू करवाया गया वह बहुत ही बड़े जोखिम का काम था जिसमें जरा सी चूक देश को बड़े  संकट में डाल सकती थी किन्तु केंद्र सरकार की रणनीति और मैदानी तैयारी इतनी सटीक रही कि असंभव समझा जाने वाला काम भी सम्भव हो गया।  तीन तलाक़ को बंद करवाने के अलावा नागरिकता संशोधन कानून तथा राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर जैसे निर्णय भी केंद्र सरकार की दृढ इच्छा शक्ति के प्रमाण हैं।  यद्यपि इन्हें मुद्दा बनाकर विपक्ष ने देश में अल्पसंख्यकों के बीच जबरदस्त भ्रम का वातावरण बना दिया।  यहां तक कि अन्तर्राष्ट्रीय  स्तर पर भी ये बात प्रचारित की गयी कि भारत की मौजूदा सरकार अल्पसंख्यकों पर  अत्याचार करने पर आमादा है।  इस विषय पर जिस तरह का प्रपंच फैलाया गया उसके पीछे बहुत ही सोची - समझी चाल थी जिसमें तमाम मोदी विरोधी एकजुट हो गए।  तीन तलाक , 370 और बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राममन्दिर जैसे लंबित विवाद पर दिए  फैसले पर अल्पसंख्यक समुदाय  की ठंडी प्रतिक्रिया से भाजपा विरोधी पार्टियाँ खास तौर पर वामपंथी काफी परेशान थे । इसलिए उन्होंने नागरिकता संशोधन और जनसंख्या जैसे मामले पर दिल्ली की जामिया मिलिया , जेएनयू और अलीगढ़ मुस्लिम विव के छात्रों को भड़काकर उत्पात मचवाया और फिर शाहीन बाग़ के धरने के बहाने अल्पसंख्यकों में असुरक्षा का भाव पैदा करते हुए उन्हें आंदोलित किया । जिसका अंजाम दिल्ली में हुए साम्प्रदायिक दंगों के तौर पर सामने आया।  दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था भी चिंताजनक दौर में प्रविष्ट हो चुकी थी। ऐसे में केंद्र सरकार और प्रधानमन्त्री के सामने कठिन परीक्षा का समय था।  केन्द्रीय बजट में सरकार की तरफ से जो ऐलान हुए उनके जरिये हालात सँभालने की कोशिश की ही जा रही थी कि कोरोना नामक महाविपत्ति का हमला हो गया जिससे बीते दो महीने से देश जूझ रहा है।  इस वायरस को रोक पाने में मोदी सरकार कितनी कामयाब हुई इसका आकलन करने का समय अभी नहीं आया है किन्तु इतना तो कहा  ही जा सकता है कि 135 करोड़ की घनी बसाहट वाले देश में यदि अभी तक कोरोना महामारी नहीं  बन सका तो इसका श्रेय मोदी सरकार को देना गलत नहीं होगा।  कोरोना से हुई मृत्यु दर कम रहना भी बड़ी उपलब्धि है।  राष्ट्रीय  सुरक्षा के साथ विदेश नीति के मोर्चे पर भी इस सरकार ने शानदार काम किया।  विशेष रूप से पहले पाकिस्तान और अब चीन को कूटनीतिक स्तर पर घेरने की रणनीति पूरी तरह से कामयाब रही।  लेकिन आने वाले समय में प्रधानमंत्री  के सामने सबसे बड़ी समस्या आर्थिक मोर्चे पर उत्पन्न चुनौतियों से जूझने की होगी। बीते दो महीने से कारोबार ठप्प रहने से उद्योग - व्यापार पूरी तरह से बंद पड़े थे।  करोड़ों प्रवासी श्रमिकों को बेहद दर्दनाक  स्थिति में गाँव लौटना  पड़ा।  उनके पास कोई काम नहीं है।  लाखों मध्यमवर्गीय लोग अपनी नौकरी गंवा बैठे या उनके वेतन में कटौती हो गयी।  रोज कमाने रोज खाने वाले त्रस्त हैं ।  बाजार और कारखाने यद्यपि शुरू किये जा रहे हैं लेकिन उपभोक्ता चूँकि  खाली हाथ है इसलिए मांग घट गई  है।  शादी का मौसम भी जाने को है। ग्रीष्मकालीन पर्यटन और तीर्थयात्राएं रद्द होने से पर्यटन उद्योग की कमर टूट गयी। अर्थव्यवस्था का एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे दुरुस्त कहा जा सके। इस वजह से सरकार की राजस्व वसूली रुक गयी है और विकास दर शून्य से नीचे जाना तय है। इस तरह कोरोना के कारण मोदी सरकार की दूसरी पारी की सालगिरह का रंग फीका पड़ गया। जिन ऐतिहासिक उपलब्धियों के नाम पर वह आज जनता के सामने सीना फुलाकर आती वे सब कोरोना के कुहासे में छिपकर रह गईं। बावजूद उसके प्रधानमन्त्री में लोगों का भरोसा कायम है। कोरोना के अलावा सीमा पर पैदा हुई  स्थितियों का उन्होंने जिस कुशलता से सामना  किया वह प्रशंसनीय है। आने वाले समय में देश को विकास के रास्ते पर ले जाने में इस सरकार की नीतियां आशा जगाती हैं। बजाय खैरात बांटकर लोगों का मुंह बंद करने के विकास का ठोस आधार तैयार करने की दिशा में उसकी सोच काफी सकारात्मक है। ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि कोरोना संकट के बाद का समय भारत के पुनरुत्थान का होगा जिसमें नरेंद्र  मोदी की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 29 May 2020

कोरोना काल की बंदिशों को आदत बनाना होगा।

 

बीते कुछ दिनों में नए कोरोना संक्रमित लोगों की  संख्या तेजी से बढ़ने के कारण भारत एशिया में पहले स्थान पर आ गया है ।  हालाँकि ठीक होने वालों की संख्या वैश्विक औसत से ज्यादा और मरने वालों की  कम होने से स्थिति  को संतोषजनक मानकर लॉक डाउन में ढील पर विचार हो रहा है ।  अनेक राज्यों में तो औद्योगिक और व्यापारिक गतिविधियाँ शुरू भी कर दी गईं  ।  लेकिन अभी भी मॉल , होटल - रेस्टारेंट , सिनेमा , पार्लर आदि पर पाबंदी है ।  सार्वजनिक परिवहन भी आंशिक तौर पर शुरू हुआ है ।  नए मामलों में वृद्धि का कारण जांच  की संख्या में बढ़ोतरी ही है ।  लेकिन देश के लिए राहत की बात ये है कि कोरोना संक्रमण के । 70 फीसदी मामले मात्र 13 शहरों में सिमटे हुए हैं ।  इस वजह से चिकित्सा सुविधाओं को वहां केंद्रीकृत करने में सहूलियत  हुई है ।  नये संक्रमण  हॉट स्पॉट बन चुके क्षेत्रों से ही आने की वजह से उनकी पहिचान करना आसान हुआ ,  वहीं प्रवासी मजदूरों के घर लौटने के बाद विभिन्न राज्यों के ग्रामीण इलाकों में भी छिटपुट नए संक्रमण सामने आ रहे हैं ।  लेकिन लॉक डाउन को लेकर होने वाली समस्त आलोचनाओं के बीच एक बात जो माननी ही पड़ेगी कि यदि ये न लगा होता तब संक्रमण महामारी का रूप लिए बिना नहीं रहता ।  अब प्रश्न ये है कि क्या लॉक डाउन और आगे बढ़ाया जाए या उसे सीमित करते हुए जनजीवन सामान्य करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाए जाएं ? केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने राज्य सरकारों से सम्पर्क करते हुए सुझाव मांगें हैं जिसके आधार पर 31 मई के बाद वाली स्थिति पर विचार किया जाएगा ।  लेकिन अब सरकार के साथ ही  जनता की  भूमिका भी बेहद महत्वपूर्ण हो चली है ।  क्योंकि न तो लॉक डाउन को स्थायी किया जा सकता है और न ही पूरी तरह शिथिल ।  इस सम्बन्ध में चिंतनीय   बात ये है कि जब और जहां लॉक डाउन में ढील दी गयी वहां  जनता ने शारीरिक दूरी का धड़ल्ले से उल्लंघन किया ।  फिर चाहे वह बाज़ार हो या अन्य  स्थान ।   और यही चिंता का सबसे बड़ा  कारण है ।  अनेक शहरों में जहाँ कोरोना संक्रमण नियन्त्रण में है , वहां जब बाजार खोले गये तो जनसैलाब उमड़ पड़ा ।  सम और विषम संख्या में दुकानें खोलने के  भी संतोषजनक परिणाम नहीं दिखाई दिए ।  विभिन्न शहरों से जो रिपोर्टें आ रही हैं उनके अनुसार घरों के बाहर मास्क का उपयोग नहीं करने के कारण पुलिस द्वारा लोगों का जुर्माना किया जा रहा है ।   ये एक ऐसी जरूरत है जिससे शायद ही कोई भी  इंकार करेगा ।  और जब चिकित्सक भी  कह चुके हैं कि हमें कोरोना के साथ रहने की आदत डाल लेनी चाहिए तब उसका अर्थ ये होता है कि लॉक डाउन के दौरान जिन सावधानियों का  पालन किया गया उन्हें दैनिक जीवन में स्थायी रूप से उतारा जाए ।  मास्क , हाथ धोना , सार्वजनिक स्थल में नहीं थूकना और शारीरिक दूरी बनाये रखने जैसी बातें हमें अपने आचरण में शामिल करनी  ही होंगी ।  वैसे भी थूकने जैसी गन्दी आदत तो कोरोना न आता तब भी असभ्यता का परिचायक है ।  शारीरिक दूरी बनाये रखकर हम भीड़ और धक्कामुक्की को दूर कर सकते हैं जिससे यूँ भी  सभी परेशान  हैं ।  बाजारों और धार्मिक स्थलों पर शारीरिक दूरी अब एक अनिवार्यता होगी ।  ये सब देखते हुए कोरोना के बाद भी हमें उन बंदिशों को अपनी आदत बनाना होगा जो किसी भी भावी संक्रमण से बचने में सहायक होने के साथ ही हमारे निजी और सार्वजनिक जीवन को अनुशासित बनाकर भावी  स्वास्थ्य सम्बन्धी चिंताओं को भी दूर करेगा ।  भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में जहां सामाजिक अनुशासन का स्तर बहुत ही चिंताजनक है , वहां इस तरह की सावधानियां अब एक जरूरत बन गईं हैं ।  लॉक  डाउन बढ़े या न बढ़े  किन्तु जनता को  खुद होकर भी ये साबित करना होगा कि कोरोना से उसने क्या सबक लिया है ?  जैसा  कि चिकित्सा जगत मान  रहा है उसके मुताबिक तो कोरोना का दूसरा हमला  भी हो सकता है ।  यदि ऐसा नहीं हुआ तब भी किसी ऐसे ही वायरस के आक्रमण की आशंका बनी रहेगी ।  और फिर दुनिया में आवागमन भी सदैव के लिए तो नहीं रुका रहेगा ।  ऐसे में कोरोना का एक भी अनजाना संक्रमित यदि बच रहा तो वह पूरी दुनिया में उसे फैला सकता है ।  ये देखते हुए अब हमें स्वअनुशासन का परिचय देते  हुए एक स्वस्थ भारत बनाना होगा ।  वैसे इसमें नया कुछ भी नहीं है क्योंकि बिना जातिगत छुआछूत के भी भारतीय समाज में स्वच्छता और शारीरिक दूरी का काफी पालन होता रहा ।  पाँव धोकर घर में प्रवेश और हाथ धोते रहना भी  सहज प्रवृत्ति थी ।  बच रहा मास्क तो उसका प्रयोग करना यूँ भी लाभप्रद है क्योंकि ये वायु प्रदूषण से भी हमें बचाता है ।  दिल्ली में तो हजारों लोग सामान्य हालातों में भी मास्क लगाये दिख जाते हैं ।  इस तरह कोरोना से बचाव हेतु हमें उक्त आदतें डालनी होंगी ।  बीते सवा  दो महीने  में बहुत सी अच्छी बातें कोरोना संकट ने हमें सिखाई हैं ।  संक्रमण न रहने पर भी अपने दैनिक जीवन में  उनको ढाल लेना एक तरह से सुरक्षा चक्र जैसा ही होगा ।  प्रबन्धन का एक महत्वपूर्ण सूत्र गलतियों से सीखना है ।  कोरोना को लेकर जो असावधानी या गलतियाँ हुईं हों उनसे सबक लेकर यदि हम सतर्क रहे तो इस तरह के हमले का सामना करने  के लिए हमारी तैयारी पहले से कहीं बेहतर रहेगी ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 May 2020

नेपाल और चीन से मिले संकेतों के बाद भी चौकसी जरुरी



बीते कुछ दिनों से सीमा पर चले आ रहे तनाव में गत दिवस कुछ नरमी के संकेत मिले। सबसे पहले तो नेपाल से खबर आई कि उसने उस संशोधित नक्शे पर अंतिम निर्णय रोक दिया है जिसमें भारत के कुछ हिस्से को अपना बताया था। दरअसल वहां की सरकार द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में प्रस्तावित नए नक्शे पर आम सहमति नहीं बन सकी। इससे ये आशय लगाया जा सकता है कि चीन समर्थक नेपाल की माओवादी सरकार अपने भारत विरोधी आक्रामक रवैये से फिलहाल विपक्ष को आश्वस्त नहीं कर सकी। इसका कारण वहां भारत समर्थक पार्टियों का साक्रिय होना भी हो सकता है। दरअसल नेपाल को उम्मीद रही कि भारत उसकी धमकी से प्रभावित होगा लेकिन हुआ उलटा। उधर जिस चीन की शह पर नेपाल ने आँखें तरेरी थीं वह भी गत दिवस नरमी दिखाता नजर आया। उस वजह से भी काठमांडू की ऐंठ कुछ कम हुई होगी, ये सोचना भी सही है। क्योंकि जब नेपाल ने भारत विरोधी रुख अख्तियार किया तब ही ये समझ में आ गया था कि उसकी पीठ पर चीन का हाथ है। भारत के  थलसेनाध्यक्ष ने तो इस आशय का बयान भी दे दिया था जिस पर नेपाल और चीन सरकार की रोषपूर्ण प्रतिक्रिया भी आई। लेकिन चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग द्वारा अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने जैसा सन्देश दिए जाने के बाद नई दिल्ली का ये कहना महत्वपूर्ण था कि सीमा पर सड़क एवं इन्फ्रास्ट्रक्चर संबंधी बाकी काम पूरे किये जायेंगे और जितनी सेना चीन तैनात करेगा उतनी ही भारत की तरफ से भी मोर्चे पर रहेगी। चीन द्वारा लद्दाख क्षेत्र में पेंगोंग झील के पास सौ सैन्य टेंट लगाये जाने के साथ ही भारत ने भी अपने सैनिकों का जमावड़ा शुरू कर दिया। दूसरी तरफ वैश्विक स्तर पर भी चीन के भड़काऊ रवये पर आश्चर्य होने लगा। क्योंकि ऐसे समय जब पूरी दूनिया सब काम छोड़कर कोरोना से जूझ रही है तब चीन सीमा पर अनावश्यक तनाव उपस्थित कर रहा है। संयोगवश गत दिवस ही अमेरिका में तिब्बत और हांगकांग को स्वतंत्र देश घोषित करने विषयक ट्रंप सरकार का प्रस्ताव विचारार्थ संसद में पेश किया गया और पीछे से डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत-चीन के मौजूदा झगड़े में बिना कहे ही मध्यस्थता की पेशकश करते हुए ये संकेत दे दिया कि चीन की हरकतों से शेष विश्व अनजान नहीं है। और उसी दौरान चीन के प्रवक्ता का ये बयान भी आ गया कि सीमा पर स्थिति नियन्त्रण में है और दोनों पक्ष मिलकर कूटनीतिक स्तर पर विवाद को सुलझा लेंगे। बीते कुछ दिनों से चले आ रहे तनाव के बीच चीन की तरफ से ये पहला सकारात्मक बयान था। हालांकि चीन की फितरत देखते हुए जल्दबाजी में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना धोखे का कारण बन सकता है । लेकिन युद्ध की अप्रत्यक्ष धमकी के बाद कूटनीतिक माध्यम से विवाद सुलझाने जैसी बात से ये संकेत मिलता है कि चीन फिलहाल धीमे चलो की नीति अपना रहा है। उसे ये उम्मीद रही होगी कि भारत या तो उससे अनुनय विनय करते हुए सीमा पर चल रहे निर्माण और विकास के काम रोक देगा या फिर आपा खोकर ऐसा कुछ कर जायेगा जिससे उसे हमलावर होने का बहाना मिल जाता। लेकिन भारत की तरफ से न तो शीर्ष स्तर पर किसी बड़े नेता ने भड़काऊ बयान दिया और न ही किसी भी तरह की आपाधापी या भय व्यक्त किया गया। इसके उलट सीमा पर सड़कों , पुलों और इन्फ्रास्ट्रक्चर के अन्य कार्य तेजी से पूरे करने का संकल्प दोहरा दिया गया। ये बात पूरी तरह साफ़ है कि चीन ने अपनी सीमा में तो इन्फ्रास्ट्रक्चर का जबर्दस्त विकास कर लिया है किन्तु भारत की तरफ से लंबे समय तक इस ओर दुर्लक्ष्य किया गया। लेकिन 2014 में मोदी सरकार के आते ही सीमावर्ती सभी इलाकों में सड़को , पुलों, हवाई पट्टियों आदि का काम बहुत तेजी से शुरू करते हुए उनमें से अधिकांश पूर्ण कर लिए गए। जिन पर चीन को सदैव ऐतराज रहा। लेकिन हाल ही में मानसरोवर जाने वाले के लिए एक शॉर्ट कट सड़क के उद्घाटन के बाद से ही नेपाल और चीन दोनों लाल-पीले हो रहे थे। ऐसे में भारत ने बड़े ही सुलझे हुए अंदाज में दोनों को माकूल सन्देश दे दिया। कूटनीतिक स्तर पर चलने वाली वार्ताओं में से बहुत कुछ सामने नहीं आता। इसलिए नेपाल और चीन द्वारा गत दिवस दिखाई नरमी उनके अपने दिमाग की उपज थी ये कहना फिलहाल जल्दबाजी होगी। इस विवाद में बीचबचाव के प्रस्ताव के साथ ही तिब्बत और हांगकांग संबंधी अमेरिकी प्रस्ताव से भी हो सकता है चीन ने झगड़े को टालने की चाल चली हो लेकिन इतना तो तय है किस उसे भारत से ऐसे प्रतिरोध की आशा नहीं रही होगी। आने वाले कुछ दिन बेहद उहापोह भरे होंगे। भारत ने बिना धैर्य गंवाए अब तक जैसा जवाब नेपाल और चीन को दिया वह हर दृष्टि से सही है किन्तु चीन इस समय जिस दबाव में है और जिनपिंग के प्रति आंतरिक असंतोष बढ़ता जा रहा है उसे देखते हुए भारत को उसके हर कदम पर पैनी निगाह रखनी होगी क्योंकि धोखाधड़ी और धूर्तता चीनियों का जन्मजात गुण है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 27 May 2020

श्रमिक एक्सप्रेस को भी राजधानी जैसा महत्व मिले



जिस तरह की परिस्थितियाँ देश में बनी बु6ईं हैं उसमें बात-बात पर शासन-प्रशासन की आलोचना ठीक नहीं लगती किन्तु कुछ गलतियाँ ऐसी हैं जिन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है, जिससे उनकी पुनरावृत्ति न हो। प्रवासी श्रमिकों को लेकर जा रही अनेक श्रमिक एक्सप्रेस रेलगाड़ियों द्वारा घंटो का सफर कई दिनों में करने की जो बात सामने आई उस पर रेल मंत्री या उनके विभाग की सफाई गले नहीं उतरती। रेलगाड़ी का परिचालन पूरी तरह तकनीकी मामला है। इंजिन में बैठा ड्राइवर अपनी मनमर्जी से उसे कहीं भी नहीं मोड़ सकता। यदि किसी ट्रेन का मार्ग बदला जाता है तो उसमें ड्राइवर की भूमिका नहीं होती। ऐसे में ये गहन जाँच का विषय है कि मुम्बई या अन्य किसी स्थान से बिहार के लिये निकली रेल गाड़ी उड़ीसा कैसे जा पहुँची और वह भी 16-18 घंटों की बजाय हफ्ते भर के विलम्ब से। इसके अलावा श्रमिक एक्सप्रेस गाड़ियों को स्टेशन से दूर घंटों रोके रहने की शिकायतें भी बड़ी संख्या में आ रही हैं। भीषण गर्मी में साधारण रेल के कहीं खड़े हो जाने पर यात्री कितने हलाकान होते हैं ये किसी से छिपा नहीं है। और फिर श्रमिक एक्सप्रेस से सफर करने वाले लोग पहले से ही खून के आंसू रो चुके थे। उनको भोजन-पानी दिए बिना घंटों गाड़ी बिना स्टेशन के रोके रखना और एक-दो दिन के सफर को हफ्ते भर में पूरा करने जैसी भयंकर भूल पर रेलमंत्री और संबंधित अधिकारी बजाय आधारहीन सफाई देने के अगर सीधे-सीधे माफी मांगते हुए जिम्मेदार लोगों पर दंडात्मक कार्रवाई की बात कहते तो वह ज्यादा सही होता। शुरुवात में तो श्रमिक एक्सप्रेस बिना रुके लम्बी-लम्बी दूरी तय करते हुए ज्यादा से ज्यादा फेरे लगा रही थीं। जिन स्टेशनों पर सवारियों को भोजन-पानी देने की व्यवस्था होती या रेलवे के स्टाफ को बदलना होता , वहीं उसे रोका जाता था परन्तु ज्यों-ज्यों गाड़ियों की संख्या बढ़ती गयी रेलवे का ढर्रा भी वापिस लौटने लगा। भारतीय रेलवे दुनिया की सबसे बड़ी रेल व्यवस्था है। गर्मियों में यात्रियों की भीड़ के मद्देनजर विशेष गाड़ियां चलाई जाती हैं। लेकिन इस वर्ष कोरोना की वजह से लगाये गये लॉक डाउन के कारण यात्री गाड़ियों का परिचालन लम्बे समय तक बंद रहा। मालगाड़ियां भी तुलनात्मक रूप से कम ही चलीं। ऐसे में श्रमिक एक्सप्रेस चलने से रेलवे पर अतिरिक्त बोझ आया ऐसा भी नहीं था। और फिर प्रवासी श्रमिकों की बड़ी संख्या देखते हुए ये जरूरी था कि ट्रेन निर्धारित समय पर अपने गन्तव्य तक पहुंचकर वापिस लौटें। लेकिन प्रारम्भिक मुस्तैदी के बाद रेलवे की ढीलपोल सामने आने लगी। ऐसे समय में इस तरह की गलतियाँ इस बात का संकेत हैं कि इतने बड़े संगठन में अभी तक पेशेवर कार्यप्रणाली नहीं आ सकी। जिस तरह की आपदा से देश गुजर रहा है और करोड़ों प्रवासियों को उनके गाँव में पहुंचाना एक राष्ट्रीय आवश्यकता बन गई है तब इस विभाग से अपेक्षा है कि वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन पूरी प्रामाणिकता के साथ करे। हालांकि शुरुवाती चरण में श्रमिक एक्सप्रेसों ने जीवनदायिनी की भूमिका का निर्वहन किया किन्तु बाद में वे सरकारी कार्यप्रणाली का नमूना पेश करने लगीं। रेलमंत्री को ये नहीं भूलना चाहिए कि श्रमिक एक्सप्रेस के माध्यम से प्रवासी मजदूरों की सहायता करने का ये प्रयास अव्यवस्था का शिकार होने से उन श्रमिकों के मन में बजाय संतुष्टि के नाराजगी का भाव उत्पन्न हो रहा है। सोचने वाली बात है कि इस भीषण गर्मी में 18-20 घंटों की यात्रा यदि हफ्ते भर में पूरी हो तो साधारण डिब्बे में बैठे यात्री की क्या दशा हुई होगी ? और कोई देश होता तो यात्रियों को मुआवजा देना पड़ जाता। लेकिन हमारे देश में जिम्मेदार लोग अफ़सोस करने में भी कंजूसी करते हैं। आपदा में किसी भी समाज और देश की पेशेवर दक्षता और संवेदनशीलता की परीक्षा होती है। ये कहना गलत नहीं होगा कि जिन भी राज्यो में दूसरे राज्यों के श्रमिक रह रहे थे वहां के शासन-प्रशासन ने अव्वल दर्जे की लापरवाही या शरारत की ,  वरना प्रवासी श्रमिकों की घर वापिसी एक राष्ट्रीय त्रासदी नहीं बनी होती। इस सम्बन्ध में महाराष्ट्र और गुजरात सरकार विशेष रूप से कठघरे में खड़े करने लायक हैं। हालाँकि अब तक करोड़ों प्रवासी श्रमिक अपने स्थानों तक लौट चुके हैं लेकिन अभी भी लाखों बाकी हैं। उन्हें पैदल जाने से रोकने हेतु बसों की व्यवस्था किये जाने के अलावा श्रमिक एक्सप्रेसों की संख्या भी बढ़ाई गई। इस काम में भी अनेक राज्यों ने निर्णय लेने में विलम्ब किया। बहरहाल अब जबकि काफी काम हो चुका है इसलिए रेलवे को देखना चाहिए कि उसके अच्छे प्रयास पर बदनामी के दाग न लग जाएं। रेलमंत्री पियूष गोयल को चाहिए वे श्रमिक एक्सप्रेस के परिचालन को राजधानी एक्सप्रेस जैसा ही महत्व प्रदान करें क्योंकि इस समय प्रवासी मजदूर पूरे देश की जिम्मेदारी हैं और उन्हें भी ये महसूस होना चाहिए कि देश उनका भी उतना ही है जितना सम्पन्न लोगों का।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 26 May 2020

चीन की हरकतों पर सतर्कता जरूरी



लद्दाख के गलवान क्षेत्र में चीनी सेना की मौजूदगी अब गश्त से आगे बढ़कर मोर्चेबंदी की शक्ल लेती जा रही है। इस निर्जन इलाके में भारत और चीन की सैन्य टुकड़ियाँ अपने-अपने क्षेत्र की निगरानी किया करती हैं। हालाँकि 1962 के बाद बड़ी लड़ाई तो नहीं हुई लेकिन बीच-बीच में दोनों देशों के सैनिकों के बीच आमने-सामने की बहस, कहासुनी और कभी-कभार धक्कामुक्की होती रहती है। सीमा का निर्धारण चूँकि अभी तक विवाद का विषय है इसलिए दोनों देश एक दूसरे पर उसके उल्लंघन का आरोप लगाते रहे हैं। अपवादस्वरूप छोड़कर अभी तक सैन्य कमांडर ही विवाद का हल निकालकर स्थिति सामान्य कर लिया करते थे किन्तु इधर कुछ दिनों से गलवान सेक्टर में पेंगोंग झील के निकट चीन ने अपनी सैन्य उपस्थिति जिस तरह से बढ़ाई और तकरीबन 100 तम्बू गाड़ दिए उससे पता चलता है वह किसी दूरगामी योजना पर काम कर रहा है। ये किसी युद्ध में तब्दील होगी या नहीं ये तो फिलहाल कहना कठिन है किन्तु दबाव बनाने में जरुर वह कामयाब हो गया है। वैसे चीन की इस सैन्य सक्रियता का कोई विशेष कारण तो समझ नहीं आता लेकिन कोरोना संकट के बाद विश्वव्यापी किरकिरी से भन्नाया चीन भारत के रवैये से और बौखलाया हुआ है। उसकी नाराजगी तब और बढ़ गयी जब भारत ने पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगिट-बाल्टिस्तान इलाके के मौसम की नियमित जानकारी देनी शुरू कर दी। इसे एक सांकेतिक कूटनीतिक संकेत मानते हुए पाकिस्तान को लगा कि भारत सरकार बालाकोट जैसा कदम उठाकर इस इलाके पर कब्जा करने की कोशिश कर सकता है। जैसी कि खबर है उक्त इलाके में पाकिस्तान के विरूद्ध जन असंतोष तेजी से बढ़ता जा रहा है। इसके बगल वाला अक्साई चिन क्षेत्र पाकिस्तान ने चीन को भेंट स्वरूप दे दिया था। चीन को लगने लगा है कि भारत ने यदि गिलगिट और बालटिस्तान पाकिस्तान से छीन लिया तो फिर वह अक्साई चिन पर भी दावा ठोकेगा। लेकिन इसके अलावा उसके आक्रामक रुख का कारण कोरोना के बाद दुनिया के कूटनीतिक और व्यापारिक संतुलन में आ रहा बदलाव भी है। दरअसल चीन विश्व का नेता बनने का खवाब देखने लगा था लेकिन उसका दांव गलत साबित होता लग रहा है। भले ही उसने अकूत सैन्य शक्ति अर्जित कर रखी हो लेकिन आर्थिक मोर्चे पर खड़े किये अपने साम्राज्य के बिखरने की आशंका ने उसकी नींद उड़ाकर रख दी है। विश्व के नामी ब्रांड अपने प्लांट उठाकर ले जाने लगे हैं। भारत चूँकि चीन से आने वाले उद्यमों को अपने यहाँ लाने की कोशिश में है इसलिए चीन ज्यादा सतर्क है। यद्यपि अभी तक की खबरों के अनुसार चीन से निकलने वाले अधिकतर कारखाने वियतनाम, इंडोनेशिया और सिंगापुर का रुख करते दिखाई दे रहे हैं लेकिन कुछ बड़े ब्रांड भारत को प्राथमिकता देने के मूड में भी हैं क्योंकि उन्हें यहाँ उत्पादन खपाने के लिए बड़ा उपभोक्ता बाजार भी साथ ही मिल जाएगा। चीन को भी चिंता इसी बात की है। वह किसी भी स्थिति में भारत को आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ नहीं देखना चाहता क्योंकि उसे एक बात समझ आ गई है कि सैन्य मोर्चे पर तो लड़ाई ज्यादा दिन नहीं चलती किन्तु आर्थिक जंग निरंतर जारी रखी जा सकती है। भारत चूँकि इस क्षेत्र में उसका निकटतम और ताकतवर प्रतिद्वंदी है इसलिए वह उस पर दबाव बनाने के लिए सीमा पर तनाव पैदा करने की चाल चल रहा है। नेपाल की वामपंथी सरकार के माध्यम से उसने सड़क निर्माण के बाद दोनों देशों के बीच तनातनी पैदा कर दी और अब खुद भी कभी लद्दाख तो कभी अरुणाचल में सैनिकों को आमने-सामने लाकर शरारत करता रहता है। भारत भी चूँकि उसी शैली में जवाब देने लगा है इसलिए बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाती। लेकिन मौजूदा विवाद के बारे में ये कहा जा सकता है कि ये सीमा पर आये दिन होने वाले झड़प या कहासुनी न होकर किसी ठोस योजना का हिस्सा है। कोरोना के बाद वैश्विक स्तर पर चीन को जिस तरह नीचा देखना पड़ रहा है उसमें भारत की कूटनीतिक रणनीति भी बेहद महत्वपूर्ण रही है। कोरोना से लड़ने के मामले में शुरुवाती दौर में भारत को बचाव की चीजें चीन से आयात करना पड़ रही थीं किन्तु अब उनमें से अधिकतर का उत्पादन यहीं होने से चीन का निर्यात प्रभावित हुआ। इसी के साथ जिस तेजी से भारत में चीनी सामान के विरुद्ध जनता में भावना पैदा हुई वह भी चीन को चिंता में डाल रही है। इसीलिये उसने सीमा पर दबाव बढ़ाकर भारत सरकार से बातचीत करने का बहाना उत्पन्न किया है जिससे सीमा की आड़ में वह अपना व्यापार सुरक्षित रखने का आश्वासन प्राप्त करने के अलावा विश्व राजनीति में भारत द्वारा उसके विरोध को ठंडा करने की कोशिश कर सके। विश्व स्वास्थ्य संगठन में भारत द्वारा चली गयी चाल के कारण चीन को रूस ने भी झटका दे दिया। इस वजह से भी वह भारत को लेकर सतर्क हो गया है। भीतरखाने की खबर है कि सैन्य कमांडरों की बातचीत से भी सीमा पर तनाव कम नहीं होने के बाद विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने स्वयं कमान संभाली है लेकिन चीन की मंशा है राष्ट्रपति जिनपिंग और भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी में सीधी बातचीत हो जिससे चीन को भारत की सोच समझ आ सके। जब तक ये नहीं होता तब तक उसकी तरफ से भड़काने वाली हरकतें होती रहेंगीं जिनके प्रति हमें सतर्क रहने के अलावा किसी भी स्थिति में जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार रहना होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 25 May 2020

ग्रामीण भारत में प्रगति के द्वार खुलने का अवसर



कोरोना ने अर्थव्यवस्था को चौपट करने के साथ ही उसमें चारित्रिक बदलाव के रास्ते भी खोल दिए हैं। सबसे बड़ी बात बढ़ते शहरीकरण के दुष्परिणाम झेलकर लौटे विशाल श्रमिक समुदाय में से ज्यादा न सही लेकिन एक हिस्से को तो कम से कम ये समझ में आ ही गया है कि शहरों में सब कुछ होने के बाद भी बहुत कुछ ऐसा नहीं है जो गाँवों में आज भी सहजता से उपलब्ध है। आखिर जिस बदहाली में वे शहरों में गुजारा कर रहे थे , गाँव में वह तो नहीं रहेगी। विचारणीय है कि देश की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाने वाले  कृषि क्षेत्र को बीते लम्बे समय से मजदूरों की किल्लत झेलनी पड़ रही थी। ग्रामीण कुटीर उद्योग के साथ ही परम्परागत हस्त शिल्प भी इससे प्रभावित हुआ। पहले खेती के साथ ही पशु पालन भी अनिवार्य रूप से होता था। खेती में बैल का उपयोग ज्यों-ज्यों कम होता गया आम किसान अपनी प्रिय गैया पालने से भी किनारा करने लगा। गाँव में दूध खरीदने का रिवाज ही नहीं था। अनेक किसानों ने ये स्वीकार किया कि गाय या भैंस उनके लिए आर्थिक दृष्टि से बेहद लाभप्रद हो सकती हैं। लेकिन नई पीढ़ी का खेती बाड़ी से उचटता मन और फिर गाँव छोड़ शहर चले जाने से उनके पास सहायक का अभाव हो गया। एक समय ऐसा था जब किसान की पत्नी और बच्चे भी मिलकर कृषि और उससे जुड़े समस्त कामों में हाथ बंटाते थे। शिक्षा और आधुनिकता के प्रसार ने भी कृषक परिवारों में कृषि के प्रति अरुचि पैदा की और ग्रामीण युवा भी शहरी ढंग में रंग गये। परिणाम ये हुआ कि खेती के प्रति पहले जैसा समर्पण भाव क्रमश: घटता गया। अनेक बड़े किसान अपनी खेती को अधबटाई पर देने लगे। पशुपालन से मुंह मोड़ लिया गया। इस वजह से जैविक की बजाय रासायनिक खाद का उपयोग मजबूरी बनी , जिसकी वजह से कहने को उत्पादकता तो बढ़ी लेकिन उससे लागत मूल्य बढ़ने के अलावा गुणवत्ता में कमी आई। इसका प्रमाण जैविक उत्पादनों की बढ़ती मांग है। कोरोना संकट से पैदा हुए हालात के बाद शहरों से श्रमिकों के पलायन के उपरान्त ही ये आशंका हुई कि इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और बेरोजगारी की भयावहता सामने आयेगी। अपराध और अराजकता में वृद्धि का भी खतरा जताया जाने लगा। सतही तौर पर ये आकलन गलत नहीं था किन्तु जब इसके सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान दिया गया तब ये तथ्य भी उभरकर सामने आने लगा कि न सिर्फ  देश के अन्य शहरों वरन विदेशों से अपने गाँव लौटे अनेक सुशिक्षित युवा भी पशुपालन के माध्यम से दुग्ध उत्पादन का व्यवसाय करने का मन बना रहे हैं। इसका कारण गांवों में अचानक से बढ़ा मानव संसाधन है। शहरों से ठुकराए जाने के कारण श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग इस बात को समझ चुका है कि गाँव भी उन्हें रोटी दे सकता है और वह भी कहीं ज्यादा इज्जत के साथ। और अब ग्रामीण इलाके सड़क और संचार के मामले में शहरों जैसे ही हैं। बिजली ने भी जीवन शैली में काफी बदलाव किये हैं। ऐसे में यदि शासन-प्रशासन और निर्वाचित जनप्रतिनिधि ईमानदारी से समन्वित प्रयास करें तो ग्रामीण भारत फिर से अपने पुराने सुनहरे दिनों को जीने के करीब पहुंच सकता है। शहरों के भीड़ भरे माहौल के बीच असंगठित की श्रेणी में बने रहने की बजाय गाँव लौटकर खेतिहर मजदूर बनना ज्यादा सुरक्षित और सुविधाजनक है। इससे जो सबसे बड़ा लाभ हो सकता है वह उद्योगों का ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ  आकर्षित होना , जहां सस्ती जमीन और मजदूर के अलावा शुद्ध पर्यावरण भी  है। शासन इन इलाकों में उद्योगों को भारी अनुदान भी देता है। और अब तो ग्रामीण क्षेत्रों तक सड़क, बिजली, मोबाईल फोन के साथ इंटरनेट सुविधा भी सहज उपलब्ध है। यदि इस सबका लाभ उठाते हुए कोरोना की आपदा को अवसर में बदलने के प्रधानमन्त्री के संकल्प को जमीन पर उतारा जावे तो आने वाले दो-तीन वर्षों में ही भारत के ग्रामीण क्षेत्र औद्योगिक क्रांति के नए केंद्र बन सकेंगे और ऐसा होना भारत की अर्थव्यवस्था के मेरुदंड को मजबूत करने में सहायक होगा। कोरोना पीड़ित जो श्रमिक वर्ग गाँव लौटा है उसे ये समझाए जाने की जरूरत हैं कि शहर के 500 से गाँव के 300 कहीं बेहतर हैं। बीते कुछ दशकों में शहरों पर आबादी का बोझ जहाँ बढ़ा वहीं गांवों के उजड़ने का दौर शुरू हो गया। एक ज़माने में श्रमिक केवल अकेला जाता था जबकि उसका परिवार गाँव में ही रहता। कालान्तर में उसने सपरिवार जाना शुरू कर दिया और यहीं से गाँवों का सामाजिक और आर्थिक ढांचा गड़बड़ होना शुरू हो गया। कोरोना की त्रासदी ने शहरों विशेष तौर पर महानगरों में रह रहे श्रमिकों को जिस तरह उनके अधिकार से वंचित करने के साथ ही प्रताड़ित और अपमानित किया गया, उसके घाव उनके मन-मष्तिष्क पर बहुत गहरे हैं। इसके पहले कि उनके नहीं लौटने की स्थिति में ग्रामीण इलाके बेरोजगारों का संग्रहालय बन जायें वहां उद्योग-व्यवसाय स्थापित करने का काम युद्धस्तर पर शुरू हो जाना चाहिए। प्राथमिकता तो कृषि आधारित उद्योगों को ही दी जाए। साथ ही कृषकों को भी खेती के काम में पूरा ध्यान देने हेतु प्रेरित और प्रोत्साहित किया जावे। सही मायने में ये समय देश में सकारात्मक बदलाव का है। यदि ये सही रूप में किया जा सका तो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में जो विषमता है उसे दूर करना मुश्किल नहीं होगा। सबका साथ, सबका विकास नारे के पीछे भी यही मंशा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 23 May 2020

लॉक डाउन अवधि का ब्याज माफ़ किया जाए




भारतीय रिजर्व बैंक इतना उदार पहले कभी नहीं रहा। कोरोना की वजह से अर्थव्यवस्था पर आये अभूतपूर्व संकट के समय वह लगातार उद्योग-व्यापार जगत की मदद कर रहा है। अमूमन वह प्रत्येक तीन महीने में मौद्रिक नीति की समीक्षा करता था किन्तु कोरोना से उत्पन्न हालातों में उसने बीते दो महीने में अनेक बार राहतों का पिटारा खोलते हुए एक तरफ  तो कर्ज सस्ता किया वहीं दूसरी तरफ  कर्जदारों को किश्तें चुकाने में आ रही दिक्कतों को दूर करने के लिए तीन महीने की जो मोहलत दी उसे भी गत दिवस तीन महीने और बढ़ा दिया। साथ ही कर्ज भी सस्ता करते हुए बैंकों के पास नये ऋण बाँटने के लिए और धन की उपलब्धता बढ़ा दी। केंद्र सरकार द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज में चूँकि अधिकतर प्रावधान बैंकों के कर्ज से जुड़े हैं इसलिए भी शायद ऐसा करना जरूरी हो गया था। लेकिन कर्ज की अदायगी में मिली मोहलत के बावजूद ब्याज में छूट नहीं दी गयी। जबकि कारोबारी अथवा निजी ऋण लेने वालों की अपेक्षा है कि लॉक डाउन के कारण व्यापारिक गतिविधियाँ चौपट होने से हुए नुकसान की भरपाई के लिए उस अवधि के ब्याज को माफ़  किया जाना चाहिए। दरअसल जो छोटे दुकानदार कम पूंजी से व्यवसाय करते हैं, बीते दो माह में उनकी पूंजी डूब गयी। नये सिरे से व्यवसाय शुरू करने के लिए उन्हें अतिरिक्त सहायता नहीं मिली तो उनकी कमर टूट जायेगी। चूँकि ऐसी स्थिति पहले कभी पैदा नहीं हुई इसलिए कारोबारी और नौकरपेशा सभी परेशान हैं। उद्योग जगत भी कारोबार ठप्प होने से मुसीबत में है। ऐसे में सामान्य अपेक्षा ये है कि व्यवसायिक एवं निजी कर्जों पर कम से कम तीन महीने के ब्याज को सरकार माफ़ करे। इससे व्यापार-उद्योग जगत के साथ ही अपनी निजी जरूरतों के लिये ऋण लेने वाले मध्यमवर्गीय कर्जदारों को मनोवैज्ञानिक राहत मिलेगी। लोगों का ये सोचना गलत नहीं है कि उन्होंने लॉकडाउन को सफल बनाने में चूँकि पूरी ईमानदारी से योगदान दिया इसलिए अब सरकार का फर्ज बनता है कि उनके लिए आभार स्वरूप वह अप्रैल से जून का ब्याज माफ कर दे। इस बारे में एक बात ध्यान देने योग्य है कि अब तक सरकार के किसी भी कदम से नौकरपेशा मध्यमवर्ग और उसी श्रेणी के कारोबारियों को कोई राहत नहीं मिली। किराना, दूध, दवाई, सब्जी और फलों का कारोबार तो चलता रहा लेकिन उसमें भी तुलनात्मक रूप से गिरावट रही क्योंकि मजदूरों के साथ ही निजी क्षेत्र में छटनी और वेतन कटौती के कारण उपभोक्ताओं के बड़े वर्ग की क्रय क्षमता में जबरदस्त कमी आ गयी। सरकार को भी यदि राजस्व चाहिए तो उसे बाजार को गुलजार करना पड़ेगा। आज की स्थिति में लॉक डाउन पूरी तरह से हट जाने के बाद भी उद्योग-व्यवसाय में गतिशीलता तब तक नहीं आयेगी जब तक उत्पादक , व्यापारी और उपभोक्ता तीनों तनावमुक्त न हों। मौजूदा हालात में तो असुरक्षा का भाव ही सर्वत्र व्याप्त है। जिसके पास कारोबारी पूंजी यदि है तब भी वह अनिश्चितता के चलते उसका इस्तेमाल करने से हिचकेगा और खरीददार भी किसी चीज के लिए तब तक रुका रहेगा जब तक उससे खरीदना उसके लिए अनिवार्य न हो जाए। अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों के अलावा अब तो रिजर्व बैंक ने भी ये मान लिया है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली छमाही में केवल कृषि क्षेत्र से ही अच्छे परिणाम मिले और बाकी सबमें गिरावट आई। इस कारण अब ये सुनिश्चित हो गया है कि भले ही सितम्बर से मार्च तक की आगामी छमाही में कारोबारी जगत कितने भी अच्छे नतीजे दे लेकिन विकास दर बढ़ना तो दूर उसके शून्य से भी नीचे जाने के आसार हैं। अब देखने वाली बात ये होगी कि वह कितने नीचे जाती है। हालांकि दुनिया भर के अर्थशास्त्री ये मानकर चल रहे हैं कि 2021-22 वाले वित्तीय वर्ष में भारत फिर वापिसी करेगा और विकास दर 5 से 7 फीसदी के लगभग हो जायेगी। लेकिन इसके लिए कारोबारी जगत के साथ ही उपभोक्ता के मन में उत्साह भरना जरूरी है। सरकार को ये बात समझ लेनी चाहिए कि उद्योग-व्यापार और उपभोक्ता तीनों का हौसला यदि नहीं बढ़ाया गया तब उसके खजाने में भी टैक्स कम आएगा और लगातार कारोबारी सुस्ती से विकास का पहिया जंग खाने के बाद लम्बे समय तक नहीं चल सकेगा। राज्यों में भी उद्योगों पर बिजली बिल का भार बढ़ गया है। स्थायी प्रभार के नाम पर बिजली कम्पनियां लॉक डाउन अवधि का भारी-भरकम बिल वसूलने का दबाव बना रही हैं। ये सब देखते हुए अब जो भी राहत दी जाए वह पिछले गड्ढे भरने की दृष्टि से होनी चाहिए क्योंकि एक बार काम चल निकला तो बाकी की व्यवस्था उद्योगपति-व्यापारी और मध्यमवर्गीय उपभोक्ता खुद ब खुद कर लेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 22 May 2020

छोटे बच्चों के स्कूल खोलने में जल्दबाजी न की जाए



सुना है 15 जुलाई से स्कूल खोलने पर विचार चल रहा है। लेकिन पूरे बच्चों को बुलाने की बजाय आधे या एक तिहाई को आने के लिए कहा जाएगा। साथ ही स्टाफ  को कोरोना से बचाव के तरीकों का प्रशिक्षण देने के बाद बच्चों को भी सैनिटाइजर, मास्क और  सोशल डिस्टेंसिंग के बारे में समझाइश दी जायेगी तथा हर कक्षा के लिए अलग टॉयलेट एवं पानी पीने का स्थान तय किया जाएगा। इसके पहले जो संकेत थे उनके अनुसार इस वर्ष शैक्षणिक सत्र  एक सितम्बर से शुरू किये जाने की खबर थी। इसके पीछे सोच यह रही  कि एक तो स्कूल खुलते ही सड़कों पर भारी भीड़ हो जायेगी। दूसरे बच्चों से शारीरिक दूरी बनाये रखने की अपेक्षा किस हद तक पूरी हो सकेगी ये भी  निश्चित नहीं है। अधिकांश छोटे बच्चे आजकल ऑटो या बस से जाते हैं। ऐसे में डिस्टेंसिंग बनाये रखना आसान नहीं होगा। और यदि एक तिहाई और आधे बच्चे ही बुलाये जायेंगे तो फिर पढ़ाई भी  ढंग से नहीं हो सकेगी। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि ऐसा करना मात्र औपचारिकता होगी। सबसे बड़ी बात ये है कि जुलाई के मध्य में कोरोना संक्रमण चरमोत्कर्ष पर होने की बात कही जा रही है। ऐसे में कम उम्र के बच्चों का थोक में घरों से बाहर निकलना उनके लिए बेहद खतरनाक हो सकता है। लॉक डाउन के दौरान उनको बाहर  जाने से मना करने के पीछे संक्रमण से बचाना ही था। ऐसे में जब कोरोना अपने पूरे उफान पर होगा तब स्कूल खोलना अव्यवहारिक फैसला ही कहा जाएगा । जहाँ तक बात बच्चों का साल  खराब होने की है तो वह उनकी  जिन्दगी से बड़ा नहीं है। ये देखते हुए सरकार को किसी भी हाल में छोटे बच्चों की कक्षाओं के सितम्बर के पहले प्रारम्भ करने के बारे में तो सोचना भी नहीं चाहिए। जिस  तरह की व्यवस्थाओं के बारे में सरकार कह रही है वे तो महंगे स्कूलों तक में उपलब्ध नहीं होतीं । सरकारी स्कूलों की तो बात ही व्यर्थ है। इस तरह 50 फीसदी छात्रों को बुलाने पर सप्ताह में तीन दिन और 33 फीसदी पर दो दिन स्कूल में और बाकी समय घर बैठे ऑन लाइन पढ़ाई की व्यवस्था  अधकचरी सोच ही दर्शाती है। स्कूली बच्चे कोई प्रवासी मजदूर तो हैं नहीं जिन्हें मजबूरी वश किसी भी तरह से उनके घर पहुंचाने की बाध्यता सरकार के सामने हो। समाचार माध्यम या कोई राजनीतिक पार्टी अथवा उसके नेता ने भी 15 जुलाई से स्कूल खोलने की मांग नहीं की। ये तो ठीक है कि जितनी जल्दी  हो सके सभी व्यवस्थाओं को पटरी पर लाना जरुरी है किन्तु लॉक डाउन लगाने के पीछे का उद्देश्य लोगों को संक्रमण से बचाते हुए कोरोना के फैलाव को नियंत्रित करना ही तो था। निश्चित रूप से वह  अपने उद्देश्य में सफल रहा वरना भारत की विशाल आबादी को देखते हुए अब तक तो लाखों लोग कोरोना के शिकार हो चुके होते। वहीं मरने वालों  का आंकड़ा भी कई  गुना ज्यादा रहता। चौथा चरण आते तक लॉक डाउन में दी जा रही ढील भी अपनी जगह ठीक है। एहतियात बरतते हुए बाजार और दफ्तर शुरू करने की जरूरत से कोई इंकार भी नहीं करेगा किन्तु बच्चों का स्कूल खोलना तब तक तर्कसंगत नहीं होगा जब तक कोरोना पूरी तरह ढलान पर नहीं आ जाए। जिन राज्यों में अभी तक वह  नियन्त्रण में रहा वहां भी प्रवासी श्रमिकों के लौटने से अब नये संक्रमित सामने आने लगे हैं। इसीलिए ये आशंका व्यक्त की जा रही है कि जून और जुलाई में संक्रमण का आंकड़ा सर्वोच्च स्तर तक जा पहुंचेगा। और उस स्थिति में बच्चों को स्कूल भेजने के लिए  उनके अभिभावक कितने राजी होंगे, ये बड़ा प्रश्न है। जहां तक बात हाई स्कूल और महाविद्यालयों की है तो वहां के छात्र इतने परिपक्व माने जा सकते हैं कि कोरोना से बचने के लिए अपेक्षित सावधानियों का पालन करें। लेकिन प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं के बच्चों का मानसिक स्तर देखते हुए उन्हें स्कूल बुलाना नई समस्या को जन्म दे सकता है। और फिर इस उम्र के बालक-बालिकाओं को बहुत ज्यादा डराना भी उन पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बुरा प्रभाव डाल सकता है। सभी पहलुओं को देखते हुए सरकार को चाहिए कि वह हो सके तो एक सितम्बर से नया शैक्षणिक सत्र शुरू करने के बारे में निर्णय करे , वह भी इस शर्त के साथ कि तब तक कोरोना संकट खत्म हो जाएगा अथवा न्यूनतम स्तर पर जा पहुंचेगा। ये कहना कि हमें उसके साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए आसान है किन्तु किसी भी कीमत और कारण से छोटे बच्चों के प्राण संकट में डालने का दुस्साहस बुद्धिमानी नहीं होगी। शुरुवात में विवि अनुदान आयोग ने भी नये सत्र  हेतु एक सितम्बर की तारीख कुछ सोचकर ही निश्चित की थी। सीबीएसई को भी इस वर्ष का पाठ्यक्रम इस तरह से तय करने कहे जाने की जानकारी आई थी जो सितम्बर से मार्च तक पूरा हो सके। अचानक ऐसा क्या हो गया जिससे  सरकार का मन बदलने लगा। बेहतर हो बिना लागलपेट के वह अपने निर्णय को स्पष्ट करते हुए 15 जुलाई से स्कूल खोलने के फैसले को टाले। अधिकतर राज्य भी इतनी जल्दी सत्र शुरू करने सहमत नहीं होंगे। जिस तरह  की स्थितियां नजर आ रही हैं उन्हें देखते हुए तो अगस्त के पहले कोरोना का प्रकोप घटने की संभावना ही नहीं है और इसीलिये एक सितम्बर के पूर्व स्कूल खोले  जाने का कोई औचित्य नहीं है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 21 May 2020

लॉक डाउन : ढील का गलत फायदा न उठायें



दुकानें खुलने लगीं, वाहन चलने लगे, सरकारी-गैर सरकारी कार्यालयों में भी चहल-पहल बढ़ गयी है। कुछ दिनों बाद हवाई यात्रा भी शुरू हो जायेगी और एक जून से श्रमिक एक्सप्रेस के अलावा गैर वातानुकूलित रेलें चलाये जाने की तैयारी भी हो गई है। लॉक डाउन यूं तो 31 मई तक बढ़ गया है किन्तु उसमें ढिलाई या कड़ाई करने का अधिकार राज्य सरकारों को दे दिया गया। ये सब जनजीवन को सामान्य करने के उद्देश्य से किया गया है। आखिर वर्क  फ्रॉम होम हर किसी के लिए तो संभव नहीं है। जाहिर है लॉक डाउन में ढील से बाजार एवं बाकी स्थानों पर भीड़ बढ़ेगी और शारीरिक दूरी हेतु अपनाया जाने वाला सोशल डिस्टेसिंग भी काफी हद तक प्रभावित होगा। लेकिन बीते दो महीनों में कोरोना ने लगभग सभी को उससे बचाव के तौर-तरीके तो सिखा ही दिए हैं। सावधानी भी बरती जा रही है। अनेक ग्रामों में बाहर से आये परिजनों को क्वारंटीन किये जाने पर कोई उनसे मिलने नहीं जा रहा। हवाई जहाज में भी कुछ सीटें खाली रखे जाने की व्यवस्था रहेगी जिससे शारीरिक दूरी बनी रहे। रेलों में मिडिल बर्थ खाली रहेगी। मास्क हर जगह अनिवार्य कर दिया गया है। दुकानों के अलावा साग-सब्जी और फल बेचने वाले तक को मास्क बेचने की अनुमति दी गई है ताकि बिना मास्क के आये ग्राहक को पहले मास्क बेचा जा सके। व्यापारिक गतिविधियाँ दोबारा शुरू होने से लोगों में उदासी और डर तो बेशक कम होगा ही, व्यापारी को हो रहा घाटा भी काफी हद तक कम हो सकेगा, जो दो महीने से घरों में बैठा है। सरकार को राजस्व मिलने का रास्ता खुल जाएगा। उदाहरण के तौर पर देखें तो नगर निगम जबलपुर लॉक डाउन शिथिल होते ही सम्पत्ति कर के रूप में एक करोड़ रु. रोज वसूलने की स्थिति में आ गई। सड़कों पर वाहन निकलने से पेट्रोल-डीजल की बिक्री भी प्रारम्भ हो गई। अदालतों में भी तकनीक के जरिये काम शुरू हो गया है। शिक्षा जगत ने तो शुरुवात में ही ऑन लाइन तकनीक का सहारा लेकर अपना काम जारी रखा। और अब तो सरकार और विश्वविद्यालय तक ऑन लाइन शिक्षा को बढ़ावा देने में जुट गये हैं। व्यापार में भी होम डिलीवरी एक अनिवार्यता बनती दिख रही है। रेस्टारेंट में जाकर लंच-डिनर करने के बजाय आर्डर देकर घर पर भोजन बुलवाने का चलन बढ़ चला है। कोरोना के बाद की जीवनशैली में ऑन लाइन और सोशल डिस्टेंसिंग नामक तत्व अनिवार्य रूप से समाहित रहेंगे। अब तो इंडियन कॉफ़ी हाउस तक होम डिलीवरी देने लगे हैं। लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि जब कोरोना के मामले मुट्ठी भर थे तब तो लोगों के घरों से बाहर आने पर बंदिश लगाई गयी और अब जबकि कुल संक्रमित लोगों की संख्या 1 लाख दस हजार से भी ऊपर जा निकली है और प्रतिदिन 5 हजार से ज्यादा नये संक्रमित सामने आ रहे हैं तब लॉक डाउन में ढील देना किस तरह की बुद्धिमत्ता है, ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ है। ये मानने वाले भी कम नहीं हैं कि प्रवासी मजदूरों की वापिसी और उसी दौरान लॉक डाउन में शिथिलता से कहीं संक्रमण का फैलाव और तेज न हो जाए। लेकिन ये बात भी सही है कि इसके बाद सब कुछ बंद करके रखा जाना भी मुश्किल होता। दो महीने तक कोरोना के माहौल में जीने के बाद अब जनता को भी इस बीमारी से बचने के साधारण तरीके समझ में आ गये हैं। और इसीलिये ये ढील दी जा रही है जिससे लोगों को मनोवैज्ञानिक तौर पर भी मजबूत बनाया जा सके। लेकिन ये जनता खास तौर पर शिक्षित और सम्पन्न वर्ग की जिम्मेदारी है कि वे आत्मानुशासन का परिचय दें। घर से बाहर निकलने की सुविधा का अर्थ सैर-सपाटा न समझा जाए। बाजारों में भीड़ बढ़ाने की बजाय अपने नजदीकी छोटे दुकानदार से खरीदी की जाए। जाहिर तौर पर अभी तकलीफें रहेंगीं लेकिन आम जनता का व्यापक हित देखते हुए ये जरूरी है कि मास्क, शारीरिक दूरी और सैनिटाइजर की तरह से लॉक डाउन को भी हम अपने जीवन का स्थायी हिस्सा बनाएं। कोरोना का प्रकोप भले धीरे-धीरे कमजोर होता जाए किन्तु वह खत्म नहीं होगा। और इसलिए हमें उससे बचाव के प्रति हर समय और हर जगह जागरूक और सतर्क रहना होगा। जैसा बताया जा रहा है उसके अनुसार कोरोना का चरमोत्कर्ष भारत में अभी आने को है। लेकिन ये भी सही है कि उससे मुकाबले का तन्त्र भी विकसित हो चुका है। कोरोना जानलेवा हो सकता है लेकिन हर संक्रमित की मौत हो जाए ये अवधारणा गलत साबित हो चुकी है। भारत में उससे संक्रमित लोगों में मृत्युदर का प्रतिशत बहुत कम होने से उम्मीद बढ़ी है। और उसी के कारण 1 लाख से ज्यादा संक्रमण हो जाने के बाद भी लॉक डाउन में ढील देने का साहस किया जा रहा है। लेकिन जनता को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी क्योंकि यदि शारीरिक दूरी की उपेक्षा की गई और उस वजह से संक्रमण बढ़ा तब लॉक डाउन पहले जैसा सख्त करना पड़ेगा जो किसी सजा से कम नहीं होगा।Y

लॉक डाउन : ढील का गलत फायदा न उठायें

दुकानें खुलने लगीं, वाहन चलने लगे, सरकारी-गैर सरकारी कार्यालयों में भी चहल-पहल बढ़ गयी है। कुछ दिनों बाद हवाई यात्रा भी शुरू हो जायेगी और एक जून से श्रमिक एक्सप्रेस के अलावा गैर वातानुकूलित रेलें चलाये जाने की तैयारी भी हो गई है। लॉक डाउन यूं तो 31 मई तक बढ़ गया है किन्तु उसमें ढिलाई या कड़ाई करने का अधिकार राज्य सरकारों को दे दिया गया। ये सब जनजीवन को सामान्य करने के उद्देश्य से किया गया है। आखिर वर्क  फ्रॉम होम हर किसी के लिए तो संभव नहीं है। जाहिर है लॉक डाउन में ढील से बाजार एवं बाकी स्थानों पर भीड़ बढ़ेगी और शारीरिक दूरी हेतु अपनाया जाने वाला सोशल डिस्टेसिंग भी काफी हद तक प्रभावित होगा। लेकिन बीते दो महीनों में कोरोना ने लगभग सभी को उससे बचाव के तौर-तरीके तो सिखा ही दिए हैं। सावधानी भी बरती जा रही है। अनेक ग्रामों में बाहर से आये परिजनों को क्वारंटीन किये जाने पर कोई उनसे मिलने नहीं जा रहा। हवाई जहाज में भी कुछ सीटें खाली रखे जाने की व्यवस्था रहेगी जिससे शारीरिक दूरी बनी रहे। रेलों में मिडिल बर्थ खाली रहेगी। मास्क हर जगह अनिवार्य कर दिया गया है। दुकानों के अलावा साग-सब्जी और फल बेचने वाले तक को मास्क बेचने की अनुमति दी गई है ताकि बिना मास्क के आये ग्राहक को पहले मास्क बेचा जा सके। व्यापारिक गतिविधियाँ दोबारा शुरू होने से लोगों में उदासी और डर तो बेशक कम होगा ही, व्यापारी को हो रहा घाटा भी काफी हद तक कम हो सकेगा, जो दो महीने से घरों में बैठा है। सरकार को राजस्व मिलने का रास्ता खुल जाएगा। उदाहरण के तौर पर देखें तो नगर निगम जबलपुर लॉक डाउन शिथिल होते ही सम्पत्ति कर के रूप में एक करोड़ रु. रोज वसूलने की स्थिति में आ गई। सड़कों पर वाहन निकलने से पेट्रोल-डीजल की बिक्री भी प्रारम्भ हो गई। अदालतों में भी तकनीक के जरिये काम शुरू हो गया है। शिक्षा जगत ने तो शुरुवात में ही ऑन लाइन तकनीक का सहारा लेकर अपना काम जारी रखा। और अब तो सरकार और विश्वविद्यालय तक ऑन लाइन शिक्षा को बढ़ावा देने में जुट गये हैं। व्यापार में भी होम डिलीवरी एक अनिवार्यता बनती दिख रही है। रेस्टारेंट में जाकर लंच-डिनर करने के बजाय आर्डर देकर घर पर भोजन बुलवाने का चलन बढ़ चला है। कोरोना के बाद की जीवनशैली में ऑन लाइन और सोशल डिस्टेंसिंग नामक तत्व अनिवार्य रूप से समाहित रहेंगे। अब तो इंडियन कॉफ़ी हाउस तक होम डिलीवरी देने लगे हैं। लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि जब कोरोना के मामले मुट्ठी भर थे तब तो लोगों के घरों से बाहर आने पर बंदिश लगाई गयी और अब जबकि कुल संक्रमित लोगों की संख्या 1 लाख दस हजार से भी ऊपर जा निकली है और प्रतिदिन 5 हजार से ज्यादा नये संक्रमित सामने आ रहे हैं तब लॉक डाउन में ढील देना किस तरह की बुद्धिमत्ता है, ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ है। ये मानने वाले भी कम नहीं हैं कि प्रवासी मजदूरों की वापिसी और उसी दौरान लॉक डाउन में शिथिलता से कहीं संक्रमण का फैलाव और तेज न हो जाए। लेकिन ये बात भी सही है कि इसके बाद सब कुछ बंद करके रखा जाना भी मुश्किल होता। दो महीने तक कोरोना के माहौल में जीने के बाद अब जनता को भी इस बीमारी से बचने के साधारण तरीके समझ में आ गये हैं। और इसीलिये ये ढील दी जा रही है जिससे लोगों को मनोवैज्ञानिक तौर पर भी मजबूत बनाया जा सके। लेकिन ये जनता खास तौर पर शिक्षित और सम्पन्न वर्ग की जिम्मेदारी है कि वे आत्मानुशासन का परिचय दें। घर से बाहर निकलने की सुविधा का अर्थ सैर-सपाटा न समझा जाए। बाजारों में भीड़ बढ़ाने की बजाय अपने नजदीकी छोटे दुकानदार से खरीदी की जाए। जाहिर तौर पर अभी तकलीफें रहेंगीं लेकिन आम जनता का व्यापक हित देखते हुए ये जरूरी है कि मास्क, शारीरिक दूरी और सैनिटाइजर की तरह से लॉक डाउन को भी हम अपने जीवन का स्थायी हिस्सा बनाएं। कोरोना का प्रकोप भले धीरे-धीरे कमजोर होता जाए किन्तु वह खत्म नहीं होगा। और इसलिए हमें उससे बचाव के प्रति हर समय और हर जगह जागरूक और सतर्क रहना होगा। जैसा बताया जा रहा है उसके अनुसार कोरोना का चरमोत्कर्ष भारत में अभी आने को है। लेकिन ये भी सही है कि उससे मुकाबले का तन्त्र भी विकसित हो चुका है। कोरोना जानलेवा हो सकता है लेकिन हर संक्रमित की मौत हो जाए ये अवधारणा गलत साबित हो चुकी है। भारत में उससे संक्रमित लोगों में मृत्युदर का प्रतिशत बहुत कम होने से उम्मीद बढ़ी है। और उसी के कारण 1 लाख से ज्यादा संक्रमण हो जाने के बाद भी लॉक डाउन में ढील देने का साहस किया जा रहा है। लेकिन जनता को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी क्योंकि यदि शारीरिक दूरी की उपेक्षा की गई और उस वजह से संक्रमण बढ़ा तब लॉक डाउन पहले जैसा सख्त करना पड़ेगा जो किसी सजा से कम नहीं होगा।


मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस : सम्पादकीय
-रवीन्द्र वाजपेयी


लॉक डाउन : ढील का गलत फायदा न उठायें

दुकानें खुलने लगीं, वाहन चलने लगे, सरकारी-गैर सरकारी कार्यालयों में भी चहल-पहल बढ़ गयी है। कुछ दिनों बाद हवाई यात्रा भी शुरू हो जायेगी और एक जून से श्रमिक एक्सप्रेस के अलावा गैर वातानुकूलित रेलें चलाये जाने की तैयारी भी हो गई है। लॉक डाउन यूं तो 31 मई तक बढ़ गया है किन्तु उसमें ढिलाई या कड़ाई करने का अधिकार राज्य सरकारों को दे दिया गया। ये सब जनजीवन को सामान्य करने के उद्देश्य से किया गया है। आखिर वर्क  फ्रॉम होम हर किसी के लिए तो संभव नहीं है। जाहिर है लॉक डाउन में ढील से बाजार एवं बाकी स्थानों पर भीड़ बढ़ेगी और शारीरिक दूरी हेतु अपनाया जाने वाला सोशल डिस्टेसिंग भी काफी हद तक प्रभावित होगा। लेकिन बीते दो महीनों में कोरोना ने लगभग सभी को उससे बचाव के तौर-तरीके तो सिखा ही दिए हैं। सावधानी भी बरती जा रही है। अनेक ग्रामों में बाहर से आये परिजनों को क्वारंटीन किये जाने पर कोई उनसे मिलने नहीं जा रहा। हवाई जहाज में भी कुछ सीटें खाली रखे जाने की व्यवस्था रहेगी जिससे शारीरिक दूरी बनी रहे। रेलों में मिडिल बर्थ खाली रहेगी। मास्क हर जगह अनिवार्य कर दिया गया है। दुकानों के अलावा साग-सब्जी और फल बेचने वाले तक को मास्क बेचने की अनुमति दी गई है ताकि बिना मास्क के आये ग्राहक को पहले मास्क बेचा जा सके। व्यापारिक गतिविधियाँ दोबारा शुरू होने से लोगों में उदासी और डर तो बेशक कम होगा ही, व्यापारी को हो रहा घाटा भी काफी हद तक कम हो सकेगा, जो दो महीने से घरों में बैठा है। सरकार को राजस्व मिलने का रास्ता खुल जाएगा। उदाहरण के तौर पर देखें तो नगर निगम जबलपुर लॉक डाउन शिथिल होते ही सम्पत्ति कर के रूप में एक करोड़ रु. रोज वसूलने की स्थिति में आ गई। सड़कों पर वाहन निकलने से पेट्रोल-डीजल की बिक्री भी प्रारम्भ हो गई। अदालतों में भी तकनीक के जरिये काम शुरू हो गया है। शिक्षा जगत ने तो शुरुवात में ही ऑन लाइन तकनीक का सहारा लेकर अपना काम जारी रखा। और अब तो सरकार और विश्वविद्यालय तक ऑन लाइन शिक्षा को बढ़ावा देने में जुट गये हैं। व्यापार में भी होम डिलीवरी एक अनिवार्यता बनती दिख रही है। रेस्टारेंट में जाकर लंच-डिनर करने के बजाय आर्डर देकर घर पर भोजन बुलवाने का चलन बढ़ चला है। कोरोना के बाद की जीवनशैली में ऑन लाइन और सोशल डिस्टेंसिंग नामक तत्व अनिवार्य रूप से समाहित रहेंगे। अब तो इंडियन कॉफ़ी हाउस तक होम डिलीवरी देने लगे हैं। लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि जब कोरोना के मामले मुट्ठी भर थे तब तो लोगों के घरों से बाहर आने पर बंदिश लगाई गयी और अब जबकि कुल संक्रमित लोगों की संख्या 1 लाख दस हजार से भी ऊपर जा निकली है और प्रतिदिन 5 हजार से ज्यादा नये संक्रमित सामने आ रहे हैं तब लॉक डाउन में ढील देना किस तरह की बुद्धिमत्ता है, ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ है। ये मानने वाले भी कम नहीं हैं कि प्रवासी मजदूरों की वापिसी और उसी दौरान लॉक डाउन में शिथिलता से कहीं संक्रमण का फैलाव और तेज न हो जाए। लेकिन ये बात भी सही है कि इसके बाद सब कुछ बंद करके रखा जाना भी मुश्किल होता। दो महीने तक कोरोना के माहौल में जीने के बाद अब जनता को भी इस बीमारी से बचने के साधारण तरीके समझ में आ गये हैं। और इसीलिये ये ढील दी जा रही है जिससे लोगों को मनोवैज्ञानिक तौर पर भी मजबूत बनाया जा सके। लेकिन ये जनता खास तौर पर शिक्षित और सम्पन्न वर्ग की जिम्मेदारी है कि वे आत्मानुशासन का परिचय दें। घर से बाहर निकलने की सुविधा का अर्थ सैर-सपाटा न समझा जाए। बाजारों में भीड़ बढ़ाने की बजाय अपने नजदीकी छोटे दुकानदार से खरीदी की जाए। जाहिर तौर पर अभी तकलीफें रहेंगीं लेकिन आम जनता का व्यापक हित देखते हुए ये जरूरी है कि मास्क, शारीरिक दूरी और सैनिटाइजर की तरह से लॉक डाउन को भी हम अपने जीवन का स्थायी हिस्सा बनाएं। कोरोना का प्रकोप भले धीरे-धीरे कमजोर होता जाए किन्तु वह खत्म नहीं होगा। और इसलिए हमें उससे बचाव के प्रति हर समय और हर जगह जागरूक और सतर्क रहना होगा। जैसा बताया जा रहा है उसके अनुसार कोरोना का चरमोत्कर्ष भारत में अभी आने को है। लेकिन ये भी सही है कि उससे मुकाबले का तन्त्र भी विकसित हो चुका है। कोरोना जानलेवा हो सकता है लेकिन हर संक्रमित की मौत हो जाए ये अवधारणा गलत साबित हो चुकी है। भारत में उससे संक्रमित लोगों में मृत्युदर का प्रतिशत बहुत कम होने से उम्मीद बढ़ी है। और उसी के कारण 1 लाख से ज्यादा संक्रमण हो जाने के बाद भी लॉक डाउन में ढील देने का साहस किया जा रहा है। लेकिन जनता को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी क्योंकि यदि शारीरिक दूरी की उपेक्षा की गई और उस वजह से संक्रमण बढ़ा तब लॉक डाउन पहले जैसा सख्त करना पड़ेगा जो किसी सजा से कम नहीं होगा।

मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस : सम्पादकीय
-रवीन्द्र वाजपेयी


लॉक डाउन : ढील का गलत फायदा न उठायें

दुकानें खुलने लगीं, वाहन चलने लगे, सरकारी-गैर सरकारी कार्यालयों में भी चहल-पहल बढ़ गयी है। कुछ दिनों बाद हवाई यात्रा भी शुरू हो जायेगी और एक जून से श्रमिक एक्सप्रेस के अलावा गैर वातानुकूलित रेलें चलाये जाने की तैयारी भी हो गई है। लॉक डाउन यूं तो 31 मई तक बढ़ गया है किन्तु उसमें ढिलाई या कड़ाई करने का अधिकार राज्य सरकारों को दे दिया गया। ये सब जनजीवन को सामान्य करने के उद्देश्य से किया गया है। आखिर वर्क  फ्रॉम होम हर किसी के लिए तो संभव नहीं है। जाहिर है लॉक डाउन में ढील से बाजार एवं बाकी स्थानों पर भीड़ बढ़ेगी और शारीरिक दूरी हेतु अपनाया जाने वाला सोशल डिस्टेसिंग भी काफी हद तक प्रभावित होगा। लेकिन बीते दो महीनों में कोरोना ने लगभग सभी को उससे बचाव के तौर-तरीके तो सिखा ही दिए हैं। सावधानी भी बरती जा रही है। अनेक ग्रामों में बाहर से आये परिजनों को क्वारंटीन किये जाने पर कोई उनसे मिलने नहीं जा रहा। हवाई जहाज में भी कुछ सीटें खाली रखे जाने की व्यवस्था रहेगी जिससे शारीरिक दूरी बनी रहे। रेलों में मिडिल बर्थ खाली रहेगी। मास्क हर जगह अनिवार्य कर दिया गया है। दुकानों के अलावा साग-सब्जी और फल बेचने वाले तक को मास्क बेचने की अनुमति दी गई है ताकि बिना मास्क के आये ग्राहक को पहले मास्क बेचा जा सके। व्यापारिक गतिविधियाँ दोबारा शुरू होने से लोगों में उदासी और डर तो बेशक कम होगा ही, व्यापारी को हो रहा घाटा भी काफी हद तक कम हो सकेगा, जो दो महीने से घरों में बैठा है। सरकार को राजस्व मिलने का रास्ता खुल जाएगा। उदाहरण के तौर पर देखें तो नगर निगम जबलपुर लॉक डाउन शिथिल होते ही सम्पत्ति कर के रूप में एक करोड़ रु. रोज वसूलने की स्थिति में आ गई। सड़कों पर वाहन निकलने से पेट्रोल-डीजल की बिक्री भी प्रारम्भ हो गई। अदालतों में भी तकनीक के जरिये काम शुरू हो गया है। शिक्षा जगत ने तो शुरुवात में ही ऑन लाइन तकनीक का सहारा लेकर अपना काम जारी रखा। और अब तो सरकार और विश्वविद्यालय तक ऑन लाइन शिक्षा को बढ़ावा देने में जुट गये हैं। व्यापार में भी होम डिलीवरी एक अनिवार्यता बनती दिख रही है। रेस्टारेंट में जाकर लंच-डिनर करने के बजाय आर्डर देकर घर पर भोजन बुलवाने का चलन बढ़ चला है। कोरोना के बाद की जीवनशैली में ऑन लाइन और सोशल डिस्टेंसिंग नामक तत्व अनिवार्य रूप से समाहित रहेंगे। अब तो इंडियन कॉफ़ी हाउस तक होम डिलीवरी देने लगे हैं। लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि जब कोरोना के मामले मुट्ठी भर थे तब तो लोगों के घरों से बाहर आने पर बंदिश लगाई गयी और अब जबकि कुल संक्रमित लोगों की संख्या 1 लाख दस हजार से भी ऊपर जा निकली है और प्रतिदिन 5 हजार से ज्यादा नये संक्रमित सामने आ रहे हैं तब लॉक डाउन में ढील देना किस तरह की बुद्धिमत्ता है, ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ है। ये मानने वाले भी कम नहीं हैं कि प्रवासी मजदूरों की वापिसी और उसी दौरान लॉक डाउन में शिथिलता से कहीं संक्रमण का फैलाव और तेज न हो जाए। लेकिन ये बात भी सही है कि इसके बाद सब कुछ बंद करके रखा जाना भी मुश्किल होता। दो महीने तक कोरोना के माहौल में जीने के बाद अब जनता को भी इस बीमारी से बचने के साधारण तरीके समझ में आ गये हैं। और इसीलिये ये ढील दी जा रही है जिससे लोगों को मनोवैज्ञानिक तौर पर भी मजबूत बनाया जा सके। लेकिन ये जनता खास तौर पर शिक्षित और सम्पन्न वर्ग की जिम्मेदारी है कि वे आत्मानुशासन का परिचय दें। घर से बाहर निकलने की सुविधा का अर्थ सैर-सपाटा न समझा जाए। बाजारों में भीड़ बढ़ाने की बजाय अपने नजदीकी छोटे दुकानदार से खरीदी की जाए। जाहिर तौर पर अभी तकलीफें रहेंगीं लेकिन आम जनता का व्यापक हित देखते हुए ये जरूरी है कि मास्क, शारीरिक दूरी और सैनिटाइजर की तरह से लॉक डाउन को भी हम अपने जीवन का स्थायी हिस्सा बनाएं। कोरोना का प्रकोप भले धीरे-धीरे कमजोर होता जाए किन्तु वह खत्म नहीं होगा। और इसलिए हमें उससे बचाव के प्रति हर समय और हर जगह जागरूक और सतर्क रहना होगा। जैसा बताया जा रहा है उसके अनुसार कोरोना का चरमोत्कर्ष भारत में अभी आने को है। लेकिन ये भी सही है कि उससे मुकाबले का तन्त्र भी विकसित हो चुका है। कोरोना जानलेवा हो सकता है लेकिन हर संक्रमित की मौत हो जाए ये अवधारणा गलत साबित हो चुकी है। भारत में उससे संक्रमित लोगों में मृत्युदर का प्रतिशत बहुत कम होने से उम्मीद बढ़ी है। और उसी के कारण 1 लाख से ज्यादा संक्रमण हो जाने के बाद भी लॉक डाउन में ढील देने का साहस किया जा रहा है। लेकिन जनता को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी क्योंकि यदि शारीरिक दूरी की उपेक्षा की गई और उस वजह से संक्रमण बढ़ा तब लॉक डाउन पहले जैसा सख्त करना पड़ेगा जो किसी सजा से कम नहीं होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 20 May 2020

प्रवासी पलायन : ताकि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो



देश की राजधानी दिल्ली के साथ ही व्यावसायिक राजधानी  मुबंई में विभिन्न राज्यों के जो मजदूर कार्यरत थे उनमें से अधिकतर वापिस चले गये और जो शेष  हैं वे  भी  मौका मिलते ही अपने - अपने गाँव चले जायेंगे | जैसे हालात बन रहे हैं उन्हें देखते हुए लम्बे समय तक उनकी वापिसी सम्भव नहीं दिखती | भले ही व्यापार और उद्योग फिर से शुरू  हो जाएँ लेकिन कोरोना संक्रमण का फैलाव जिस तरह बढ़ता जा रहा है उसे देखते हुए लौट गये लोगों  में से शायद ही कोई  जल्द वापिस आये | ये बात सही है कि बिना काम किये गुजारा भी नहीं है । लेकिन जान है तो जहान है वाली बात कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है | इन महानगरों में तमाम कोशिशों के बावजूद  भी नये मरीजों का पता लगने से ये स्पष्ट है कि वहां  के हालात  सामान्य होने में अभी लम्बा समय लगेगा | ये भी खबर है कि उनके गृहराज्य की सरकारें उनके लिए राशन -  पानी  के साथ ही रोजगार का इंतजाम भी कर रही हैं | केंद्र सरकार ने तो उनको तीन महीने तक बिना राशन कार्ड के भी  अनाज देने की बात कही है | दरअसल जिन  राज्यों में मजदूरों की वापिसी हुई उनकी सरकार को लग रहा है कि उन्हें अगर यहीं काम में लगा दिया जाए तो श्रमिकों की कमी दूर हो सकेगी जिसके कारण  विकास के कार्य या तो रुके पड़े रहते  हैं या फिर  कछुआ गति से चलते  हैं | आज ही मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी तदाशय का आश्वासन दिया है | उप्र में जिला स्तर पर ही नये उद्योगों की योजना योगी सरकार  बना रही  है | लेकिन इससे अलग हटकर देखें तो दूसरा पहलू ये भी है कि बड़ी संख्या ऐसे मजदूरों की है जो हाल ही में हुए दर्दनाक अनुभवों के कारण अब गाँव के अलावा आसपास ही काम करना चाहेंगे | यदि ऐसा हुआ तब महानगरों के उद्योग - व्यापार ही नहीं अपितु अन्य क्षेत्रों में भी उसका असर पड़े बिना नहीं रहेगा | उदाहरण के तौर पर मुम्बई से हजारों टैक्सी और ऑटो वाले अपने वाहन से ही सपरिवार गाँव लौट गए | उनमें से अनेक का कहना है कि उन पर  बैंक का जो कर्ज है वह तो चुकायेंगे ही किन्तु  मुम्बई में जाकर काम करने को लेकर अभी फैसला नहीं किया है |  मजदूरी करने वालों का मन भी बड़े शहरों से उचट गया है | ये नये प्रकार की स्थिति है। लेकिन इसका एक लाभ ये भी है कि महानगरों की भीड़ कुछ कम करते हुए स्थानीय लोगों को रोजगार देने की योजना पर क्रियान्वयन हो | दुनिया में  अनेक देश ऐसे हैं जो विदेशियों को काम करने के लिये परमिट जारी करते हैं | ये इस बात पर निर्भर करता है कि उन्हें कितना मानव संसाधन चाहिए | बेहतर  हो अब महानगरों में अन्य राज्यों से आने वाले मजदूरों को लेकर भी इस तरह के नियम बनें जिससे उनके आवास आदि की समुचित व्यवस्था की जा सके | यदि वे किसी ठेकेदार के माध्यम से आये हुए हों तो इन मजदूरों की कुशलता का दायित्व क़ानूनन उसी का हो | बाहर से आने वाले किसी भी  श्रमिक को झुग्गी - झोपड़ी में रहने  की अनुमत्ति नहीं देनी चाहिए  | मुम्बई और दिल्ली ही नहीं चेन्नई , अहमदाबाद , बेंगुलुरु जैसे शहरों से लाखों श्रमिकों के पलायन के बाद जिन बस्तियों में वे रहते थे उनका अवलोकन करते हुए वहां की नारकीय व्यवस्थाएं दुरस्त करने का ये बेहतरीन अवसर है |  आगे से इन महानगरों में नए उद्योग खोलने की अनुमति नहीं देना चाहिए | दिल्ली में जो अवैध बस्तियां हैं उनमें उप्र - बिहार से आये मजदूर ही सबसे ज्यादा थे | उनमें से अधिकतर दीपावली तक लौटने वाले नहीं है | इस समय का लाभ उठाकर बाहर से आने वाले श्रमिकों के बारे में  ऐसी व्यवस्था बनाई जावे जिससे दोबारा कभी ये स्थिति न बन सके | अपना राज्य छोड़कर अन्य किसी महानगर में मजदूरी करने  जाने वाले व्यक्ति के लिए ये अनिवार्य होना चहिये कि वह अपना गाँव या क़स्बा छोड़ते समय स्थानीय प्रशासन को तत्संबंधी लिखित जानकरी दे | जिससे ये पता हो कि वह गया कहाँ है ? इसी तरह किसी महानगर में जाने के बाद चाहे व्यक्ति मजदूरी करे या फिर चाय - पान  की दूकान खोले  लेकिन स्थानीय तौर पर प्रशासन  को उसकी जानकारी देनी चाहिए | लॉक डाउन के बाद बने हालातों में बड़े शहरों में काम करने वाले मजदूरों की जो दुर्दशा  हुई उसे देखते हुए यदि वे दोबारा वापिस लौटते हैं तब उनके बारे में विधिवत जानकारी होनी जरूरी है  | संघीय ढांचे के  नाम पर इसे आवाजाही की स्वतंत्रता पर पाबंदी कहकर उसका विरोध भी हो सकता है परंतु बीते कुछ दिनों में जो भी देखने मिला उसके बाद प्रवासी श्रमिकों को लेकर इस तरह  की व्यवस्था बननी चाहिये  जिससे किसी आपदा के समय वे  अनाथ न रहें  | इसके लिए  महानगरों में अस्थायी रूप से आने वालों के रहने का समुचित इंतजाम होना जरूरी है | जिस कारखाने , प्रतिष्ठान या ठेकेदार के यहाँ बाहरी मजदूर काम करें वह उनके रहने का इंतजाम करे अन्यथा फुटपाथ , अस्थायी झोपड़ी, रेलवे स्टेशन , बस स्टैंड जैसे सार्वजनिक स्थानों पर रहने की प्रथा बंद होनी चाहिए | महानगरों में बेतहाशा बढ़ती  आबादी से ही आवासीय समस्या पैदा होती है जो झुग्गियों के फैलाव के साथ ही गंदगी और बीमारियों को जन्म देती है | कोरोना संकट से मिले अवसर में इस तरफ भी ध्यान देना जरूरी है | वरना जिस तरह का पलायन देखने मिल रहा है उसकी पुनरावृत्ति होती रहेगी | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 19 May 2020

चीन भारत के बढ़ते महत्व से भन्नाया है




चीन के साथ लगी  सीमा पर आये दिन तनाव की खबरें आ रही हैं | यद्यपि बरसों से दोनों तरफ से एक भी गोली नहीं चली किन्तु चीन द्वारा  समय - समय पर भड़काऊ गतिविधियाँ होती रहती हैं | बीते कुछ दिनों में सिक्किम और लद्दाख क्षेत्र में भारतीय सैनिकों के साथ हाथापाई ,और  कहा सुनी के समाचार आये हैं | हिमाचल के स्पीती इलाके में वायु सीमा  के उल्लंघन की कोशिश भी चीन द्वारा की गयी | जैसा अभी तक होता आया है उसी तरह से मौके पर तैनात वरिष्ठ सैन्य अफसरों की बातचीत से विवाद आगे नहीं बढ़ा लेकिन चीन की ओर से कुछ न कुछ ऐसा किया जाता है जिससे भारतीय सैनिकों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जा सके | इस बारे में जो वीडियो सोशल मीडिया पर प्रसारित हो  रहे हैं उनमें भारतीय पक्ष से बात कर  रहा अधिकारी जहाँ बड़े ही शांत भाव से चीनी सैनिकों को समझा रहा है वहीं चीनी सेना का एक अधिकारी बड़े ही तैश में धमकाने वाली शैली में चिल्लाता दिख रहा है | चीनी दुभाषिया दोनों पक्षों के बीच संवाद सेतु की भूमिका में है | रक्षा मंत्रालय के सूत्र इसे सामान्य घटना मानते हैं | इसकी वजह पिछले कई साल का अनुभव भी है | लेकिन अनेक अवसर ऐसे भी आए जब दोनों ही तरफ से सैन्य जमावड़ा होने की नौबत आई और लगा जैसे युद्ध होकर रहेगा लेकिन बातचीत से मामला सुलट गया | इसके दो कारण हैं | अव्वल तो भारत ने भी अग्रिम सीमाओं तक सैन्य बल और साजो - सामान पहुँचाने के लिए सड़क और हवाई पट्टी बना ली हैं और युद्ध संबंधी संसाधनों के मामले में भी वह पहले से कहीं बेहतर है | दूसरी बात चीन के भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते इतने गहरे हो गये कि वह छोटे - छोटे कारणों से उन्हें खराब नहीं करना चाहता | ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब पूरी दुनिया कोरोना वायरस से लड़ने में व्यस्त है और खुद चीन भी उससे पूरी तरह उबर नहीं पाया है तब सीमा पर बेवजह तनाव पैदा करने का कारण क्या है ? और इसका  जवाब है  भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर चीन की घेराबंदी के अलावा गिलगित पर अपने आधिपत्य का ऐलान | लेकिन सबसे ज्यादा नाराजगी बीजिंग को है  चीन से उठकर बाहर आने वाले कम्पनियों को भारत द्वारा अपने यहाँ आने के लिए आकर्षित करना | प्रधानमन्त्री ने बीते दिनों देश के नाम अपने संदेश में आत्मनिर्भर भारत अभियान की  शुरुवात करते हुए  ग्लोबल ब्रांड की बजाय लोकल (स्थानीय) के प्रति वोकल ( मुखर ) होने का जो नारा दिया उसे अप्रत्यक्ष रूप से चीन के विरूद्ध ही माना जा रहा है | उसके बाद से स्वदेशी के पक्ष में जो प्रातिक्रियाएं आईं चीन सरकार ने उनका संज्ञान  अत्यंत ही  गम्भीरता से लेते हुए भारत को छेड़ने का काम शुरू कर  दिया | मानसरोवर यात्रा में समय की बचत करने के उद्देश्य से बनाई जा रही एक सड़क का नेपाल द्वारा जिस अंदाज में विरोध किया गया उसके पीछे भी चीन का हाथ होने की आशंका तो बिना नाम लिए थल सेनाध्यक्ष तक ने जताई है | विश्व स्वास्थ्य संगठन में भारत द्वारा चीन की अपेक्षा ताइवान को महत्व देने की जो रणनीति बनाई गयी उससे भी वह भन्नाया हुआ है | कोरोना को लेकर चीन की छवि पूरे विश्व में खराब हुई जबकि भारत ने जिस तरह से कोरोना का सामना किया और खुद संकट  में रहते  हुए भी दूसरे देशों की  सहायता की , उसकी वजह से उसकी छवि एक जिम्मेदार देश के तौर पर मजबूत हुई | ताजा खबर ये है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रबंधन में भी भारत को महत्वपूर्ण दायित्व मिलने वाला है | इन्हीं सब खिसियाहटों की वजह से चीन भारत के प्रति  खुन्नस निकालने का बहाना तलाश रहा है | उसे ये बात भी हजम नहीं हो रही कि भारत कोरोना का मुकाबला करते हुए भी सामान्य बना हुआ  है | लॉक डाउन के जरिये संक्रमण के फैलाव  को रोकने के साथ ही मृत्यु दर को काफी नियंत्रित किये जाने की भारतीय उपलब्धि से उसे  शर्मिन्दगी महसूस हो रही है | ये बात तो सर्वविदित है कि चीन भारत को अपना जन्मजात शत्रु मानता है | यद्यपि  उसे भी पता है कि आज का भारत 1962 वाला साधनहीन मुल्क नहीं है और हर मोर्चे पर चीन से भिड़ने में  सक्षम है | इसीलिये सीमा पर तनाव पैदा कर वह  भारत को बेवजह परेशानी में डालकर दबाव बनाने की  चाल चल रहा है | भारत ने चीन की तरफ से हो रही हरकतों का जवाब बेहद ही संयत तरीके से देते  हुए जाल में नहीं फंसने की जो नीति अपना रखी है उससे उलटा चीन तनाव में आ रहा है | लेकिन किसी भी प्रकार  की खुशफहमी पाल लेना गलत होगा | भारत ही नहीं पूरी दुनिया चीन को चालाक और धूर्त मानने लगी है | ऐसे में भारत का पलड़ा तो भारी है परन्तु चीन अविश्वसनीयता की प्रतिमूर्ति है | वह क्या कर बैठे  ये  कहना कठिन है | पाकिस्तान के साथ मिलकर वह ऐसी कोई स्थिति भी बना सकता है जिससे  भारत को दोहरे मोर्चे पर जूझना पड़े | इसलिए सतर्कता की बेहद जरूरत है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

 

Monday 18 May 2020

कोरोना : एक लाख का आंकड़ा बड़ी चिंता का कारण



ये तो तय हो गया कि लॉक डाउन 31 मई तक रहेगा। जैसा प्रधानमंत्री ने बताया अब उसके रंग रूप में कतिपय बदलाव जरुर कर दिए जायेंगे। अर्थात पहले से ज्यादा छूट मिलेगी लेकिन वह कैसी और कितनी होगी ये राज्य सरकारें और उनके स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी निश्चित करेंगे। लेकिन लॉक डाउन का यह चौथा चरण भी कोरोना का विदाई सत्र नहीं लगता। जिस तरह से नए मरीज बढ़ रहे हैं वह देखते हुए आज रात तक कुल संक्रमित लोगों की संख्या एक लाख को छू जायेगी। लेकिन तीन हजार के करीब मौतों के बाद भी 38 फीसदी अर्थात 36 हजार मरीजों का स्वस्थ हो जाना आशा जगाने वाला है। ठीक होकर घर लौटने वालों का आंकड़ा निरंतर बढऩे से स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति विश्वास जागा है और अब लोग जाँच करवाने से भी नहीं डर रहे। जैसे संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार शहरों में हॉट स्पॉट बने हुए संक्रमित इलाकों में पूरी तरह सख्ती बनाये रखते हुए बाकी क्षेत्रों में नियन्त्रण के साथ व्यापारिक गतिविधियां सामान्य करने का फैसला लिया जा सकता है। बीते तकरीबन दो माह में जनता और शासन - प्रशासन कोरोना के साथ रहना सीख गये हैं। हालांकि अब भी लापरवाही कम नहीं है लेकिन जनजीवन को और लम्बे समय तक रोककर नहीं रखा जा सकता। किराना, दवाइयां, पेट्रोल, दूध, सब्जी - फल आदि की आपूर्ति होते रहने से भले ही लॉक डाउन के बावजूद जीवन चलता रहा लेकिन बाकी व्यवसायी इस दौरान आर्थिक संकट में फंसकर रह गये। ऐसे में भले ही सीमित अवधि के लिए ही क्यों न हो किन्तु दुकानें खुलनी चाहिए। इसी तरह सायकिल और ऑटो रिक्शा जैसे परिवहन भी शुरू हों। बाजार खुलने से उन मजदूरों को लाभ मिलेगा जो माल लाने - ले जाने का काम करते हैं। अनाज मंडी बंद रहने से वहाँ कार्यरत हम्मालों का रोजगार चला गया। कहने का आश्य ये है कि बाजार से केवल दुकानदार, उसके कर्मचारी और ग्राहक ही नहीं बल्कि एक लम्बी श्रृंखला आपस में जुड़ी होती है। दो महीने के अंतराल के बाद व्यवसाय को गति पकड़ने में समय लगेगा। कोरोना के भय से अनेक लोग खासकर बुजुर्गवार तो घरों से निकलने में संकोच करेंगे। इसी के साथ कड़वा सच ये भी है कि है आज के समाज में बड़ी संख्या में ऐसे बुजुर्ग दम्पत्ति रह रहे हैं जिनके बेटे - बेटी या तो विदेश में हैं या फिर शहर से बाहर। होम डिलीवरी का चलन इस दौरान काफी बढ़ा है और दुकानदार भी ग्राहकों से मोबाईल पर निरंतर सम्पर्क करते हुए ऑर्डर ले रहे हैं। लेकिन बाजार तो बाजार है और बिना उसके खुले जि़न्दगी में आया ठहराव दूर नहीं हो सकेगा। आवागमन के साधन भी शुरू होना ज़रूरी लगता है लेकिन लॉक डाउन के चौथे चरण में अपेक्षित छूट भी इस बात पर निर्भर करेगी कि जनता का उसके बाद कैसा आचरण रहता है ? कोरोना के फैलाव को रोकना अभी भी सबसे बड़ी प्राथमिकता है। शारीरिक दूरी, मास्क और हाथ धोने जैसी चीजों के प्रति लोग जागरूक हुए हैं लेकिन अभी भी एक वर्ग ऐसा है जिसे नियमों का पालन करने में अपमान महसूस होता हैं। ऐसे लोगों पर नजर रखी जानी चाहिए। मुस्लिम समाज के ऐसे ही कुछ बददिमाग लोगों की वजह से आज इस समुदाय में कोरोना संक्रमण का फैलाव अत्यंत तेजी से हुआ। लेकिन ये आशंका भी है कि जनजीवान के सामान्य होते ही अभी तक बना रहा अनुशासन कहीं टूट न जाए। क्योंकि जरा सी चूक से ग्रीन ज़ोन कब रेड ज़ोन में तब्दील हो जायेगा कहना कठिन है। दरअसल दो माह की देशबंदी ने समाज के हर तबके को जबरर्दस्त मुसीबत में डाल दिया है। विशेष रूप से मध्यम और निम्न आय वर्ग के लिए तो ये हालात किसी डरावने सपने से कम नहीं हैं। एक अदृश्य भय सभी के मन में बैठ गया है। परिवार के साथ बाहर जाना खतरे से खाली होने से घर की चहारदीवारी के भीतर कैद रहना मजबूरी बन गयी है। जिस घर में बुजुर्ग ज्यादा हों वहां वैसे भी डर मन के भीतर घुसकर बैठ गया है। स्कूल बंद होने से बच्चे दो माह से कहीं जा नहीं सके। और छूट मिलने के बाद भी माता-पिता उन्हें बाहर ले जाने में हिचकेंगे। इस तरह लॉक डाउन का चौथा चरण भी एक तरह की परीक्षा ही है। इसमें उत्तीर्ण न होने पर लॉक डाउन भी बढ़ता जाएगा। जानकारों के अनुसार मई माह तो गाँव लौट रहे मजदूरों के इंतजाम में चला जायेगा। उसके बाद ये देखना होगा कि नए संक्रमित मरीजों की संख्या में कमी आती है या नहीं। क्योंकि अगर ये सिलसिला इसी तरह जारी रहा तब तो फिर जैसा एम्स दिल्ली के डायरेक्टर ने आशंका जताई कि कोरोना का सर्वोच्च जून और जुलाई में आयेगा। और उस स्थिति में लॉक डाउन में की जाने वाली शिथिलता वापिस भी की जा सकती है। ये सब देखते हुए जहां भी छूट मिलती है वहां के सभी लोगों को शारीरिक दूरी के साथ ही दूसरी जरूरी सावधानियां रखनी होंगी क्योंकि एक की गलती पूरे शहर को भारी पड़े बिना नहीं रहेगी। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि शुरुवाती दौर में तबलीगी जमात के अनुयायियों ने यदि अराजक हालात न पैदा किये होते तो बड़ी बात नहीं भारत कोरोना से जीतने के कगार पर आ गया होता। खैर, जो हो गया सो हो गया लेकिन आगे पूरी तरह सावधानी की जरूरत है। संक्रमितों की संख्या एक लाख तक पहुंचना बड़ी चिंता का कारण है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

गाँव - मोहल्ले में आत्मनिर्भरता के बाद भी सब एक दूसरे पर निर्भर थे परिवारों की टूटन से सामाजिकता के संस्कार भी कमजोर पड़े



मेरे बचपन का गाँव आत्मनिर्भर था किन्तु गाँव का हर व्यक्ति एक दूसरे पर निर्भर था | सहकारिता की अर्थव्यवस्था में गाँव में अमन - चैन और खुशहाली का भाव था , जो आज कहीं खो गया है | फेसबुक पर मित्रवर लक्ष्मीकांत शर्मा की उक्त पोस्ट ने मेरा ध्यान ही नहीं खींचा मानो एक  दिशा दिखा दी | मुझे ये स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि गाँवों से मेरा किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है | लेकिन दूसरी तरफ ये भी सही है कि बचपन से गाँवों में मेरा आना जाना रहा है | यहाँ तक कि मैं ऐसी कुछ बारातों में भी शामिल रहा जो किसी गाँव में आज  की तरह केवल एक रात नहीं अपितु तीन दिन ठहरीं | मेरे ननिहाल में पुरानी जमींदारी होने से गर्मियों की  छुट्टियों में नाना जी के साथ ग्रामीण इलाके देखने  का भी खूब मौका मिला किन्तु  उसके पीछे आकर्षण खुली जीप में धूल भरे रास्तों पर घूमना ज्यादा था | लेकिन ग्रामीण भारत का जो  रेखाचित्र किशोरावस्था से मानसपटल पर अंकित हुआ उसके रंग बहुत ही पक्के होने से आज तक हल्के नहीं पड़े |

और फिर बतौर अधिकारी लगभग साढ़े तीन वर्ष तक राष्ट्रीयकृत बैंक की ग्रामीण शाखा के प्रबन्धक के रूप में सेवाएं देने के दौरान भी गाँवों को निकट से देखने और जानने का अवसर मिला | बावजूद उसके ग्रामीण जीवन पर कुछ कहने या लिखने के लिए मैं स्वयं को पात्र नहीं मानता |

लेकिन लक्ष्मीकांत जी ने बहुत  ही कम शब्दों में गाँवों के सामाजिक ढांचे  के साथ आर्थिक नियोजन का जो खाका खींच दिया वह एक तरह का सूत्र है जिसकी सहायता से भारत की आत्मा से साक्षात्कार किया जा सकता है | लेकिन मैं इसके आधार पर  हमारी उस मोहल्ला व्यवस्था को स्मृत करना चाहूँगा जो मेरे जीवन से बेहद अंतरंगता से जुड़ी हुई है | हालाँकि मोहल्ले से कॉलोनी में आये भी 36 बरस का लम्बा अरसा बीत गया किन्तु 1956  में हमारा परिवार जबलपुर आया तो शहर के बीचों - बीच स्थित साठिया कुआ नामक मोहल्ले में पहली मंजिल पर किराये का एक मकान हमारा आश्रयस्थल बना | उस मोहल्ले की ख़ास बात ये थी कि उसमें उस जमाने के बहुत बड़े जमींदार , गांधीवादी राजनेता और साहित्यकार ब्यौहार राजेन्द्र सिंह की बखरी थी,  जिससे किसी राजप्रासाद का एहसास होता था   | महात्मा गांधी भी उसमें ठहर चुके थे | अपनी भूदान पदयात्रा के दौरान आचार्य विनोबा भावे को  बखरी में आते मैनें देखा और बाद में जयप्रकाश नारायण जी को भी | जबलपुर छोड़ने के पहले तक आचार्य  रजनीश भी उनसे मिलने आते थे , जो बाद में ओशो नाम से विख्यात हुए |

उस मोहल्ले की सामाजिक रचना इस तरह की थी मानो वह  किसी कम्यून की तरह हर दृष्टि से आत्मनिर्भर हो | सुनार , बढ़ई , नाई , धोबी , घरेलू काम करने वाली जातियां , खेलने हेतु दो मैदान , अखाड़ा  , मलखम्ब , मंदिर , पुजारी , हलवाई , किराना , आटे की चक्की , पान की दुकान ,सार्वजनिक कुए , लड़कियों और लड़कों के लिए माध्यमिक शिक्षा तक का अलग - अलग स्कूल  जैसी समस्त मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध थीं |

वहां रहने वालों में प्रोफेसर , शिक्षक , रक्षा कारखानों के कर्मचारी , वकील , चिकित्सक , पत्रकार , व्यवसायी सभी  पेशों से जुड़े हुए लोग थे | जैसा प्रारंभ में गाँव के बारे में कहा  गया , यहां भी सब अपने आप में आत्मनिर्भर होने के बाद भी एक दूसरे  पर निर्भर थे | सामाजिक समरसता इतनी थी कि किसी भी जाति या पेशे  का बड़ा - बुजुर्ग  आ रहा हो तो उसे हम सम्मान देते थे | और वह भी अधिकारपूर्वक हिदायतें देने या डांटने तक का अधिकार रखता था | जिस नाई से बाल कटवाते वह लाख निवेदन के बाद भी मशीन चला ही देता था | बढ़ई के पास जाकर कहते दादा गिल्ली खो  गयी तो वह थोड़ी सी ना  - नुकुर करने के बाद लकड़ी के किसी  टुकड़े से नई बनाकर चेतावनी भी देता कि अबकी बार गुम हुई तो नहीं बनाऊँगा | हालाँकि उसने अपनी चेतावनी पर कभी अमल नहीं किया |

मोहल्ले के सभी बच्चे साथ खेलते थे | दुर्गा जी की प्रतिमा के लिए एक चबूतरा था | पूरा मोहल्ला उसके लिए  चंदा देता और दशहरा जुलूस में मोहल्ले के लोग प्रतिमा को हनुमानताल में विसर्जित करने जाते | होली पर भी सार्वजनिक चन्दा होता था और जमकर रंग खेला जाता | मोहल्ला  पूरी तरह हिन्दुओं का था लेकिन मोहर्रम के समय एक सुनार और दो कायस्थ सवारी रखते थे जिसमें सभी शामिल होते |

छोटे - बड़े का आधार आयु होती थी , आर्थिक हैसियत नहीं | यही वजह थी ब्यौहार जी से , जिन्हें सब राजा भैया कहते थे , हम बच्चे भी निःसंकोच मिल लेते | स्कूल की छुट्टियों में उनकी विशाल बखरी हम बच्चों का क्रीड़ास्थल रहता था | हमारे मकान  मालिक का अपना एक प्रिंटिंग प्रेस था | 27 साल हमारा परिवार उनका किरायेदार रहा लेकिन कभी विवाद नहीं हुआ | जिस महिला ने बर्तन मांजने का काम शुरू से किया वह मोहल्ला छोड़ते तक काम करती रही |

अति साधारण परिवेश के बावजूद उस मोहल्ले से एक से एक प्रतिभाएं निकलीं | ब्यौहार जी के पुत्र स्व. राममनोहर सिन्हा विश्वप्रसिद्ध चित्रकार थे | आचार्य नन्दलाल बोस के शिष्य के रूप में उन्होंने भारतीय संविधान की मूल प्रति को अपनी कला से संवारा था | कुल मिलाकर वह एक सम्पूर्ण इकाई थी जहाँ रहने वाले एक पारिवारिक भावना से बंधे हुए थे | फर्क था तो ये कि पुरुष बाबा , दादा , चाचा , काका या भैया थे तो महिलाएं बड़ी माँ , चाची , काकी या दीदी थीं | अंकल - आंटी संस्कृति का प्रवेश उस समय तक वहां  नहीं हुआ था | छोटे बच्चे पूरे  मोहल्ले में एक घर से दूसरे में खिलाये जाते थे |

वक्त बदला , पीढ़ी बदली , और फिर लोगों का वहां से जाना शुरू हो गया | सायकिल से स्कूटर युग आ चुका था | हम भाई - बहिन बड़े हुए और जगह कम पड़ने लगी तब 1984 में अपने नए मकान में आने को हुए तो पूरा मोहल्ला दुखी था | हम सब भी बेहद भावुक थे | मकान मालिक को पिताजी ने घर की चाबी सौंपते हुए उनके प्रति आभार व्यक्त किया तो उलटे उन्होंने पिता जी का हाथ पकड़कर कहा कि आप अपने मकान में जा रहे हैं , ये खुशी की बात है लेकिन हमारी इच्छा तो थी , यहीं  रहते |

जिस कॉलोनी में हम रहने गये उसमें भी 27 साल बिताये  लेकिन उसमें मोहल्ले जैसे सम्बन्ध नहीं बन सके | और बीते  एक दशक से जिस कॉलोनी में रह रहे हैं यहाँ सामाजिक मेलजोल तो काफी है , लेकिन निःसंकोच कहूंगा  कि वह माहौल नहीं है जिसका जिक्र मोहल्ले के संदर्भ  में किया जा चुका है | हालाँकि बढ़ती उम्र इसका कारण हो सकती है किन्त्तु कॉलोनी के बच्चों और युवाओं में भी वैसी  पारिवारिकता नहीं दिखती |

हालांकि ये मेरे अकेले का अनुभव नहीं , अपितु हम  में से न जाने कितनों के मन में भी इसी तरह की अनुभूतियां भरी पड़ी हैं | मोहल्ला छोड़े हुए 36 साल बीत गए | अधिकतर लोग दूसरी  जगह रहने चले गये लेकिन जब भी किसी शादी - ब्याह में मिलना होता है तो थोड़ी देर का वह पुनर्मिलन भावनाओं की  अभिव्यक्ति और सुनहरी यादों को पुनर्जीवित करने  का अवसर बन जाता है | नई पीढ़ी के बच्चों से परिचय पुराने पड़ोसी के रूप में नहीं बल्कि रिश्ते का नाम लेकर करवाया जाता है |

दरअसल हमारे समाज में जो पारिवारिकता थी उसका स्रोत संयुक्त परिवार से मिले संस्कार ही थे | अब चूँकि परिवार हम दो , हमारे दो तक सिमट गए हैं और ताऊ - ताई , चाचा - चाची, मामा - मामी , बुआ - फूफा सब अंकल - आंटी में आकर केन्द्रित हो गये , इसीलिये समाज में संवेदनहीनता आती जा रही है |

मौजूदा संदर्भ में जो माहौल देश भर में दिखाई दे रहा है उसके पीछे गाँव और मोहल्लों की सामाजिक रचना में आया बदलाव भी है | उसे देखकर ये डर भी लग रहा है कि शहरों की बेरुखी से  हलाकान हो चुके जो श्रमिक गाँव लौट रहे हैं क्या उन्हें वह सब मिल सकेगा जिसकी उम्मीद लिए वे पांवों के छालों का दर्द भूलकर भी चले आ रहे हैं |

सवाल और भी हैं किन्तु जवाब किसी के पास नहीं क्योंकि गाँव में भी अब नीम की दातून करनी वाली पीढ़ी इतिहास बन गयी है और परिवार को फैमिली कहा जाने लगा है |

Saturday 16 May 2020

दो गज की दूरी नदियों से भी जरूरी ...सिन्धु की पुकार पर , मिलन का उभार भर ,नर्मदा उमड़ रही सोलहों श्रृंगार कर

दो गज की दूरी नदियों से भी जरूरी  ...

सिन्धु  की पुकार पर , मिलन का उभार भर ,
नर्मदा उमड़ रही सोलहों श्रृंगार कर


मई का ही  महीना था | 17 साल पहले मैं अपने मित्र स्व.डॉ.सुधीर नेल्सन , और कमल ग्रोवर के साथ लद्दाख गया था | लेह तक की यात्रा यूँ तो मनाली होते हुए सड़क मार्ग से  करने की इच्छा थी किन्तु मौसम की अनिश्चितता की वजह से दिल्ली से हवाई यात्रा  का निश्चय किया , जिससे समय बचे तो लद्दाख को ज्यादा देख सकें | अलसुबह दिल्ली से उड़ान भरकर हम तीनों लगभग 7 बजे लेह की धरती पर थे | तापमान 2 डिग्री होने से ठिठुरन थी | दिल्ली से उड़ने के कुछ देर बाद ही हमारा विमान हिमाचल के पहाड़ों पर आ गया और फिर शुरू हुई बर्फ से ढंकी चोटियों की दृश्यावली जो एक तरफ तो लुभा रही थी दूसरी तरफ उनकी निर्जनता से मन में भय भी था | सूर्य की किरणों से कहीं  - कहीं बर्फ का रंग चटक पीला नजर आया जो अद्भुत था | अचानक विमान के कैप्टेन ने उद्घोषणा की कि कुछ ही मिनिट बाद हम लेह में लैंडिंग करेंगे | बर्फीले पहाड़ों के ऊपर इतनी लम्बी हवाई यात्रा का पहला अनुभव होने से पूरे समय खिड़की से बाहर ही देखता रहा | कुदरत के अनावृत सौन्दर्य और ईश्वर की अकल्पनीय सृजनशीलता का साक्षात दर्शन करते समय मानो अपने सांसारिक अस्तित्व को भूल सा गया था | और इसीलिये जब कैप्टेन की आवाज आई तो जैसे स्वप्न लोक से धरा पर लौट आया | सामान्य होते  ही  देखा विमान उस समय तक बर्फ से ढंके पहाड़ों के ऊपर ही था | हाँ , वह कुछ नीचे जरुर आ गया था | लेकिन अमूमन उतरने  के कुछ मिनिट पहले से ही शहर का नजारा दिखने लगता है और हवाई पट्टी भी , किन्तु विमान के लगातार नीचे आते जाने पर भी जमीन नजर नहीं  आ रही थी | दो - तीन दिन पहले लेह हवाई अड्डे पर उड़ान भरते समय एक विमान के टायर फट गए थे | गनीमत थी उसने हवाई पट्टी नहीं छोड़ी थी , इसलिए रुक गया | उस वजह से भी आशंकित होकर सोच रहा था  कि ये कैसा  हवाई अड्डा है जो उड़ान खत्म होने को आई पर दिख नहीं रहा | इतने में  चारों तरफ पहाड़ों से घिरी  हवाई पट्टी नजर आ गयी | विमान ने एक दो चक्कर लगाये और उतर गया |

हमारे  मेजबान ने टैक्सी से होटल जाने का प्रबंध किया | उसके पहले भी  मैं अनेक पहाड़ी जगहों पर घूम चुका  था किन्तु लेह उन सबसे अलग या यूँ कहें एक दूसरी दुनिया जैसा था | 1965 में स्व.चेतन आनंद ने 1962 के चीनी हमले पर हकीकत नामक जो फिल्म बनाई थी उसकी काफी आउटडोर शूटिंग लेह में हुई थी | उस फिल्म को देखने के  बाद ही लद्दाख जाने की इच्छा थी जो तकरीबन 38 साल बाद जाकर पूरी हुई | होटल पहुंचकर सोचा जल्दी  तैयार होकर शहर भ्रमण  पर निकल जाएं किन्तु होटल के वृद्ध मुस्लिम मालिक ने धूप में कुर्सी डालकर कहा  आराम करिए , ये मैदान नहीं है | ज्यादा  मशक्कत करने से पस्त हो जाओगे | तब तक हमें भी वहां ऑक्सीजन की कमी  महसूस होने लगी थी | उसका निर्देश मानकर दोपहर होटल में गुजारी | 

और शाम को शहर से कुछ दूर बहने वाली सिन्धु नदी देखने चल पड़े | बचपन से सिन्धु घाटी की सभ्यता सुनते आये थे | ये भी मालूम था कि वह पकिस्तान में जाकर  अरब सागर में मिलती है और उस देश की जीवन रेखा भी  है | लेकिन ये नहीं सोचा था उसके दर्शन का अवसर कभी मिलेगा  | सच कहूं तो लेह जाने के पहले तक यही नहीं पता था कि सिन्धु उसी शहर में बहती है | उसी के पास दलाई लामा का एक महल भी है | वैसे उनका मुख्यालय है तो धर्मशाला में किन्तु लद्दाख  बौद्ध बहुल है और काफी कुछ तिब्बत का एहसास करवाता है |

तकरीबन आधे घंटे बाद हम सिन्धु के करीब थे | उसका जल इतना साफ़ और निर्मल था कि देखता ही रह गया | सामने ऊंचे पहाड़ समूचे परिदृश्य को सौन्दर्य प्रदान कर रहे थे | जिस दिशा में वह बह रही थी उस तरफ निगाह घुमाने पर इस बात का दर्द हुआ कि प्रकृति की  ये अनमोल देन वहां से कुछ दूर बहकर पराई हो जायेगी | सिन्धु से यूँ तो कोई भावनात्मक लगाव न था | लेकिन गंगा , यमुना , मंदाकिनी और अलकनंदा जैसी हिमालय से निकली नदियाँ पहाड़ों पर भी मुझे इतनी स्वच्छ नहीं  दिखीं जितनी सिन्धु थी | बेहद ठंडा जल और तेज प्रवाह से उत्पन्न कलकल की आवाज ने एक दिव्य और अविस्मरणीय अनुभव से साक्षात्कार करवा दिया |

दूसरे दिन सुबह हम सिन्धु दर्शन करने दोबारा गये | उस समय वहां कुछ पर्यटक भी थे | सूर्य की किरणों से नदी का जल और चमक उठा था | लद्दाख की  उस  यात्रा में अनेक ऐतिहासिक बौद्ध स्तूपों के अलावा विश्व के सबसे ऊँचे मोटर मार्ग खरदूंगला तक का  रोमांचक सफर भी कभी  न भूलने वाला रहा । 

कोरोना संकट के कारण हमारे देश के पर्यावरण में जो आश्चर्यजनक सुधार हुआ उसने सहसा उस लेह यात्रा की स्मृतियाँ  ताजा कर दीं | विशेष रूप से सिन्धु नदी के स्वच्छ जल की तरंगें मानों दृष्टिपटल पर साकार हो उठीं |

हाल ही में किसी मित्र ने मुझे जबलपुर के समीप ग्वारीघाट का एक वीडियो भेजा जिसमें नर्मदा जिस अल्हड़पन से प्रवाहमान है वह देखकर 17 साल पहले के सिन्धु दर्शन का अनुभव सजीव हो उठा | उस मित्र का नाम मैं सहेज नहीं पाया किन्तु आलेख के अंत में वह वीडियो देखकर आप भी आनंदविभोर हो उठेंगे | उस दिन लेह में हमारे टैक्सी चालक  ने बताया था कि पर्यटक आते तो हैं लेकिन नदी के दर्शन मात्र करते है | कुछ लोग जल से आचमन करने के साथ ही उसे भरकर ले भी जाते हैं | इसलिए जल उतना स्वच्छ था |

संयोगवश बीते लगभग 50 दिन  से नर्मदा नदी भी जबलपुर शहर से सटी होने के बावजूद मानवीय सम्पर्क एवं हस्तक्षेप से दूर है | हालांकि उसके अत्यंत निकट अनेक आश्रम और बस्ती है |  इस दौरान कई  तीज - त्यौहार ऐसे निकल गए जो स्नान पर्व माने जाते हैं , लेकिन नर्मदा के जल में न किसी ने स्नान किया  न ही पूजन | अक्सर कहा जाता है कि प्रकृति अपना स्वभाव बदल रही है | लेकिन नर्मदा के जल में हुए अविश्वसनीय सुधार ने साबित कर  दिया कि प्रकृति का स्वभाव और तौर - तरीके यथावत हैं | बदला तो इन्सान है जिसने अपनी वासनाओं के वशीभूत प्रकृति प्रदत्त अनमोल धरोहरों के साथ अमानुषिक व्यवहार करते हुए  उनकी नैसर्गिकता छीन ली |

लेकिन न जाने कितने दशकों के बाद  मानवीय अत्याचारों से राहत मिलते ही प्रकृति ने अपना असली रूप पुनः धारण कर लिया | वाराणसी में गंगा  , दिल्ली में यमुना  और नासिक में गोदावरी  न केवल शुद्ध हुईं बल्कि उनका जलस्तर पिछली अनेक गर्मियों की अपेक्षा बढ़ गया है | हमारी संस्कृति में नदियों को माता मानकर पूजा जाता है | उनके दैवीय अस्तित्व को भी स्वीकृति है | उस आधार तो ये सोचना गलत नहीं होगा कि लॉक डाउन खत्म होने की कोई भी सम्भावना नदियों को  भयाक्रांत करती होगी |
जब इस बारे में सोचता हूँ तो मैं भी चिंतित के साथ ही दुखी हो जाता हूँ कि ज्योंही जन जीवन सामान्य होगा त्योंहीं इन नदियों का जीवन फिर खतरे में पड़ जाएगा | विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर चिकित्सा विज्ञान के जानकार तक कह रहे हैं कि कोरोना अब हमारे   साथ ही रहेगा और बचाव हेतु हमें सोशल डिस्टेंसिंग अर्थात दो गज की  शारीरिक दूरी का पालन दैनिक जीवन में  करना ही होगा | तो फिर यही नियम क्यों न इन नदियों के साथ भी उपयोग में लाया जावे | यदि भविष्य में भी हम उनसे लॉक डाउन जैसी दूरी बनाए रख सके तो नदियाँ  अपने समूचे सौन्दर्य के साथ यूँ ही प्रवाहित होती रहेंगीं |

आखिर अपने प्राणों की रक्षा के प्रति हरसंभव सावधानी का पालन करने को तैयार मनुष्यों को नदियों के जीवन को खतरे में डालने का क्या  अधिकार है ?

संस्कारधानी के ओजस्वी कवि स्व. रामकृष्ण दीक्षित विश्व द्वारा लिखी गयी ये पंक्तियाँ इन दिनों साकार हो उठी हैं :-

सिन्धु  की पुकार पर , मिलन का उभार भर ,
नर्मदा उमड़ रही सोलहों श्रृंगार कर  ....

आइये इस श्रृंगार को बनाये रखें | 

चित्र परिचय : - 1. नर्मदा का वीडियो , 2. सिंधु तट पर स्व.डॉ. नेल्सन , कमल ग्रोवर और मैं।

प्रवासी पलायन से कारोबारी ढांचे में बड़े बदलाव होंगे



कोरोना संकट ने भारत में जिन बड़े बदलावों की बुनियाद रख दी उनकी वजह से प्रवासी मजदूर अब राष्ट्रीय विमर्श में शामिल हो गये हैं | तीज - त्यौहारों पर भी वे अपने घरों को लौटते थे | दुर्गा पूजा , दीपावली, छठ  के अलावा विवाह सीजन में पूर्वी और उत्तर भारत की और जाने वाली रेल गाड़ियों में पैर रखने की जगह नहीं होती थी | लेकिन मौजूदा स्थितियों में प्रवासी मजदूरों की  वापिसी ऐसी घटना है जो दहला देती है | लाखों श्रमिक अलग - अलग तरीकों से अपने मूल स्थान तक पहुंच गये हैं | लेकिन जितने पहुंचे उससे भी ज्यादा अभी या तो अटके पड़े हैं या रास्ते में हैं | चौतरफा आलोचना के बाद सरकारी तंत्र सक्रिय हुआ और बीते तीन - चार दिनों में काफी इंतजाम हुए भी किन्तु जैसी जानकारी  आ रही है उसके अनुसार अकेले गुजरात में ही लाखों प्रवासी फंसे हुए हैं | जहां कारखाने और निर्माण कार्य शुरू हो गये वहां रुके हुए श्रमिक भी एक बार गाँव जाने को तैयार हैं | महानगरों में पूर्वी और उत्तर भारतीय राज्यों के जो लाखों प्रवासी घरेलू काम करते थे  उनका रोजगार सुरक्षित होने के बाद भी उनके मन में गाँव जाने की ललक पैदा हो गई है | बड़े मकानों के अलावा अब फ्लैट में ही नौकर का कमरा बनाया जाने लगा है | ऐसे घरेलू कर्मचारी लॉक डाउन के दौरान आर्थिक तौर पर भी सुरक्षित रहे | बावजूद उसके उसी शहर में कार्यरत उनके गाँव के प्रवासी मजदूरों के वापिस लौटने की जानकारी  मिलने के बाद उनका भी मन काम से उचट गया और वे भी लौटने की सोच  रहे हैं | यद्यपि उनमें से अधिकतर को ये पता है कि गाँव उनका इन्तजार भले कर  रहा हो लेकिन पहुंचते ही उन्हें रोजगार दे देगा ये सुनिश्चित नहीं है | और उन्हें चाहे - अनचाहे लौटकर आना पड़ेगा ये भी वे जानते हैं | लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि जिन शहरों या राज्यों में वे कार्यरत थे उन्होंने इन श्रमवीरों को बोझ मान लिया | चूँकि उनके गृह राज्य में रोजगार के अवसर अभी भी पर्याप्त नहीं हैं फिर भी जिन दर्दनाक हालातों को झेलते हुए  वे किसी तरह जीवित हालत में अपने घर पहुंचे उसके बाद उनमें ऐसा सोचने वाले बहुत हैं कि अपने घर रहकर काम  ही काम मिले तो परदेस में जाने का क्या लाभ ? विशेष रूप से अधेड़ हो चुके लोगों को अब महानगरों में रहकर संघर्ष की बजाय अपने गाँव में छोटा सा कोई काम या  मजदूरी से मिलने वाले पैसे से गुजर करने जैसा संतोषी भाव जोर मारने लगा है | उनके मन में इस बात का आक्रोश भी है कि जिस मालिक के लिए वे काम करते थे उसने तनिक भी संवेदनशीलता नहीं दिखाई और लॉक डाउन होते ही उनको बेसहारा छोड़ दिया गया | हालंकि युवा और तकनीकी कौशल प्राप्त श्रमिक कुछ दिन रहकर वापिस लौटेंगे लेकिन  25 से 30 प्रतिशत मजदूर नहीं लौटे तब प्रवासियों के साथ अमानुषिक व्यवहार करने वाले राज्यों के कारोबारी और सरकारें दोनों को अपनी गलती का एहसास होगा | ऐसे राज्यों में यदि स्थानीय लोगों को रोजगार मिल सका तो फिर उद्योग सुचारू रूप से चलेंगे अन्यथा प्रवासी मजदूरों की  मजबूरी का लाभ उठाने की भारी कीमत उन्हें चुकानी पड़ेगी | दूसरी तरफ जिन राज्यों में ये प्रवासी श्रमिक लौटकर आये हैं वे भी इस बात को समझ रहे हैं कि उनका समुचित उपयोग किये  जाने पर उनके यहाँ विकास की संभावना मजबूत हो सकती हैं | लेकिन इस सब में सबसे बड़ी समस्या ये है  कि प्रवासी  मजदूरों के लौटने की प्रक्रिया अनवरत जारी है | भले ही हल्ला मचने के बाद शासन - प्रशासन उनकी खोज - खबर लेने सक्रिय हुए  हैं तथा समाजसेवी तबका भी  आगे आया है लेकिन  जिस तरह के हालात हैं उनमें आने वाले 30 दिनों में भी ये काम पूरा हो जाए ऐसा  संभव नहीं दिखता | और तब तक मानसून आ चुका  होगा | कुल मिलाकर प्रवासी मजदूरों का अपने गांव वापिस लौटने के बाद दोबारा काम वाली जगहों पर लौटना इस बात पर निर्भर करेगा कि गाँवों में  कोरोना फैलता है या नहीं ? यदि लाखों प्रवासी मजदूरों की गांवों में  वापिसी से वहां  भी संक्रमण  फैला तब फिर उन्हें काम  पर रखने के बारे में सम्बन्धित राज्य और कारोबारी दोनों  सोचेंगे | कुल मिलाकर हालत पूरी तरह से अनिश्चित हैं | जब तक प्रवासी मजदूरों का पलायन पूर्ण नहीं हो जाता तब तक उनके दोबारा लौटने की सम्भावना नहीं है और ऐसे में वे जिस काम में थे उसके शुरू होने में भारी दिक्कतें आएंगीं | गाँव पहुंचने के बाद इन मजदूरों के पास स्वरोजगार के अलावा केवल मनरेगा ही एकमात्र विकल्प है | लेकिन उसमें भी कितने  लोगों को काम मिल सकेगा ये तय नहीं है और तब ऐसे प्रवासी मजदूर जो मुम्बई - दिल्ली नहीं लौटना चाहते , वे पास वाले शहरों में काम तलाश सकते हैं | ये  सब देखते हुए देश के औद्योगिक और व्यवसायिक ढांचे में नये - नये बदलाव् देखने मिलेंगे | लेकिन इतना तय है कि जिन राज्यों से भी प्रवासी  पलायन हुआ उनकी औद्योगिक रफ्तार धीमी पड़ जायेगी जिसके  लिये वे  स्वयं जिम्मेदार है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 15 May 2020

महाराष्ट्र और गुजरात को महंगा पड़ेगा प्रवासी पलायन



अचानक सब कुछ बदला सा नजर आने लगा है | पूरे देश का ध्यान लाखों प्रवासी मजदूरों की दर्द भरी दास्तान पर केन्द्रित हो गया  | समाचार माध्यम उनके काफिलों के चित्रमय  समाचार दिखाकर शासन नामक व्यवस्था की असंवेदनशीलता को उजागर करने में लगे हैं | जिसे देखो वह इन मुसीबतजदा लोगों के प्रति सहानुभूति दिखा रहा  है | भले ही दंगा फसाद और खून खराबा न हुआ हो लेकिन कामोबेश हालत देश विभाजन के समय पाकिस्तान से हुए हिन्दुओं और सिखों के पलायन जैसी  ही है | यद्यपि बीते दो तीन दिन में स्थिति काफी संभली है | लाखों प्रवासी मजदूर रेल या सड़क मार्ग से अपने गाँव पहुंच चुके हैं | बाकी भी जल्द ही पहुँच जायेंगे | जो अभी भी पैदल चले  जा रहे हैं उनकी तरफ भी व्यवस्था का ध्यान गया है और आगे की यात्रा तथा भोजन आदि का प्रबंध भी हो रहा है | मुम्बई में टैक्सी और ऑटो चलाने वाले भी उन्हीं में निकल पड़े हैं | जो माध्यम प्रवासी मजदूरों की बदहाली दिखाकर पूरे देश को उनके प्रति भावुक बना रहे हैं उन्हें चाहिए था कि उन मानव सेवकों की खबरें भी प्रसारित करते जिन्होंने रास्तों में कई जगहों पर  भोजन - पानी की व्यवस्था की |जिससे और लोग भी प्रेरित होते | जैसी जानकारी आ रही है उसके मुताबिक़ प्रवासी पलायन सबसे ज्यादा  महाराष्ट्र से ही हुआ और उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी भी उसी राज्य में हुई | ऐसा नहीं है कि उद्धव ठाकरे की सरकार इस बारे में पूरी तरह अनजान थी | मुम्बई में रहने वाले लाखों उत्तर भारतीय शिवसेना और शरद पवार की एनसीपी को फूटी  आँखों नहीं  सुहाते थे | लेकिन संख्याबल और परिश्रमी प्रवृति के कारण वे मुम्बई में अंगद के पाँव की तरह जम गए थे | स्व. बाल ठाकरे के समय से ही उत्तर भारतीय समुदाय को बाहरी और मुम्बईकरों के हक पर डाका डालने वाला समझा जाता रहा | भले ही बाद में वोट बैंक की लालच में उनकी  मिजाजपुर्सी की  जाने लगी तथा शिवसेना द्वारा सामना अखबार में सम्पादक पद पर उत्तर भारतीय पत्रकार्रों की  नियुक्ति भी की जाने लगी किन्तु मन ही मन उनकी बढती संख्या शिवसेना और एनसीपी दोनों को असहज लगने लगी थी | इसका एक कारण ये भी है कि किसी समय कांग्रेस का समर्थक रहा ये उत्तर भारतीय समुदाय धीरे - धीरे भाजपा के खेमे में आता गया | उसे लगने लगा कि कांग्रेस उसकी सुरक्षा में असमर्थ है | इस मानसिकता का प्रवासी पलायन के पीछे बहुत बड़ा हाथ है | मुम्बई और उसके निकटवर्ती नगरों में इन मजदूरों के रहने  खाने का इंतजाम महाराष्ट्र सरकार के साथ शिवसेना और एनसीपी मिलकर करते तो उन्हें कम से कम पैदल तो निकलना नहीं पड़ता | अनेक प्रवासियों की ज़ुबानी ये बात सामने आई है कि मध्यप्रदेश में आने के बाद अपेक्षाकृत उनका बेहतर  तरीके से ध्यान रखा गया | जिन राज्यों से भी प्रवासी मजदूर निकलने को बाध्य हुए वहां की राज्य सरकारों का रवैया बेहद गैर जिम्मेदाराना रहा | अगर बेरोजगार हुए इन मजदूरों को केवल दो वक़्त का साधारण भोजन और पानी मिलता रहता तो वे बदहवास होकर भागते नहीं | लॉक डाउन का तीसरा चरण घोषित होते ही उन्होंने अपने ठिकाने छोड़कर चलना  शुरू किया ही इसलिए कि उनको मिलने वाली सुविधा रहस्यमय तरीके से बंद कर दी गईं और भय का माहौल बनाया जाने लगा  | लेकिन इस पलायन ने मुम्बई सहित समूचे महाराष्ट्र में मजदूरों की जो कमी उत्पन्न कर दी वह  आने वाले दिनों में यहाँ के उद्योगों के लिए बड़ी समस्या बनेगी | जैसी खबरें आ रही हैं उनके अनुसार बहुत बड़ी संख्या ऐसे  मजदूरों की है जो कुछ समय तक तो इस सफर की दर्दनाक यादों से निकल ही नहीं सकेंगे | जिनके परिवार साथ थे उनका कष्ट तो कई गुना क्या ज्यादा था | विभिन्न क्षेत्रों से आ रही  जानकारी के अनुसार बड़ी संख्या उन प्रवासी मजदूरों की  है जो दोबारा मुम्बई जाने के बारे में सोचेगे तक नहीं | ऐसे में महाराष्ट्र और गुजरात का औद्योगिक ढांचा बुरी तरह हिल जाएगा | उस दृष्टि से उद्धव  सरकार ने जाने - अनजाने बहुत बड़ी गलती कर  दी | अभी भले ही केंन्द्र सरकार गालियाँ  खा रही हो लेकिन कोरोना की गर्द - गुबार बैठते ही महाराष्ट्र और गुजरात दोनों की राज्य सरकारें इस पलायन के कारण खून के आंसू बहाने मजबूर होंगी | गुजरात में हालाँकि राजनीतिक विद्वेष नहीं दिखा क्योंकि लॉक डाउन के दौरान हार्दिक पटेल जैसों की सियासत बंद पड़ी हुई है किन्तु विजय रूपानी की सरकार गुजरात की  परम्परागत सहिष्णुता का परिचय नहीं  दे सकी  | हालाँकि इस श्रम शक्ति के कारण प्रवासी मजदूरों के गृह राज्यों में ग्रामीण विकास का नया अध्याय शुरू होने की उम्मीदें बढ़ चली हैं | आज ही मप्र के बुन्देलखण्ड क्षेत्र से खबर आई कि अनेक गाँवों में बरसों बाद चहल - पहल दिखाई दी  | बंद घरों के ताले खोलने के बाद राहत की सांस लेते हुए अनेक मजदूरों ने दोबारा मुम्बई नहीं जाने की बात जिस अंदाज में कही उससे ये कहना गलत नहीं होगा कि महाराष्ट्र और गुजरात को ये पलायन काफी महंगा पड़ेगा |

Thursday 14 May 2020

अब हवाएं ही करेगी रोशनी का फैसला , जिस दिये में जान होगी वो दिया रह जाएगाअब से भारत एक ब्रांड और हम सब उसके ब्रांड एम्बेसेडर





 कुछ समय पहले कागजों के बीच  अचानक विदेश से आया एक पुराना लिफाफा मिला | प्रेषक का नाम देखा तो डॉ. लक्ष्मी नारायण पिपरसानिया ( अब स्वर्गीय )  लिखा था | अचानक यादों की  सुई आधी सदी पीछे घूम गई  | डॉ. पिपरसानिया जबलपुर में साठिया कुआ मोहल्ले में हमारे पड़ोसी थे | पहले यहाँ एक निजी वाणिज्य महाविद्यालय में प्राध्यापक भी रहे | बाद में उनका चयन विदेश मंत्रालय में हो गया और 1965 में वे संरासंघ में भारतीय दूतावास में नियुक्ति पर न्यूयॉर्क चले गये | उनका वह पत्र पढ़ा जिसमें सितम्बर 1968 की तारीख थी |  पिताश्री को संबोधित उस पत्र में प्रारंभिक औपचारिकताओं के बाद कुछ घरेलू चीजों का नाम और मात्रा लिखते हुए निवेदन था कि वे सब उनके लिये लेते आयें | दरअसल पिताजी बतौर पत्रकार अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का अवलोकन करने जा रहे थे | अक्टूबर 1968 में उनका वहां जाने का कार्यक्रम था | उन्होंने अपने अमेरिका आने की पूर्व सूचना डॉ . पिपरसानिया को पत्र द्वारा भेज दी थी | जिसके उत्तर में आये संदर्भित पत्र में न्यूयॉर्क में अपने घर पर ही ठहरने के आग्रह  के साथ ही  पापड़ , बड़ी , मसाले , तिथि - त्यौहार दर्शाने वाले पंचांग - कैलेंडर और पूजन सामग्री के  अलावा बाटा कम्पनी का  एक काले रंग का जूता भी साथ लाने  का आग्रह था |

पत्र पढ़ने के बाद मुझे ध्यान आया कि पिताजी वह सब सामान ले भी गए थे | लगभग डेढ़ महीने की यात्रा के दौरान अमेरिका में मिले भारतीय  समुदाय के व्यक्ति के यहाँ भोजन करने का अवसर उन्होंने कभी नहीं गंवाया | इसका कारण डॉलर बचाना नहीं वरन शाकाहारी भारतीय भोजन का लालच था | उस ज़माने में वहां भारतीय रेस्टॉरेंट इक्का - दुक्का होते थे | जबकि अमेरिका में तब तक भारतीय समुदाय की उपस्थिति महसूस होने लगी थी | 

लेकिन आज का माहौल पूरी तरह बदला हुआ है | अब केवल अमेरिका ही नहीं अपितु विश्व के  सभी प्रमुख देशों में भारतीय मूल के लोगों की अच्छी खासी संख्या है  | अमेरिका , ब्रिटेन , कैनेडा , यूएई इनमें प्रमुख कहे जा सकते हैं | इस कारण भारतीय परिवारों में उपयोग  होने वाली दैनिक उपयोग की हर चीज वहां आसानी से उपलब्ध हो जाती है | भारतीय भोजन के रेस्टॉरेंट भी बड़ी मात्रा में खुल गये  हैं | न्यूयॉर्क के न्यू जर्सी और लन्दन के साउथ हॉल इलाके में तो लगता है मानों  भारत में ही घूम रहे हों | कैनेडा के प्रमुख शहरों के कुछ हिस्सों को तो मिनी पंजाब तक कहा  जाने लगा है | कहते हैं वहां के अनेक भारतीय तो गुरुद्वारे के लंगर से ही काम चला लेते हैं।

इस वजह से भारत के तमाम लोकप्रिय घरेलू  ब्रांड विदेशी बाजारों में जगह बना चुके हैं | इनमें  ,मसाले , अचार , रेडी टु ईट सब्जियां , पापड़ , खाकरे , नमकीन , पान मसाला और रेडीमेड वस्त्र आदि शामिल हैं | वैसे इसमें अनोखा कुछ भी नहीं है क्योंकि जहाँ उपभोक्ता होते हैं वहां बाजार भी पीछे - पीछे चला ही आता है |

यहाँ तक तो ठीक था लेकिन भारत में विदेशी उतनी बड़ी संख्या में नहीं रहने के बाद भी बीते दो ढाई दशक में जो विदेशी ब्रांड भारत में आये उनका कारण समझने वाली बात है | फैशन और सौन्दर्य प्रसाधन को अलग कर दें लेकिन पिज्जा , बर्गर और चिकेन के शौकीनों के कारण अमेरिका से निकले ब्रांडों के विक्रय केंद्र मझोले श्रेणी के शहरों तक में खुल जाना चौंकाता भले न हो परन्तु अध्ययन का विषय अवश्य है | यद्यपि कोका कोला और बाद में पेप्सी नामक  अंतर्राष्ट्रीय सॉफ्ट ड्रिंक का प्रवेश भारत में काफी पहले हो चुका था |  1977 में जनता पार्टी सरकार ने कोका कोला का भारत से डेरा उठवा दिया लेकिन नब्बे का दशक आते - आते तक  कोका कोला और पेप्सी  भारत में अपने पैर ज़माने में  कामयाब क्या हुईं , घरेलू बाजारों में छाये भारतीय ब्रांड डबल सेवन , कैम्पा कोला , गोल्ड स्पॉट , थम्स  अप का भट्टा ही बैठ गया | कुछ को उन दोनों ने खरीद लिया |

संयोग से  पिज्जा , चिकेन और सॉफ्ट ड्रिंक्स का व्यवसाय करने वाली उक्त सभी कम्पनियां अमेरिका से निकली हुई हैं और इनकी गिनती विश्व के सबसे बड़े ब्रांड के तौर पर होती  है | भारत जैसे देश में जहाँ शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के व्यंजनों में  पाक कला का सर्वोत्कृष्ट रूप देखने मिलता हो और हर प्रदेश की अपनी स्वाद संबंधी विशिष्टता हो , वहां एकरूपता लिए इन  ब्रांडों को भारत जैसे  स्वाद की  बहुलता से सम्पन्न देश ने सहजता से कैसे अपना लिया ये मार्केटिंग के साथ ही समाज विज्ञान के शोधकर्ताओं के लिए विश्लेषण  का विषय है | सॉफ्ट ड्रिंक तो काफी  पहले से भारतीय समाज में पैठ बना चुके थे  लेकिन पिज्जा और चिकेन में ऐसा क्या था जिसके लिए भारत के लोगों ने विदेशी ब्रांड को पैर ज़माने की जगह दे दी |

दरअसल ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की अनाप - शनाप कमाई का असर है | उनके प्रचार का बजट अकल्पनीय और रणनीति बेहद आक्रामक होने से आम जनता के दिमाग में ये बात बिठा दी जाती है कि उनका उपयोग करते ही आप वैश्विक सोच से जुड़ जाते हैं | भारत में पेप्सी ने पहले कुछ वर्षों तक पूरी कमाई प्रचार और  मार्केटिंग पर खर्च कर दी | क्रिकेट विश्व कप जैसे  आयोजन को प्रायोजित कर उसने भारतीय जनमानस में अपने लिए स्थायी जगह बना ली | कोका कोला तो पहले से ही जाना पहिचाना नाम था | ये दोनों  स्वास्थ्य वर्धक कुछ न होने के बाद भी  जिस तरह पैसा कमाते हैं वह चिन्तन का विषय हैं |

यही हाल पिज्जा और चिकेन बेचने वाली कम्पनियों का भी है जो समाज के अभिजात्य वर्ग से होते हुए भारत के विशाल मध्यमवर्गीय घरों में भी घुस गईं | 20  मिनिट में होम डिलीवरी न होने पर कीमत नहीं लेने जैसा तरीका उनका ट्रम्प कार्ड बन गया | ये चुटकुला तक चल पड़ा कि भारत में पुलिस , एम्बुलेंस , फायर ब्रिगेड के आने में भले देर हो जाए  लेकिन पिज्जा कम्पनी की डिलीवरी में देर नहीं  हो सकती | कहने का आशय ये है कि इन विदेशी ब्रांडों के कारण हम आज भी मानसिक तौर पर विदेशी श्रेष्ठता के सामने बौने बने हुए हैं |

दरअसल ये विदेशी ब्रांड ही नव उपनिवेशवाद के औजार हैं | इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के  संचालन में भारतीय मूल के लोगों को उच्च पदों पर रखकर भारतीय उपभोक्ताओं को  भावनात्मक तौर पर प्रभावित करने का खेल चलता है | अनेक देशों में तो ये वहां की सत्ता तक को अपने प्रभाव क्षेत्र में ले लेते हैं | जिस जनता पार्टी की  सरकार ने कोका कोला को भारत से निकाल बाहर किया उसी से जुड़े मंत्री ने 1989  में जनता दल सरकार के समय पेप्सी को अनुमति दी |

ये ब्रांड केवल खाने पीने , परिधान , फैशन , सौदर्य के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहते | उनके देश के  नर्तक , गायक , खिलाड़ी , अभिनेता , फ़िल्में सभी ब्रांड बना दी जाती हैं | मायकल जैक्सन के एक शो के लिए मुम्बई पागल हो गई थी और भारतीय संस्कृति के संरक्षक बने स्व.बाल ठाकरे को उसका समर्थन था | चाहे बीटल्स का कार्यक्रम  हो या जुबिन मेहता का आर्केस्ट्रा | हम भारतीय केवल उनकी ब्रांड छवि को प्रतिष्ठा सूचक मानकर पीछे चल पड़ते  हैं | इसीलिये भारत में करोड़ों कमाने और अवार्ड दर अवार्ड जीतने के बावजूद भारतीय फिल्मकार ऑस्कर जीतने के लिए घुटनों के बल खड़े होने तैयार रहते हैं |

कोरोना संकट के कारण अचानक ग्लोबल ब्रांड के मुकाबले भारतीय उत्पादों को खड़ा करने पर बहस शुरू हो  गई | आरोप - प्रत्यारोप , व्यंग्य , कटाक्ष  का दौर  भी चल पड़ा | लेकिन राजनीति से तनिक हटकर देखें और सोचें तो जिन विदेशी ब्रांडों का यहाँ जिक्र हुआ क्या वे भारत की जरूरत थे या जबरन जरूरत बनाये गए ? जिस चीज में हम पीछे हों वहां तो विदेशी विकल्प का औचित्य है भी किन्तु अमूल जैसे भारतीय ब्रांड ने दिखा दिया कि  गुणवत्ता बनाये रखते हुए आत्मविश्वास के साथ मैदान में उतरा जाये तो अंतर्राष्ट्रीय ब्रांडो को शिकस्त दी जा सकती है |

हमें केवल अपनी मानसिकता बदलते हुए हीन भावना को  त्यागने  के  साथ ही मिथ्या श्रेष्ठता की चकाचौंध से भी बचना होगा | आने वाला दौर राष्ट्रीय बनाम बहुराष्ट्रीय के मुकाबले का होगा | कोरोना  के बाद की दुनिया में अलग तरह  के शीतयुद्ध के साथ ही अभिनव शक्ति संतुलन देखने मिलेंगे | ऐसे में प्रधानमंत्री न कहें तब भी हमें भारत को  एक विश्वसनीय वैश्विक ब्रांड बनाने के लिये जुटना होगा  | 135  करोड़ जनता अपने आप में एक विराट उपभोक्ता समूह है जिसके साथ उन करोड़ों अप्रवासी भारतीय मूल के लोगों का भी समर्थन जुड़ सकता है जो दुनिया के कोने - कोने में फैले हुए हैं |

आइये , संकट की इस घड़ी में राजनीति से सर्वथा दूर रहते हुए संकल्प लें कि अब से हमारा ब्रांड भारत होगा और हम सभी इसके जीवंत ब्रांड एम्बेसेडर बनेंगे |  किसी व्यक्ति या विचारधारा से जोड़े बिना राष्ट्रीय सम्मान  को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने का ये अनुष्ठान समय की मांग हैं |

महशर बदायुनी की ये पंक्तियाँ याद रहें :-

अब हवाएं ही करेंगी रोशनी  का फैसला , जिस दिये  में जान  होगी वो दिया रह  जायेगा |

क्या आत्मनिर्भर भारत अभियान राम मन्दिर जैसा आन्दोलन बन सकेगा ?मोदी समर्थकों के सामने बड़ी चुनौती





12 मई की रात जब प्रधानमंत्री देश से बात करने टीवी पर आये तब लगा था कि वे लॉक डाउन के अगले चरण के बारे में कुछ घोषणा करेंगे | लेकिन उन्होंने पूरा फोकस अर्थव्यवस्था को पुनः गतिशील  करने के लिए घोषित आर्थिक पैकेज पर केन्द्रित रखा | जिसकी राशि 20 लाख करोड़  है  , जो  देश की अर्थव्यवस्था  का 10 %  है | पैकेज से किसे क्या मिलेगा इसकी प्रारंभिक जानकारी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा बुधवार की शाम पत्रकार वार्ता में दी गई | दो दिनों में वे शेष निर्णयों के बारे में देश को बतायेंगी |

इससे अर्थव्यवस्था की मुसीबतें कितनी कम होंगीं और चीजों को दुरुस्त होने में कितना  समय लगेगा ये फ़िलहाल नहीं कहा जा सकता । क्योंकि अर्थशास्त्र काफी जटिल विषय है जिसे केवल घोषणाओं से नहीं समझा जा सकता |  उससे जनता को सीधे मिलने वाले फायदे पर भी  बहस भी शुरू हो गई है किन्तु नरेंद्र मोदी ने अपने स्वभावनुसार एक नया रणनीतिक मुद्दा छेड़ते हुए आत्मनिर्भर भारत अभियान के नाम से  एक नया नारा दिया , ग्लोबल की जगह लोकल | अर्थात विदेशी छोड़ स्वदेशी अपनाएं | और  ये भी बता दिया कि जो आज ग्लोबल ब्रांड है वह भी शुरुवात में लोकल ही हुआ करता था किन्तु लोगों ने वोकल ( मुखर  ) होकर उसे वैश्विक बना दिया |

इस तरह उन्होंने अर्थशास्त्र की शब्दावली में ही राष्ट्रवाद को राष्ट्रीय एजेंडा बनाने का दांव चल दिया | चूँकि भारत भी विश्व व्यापार  संगठन का सदस्य है इसलिए विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान  सरकार का मुखिया सार्वजनिक तौर पर नहीं कर सकता किन्तु कोरोना संकट ने जो चुनौतियां पेश की हैं उनके कारण भारत को अर्थव्यवस्था में उदारवाद के साथ राष्ट्रवाद भी सम्मिलित करना पड़ेगा | और जब चीन के साथ प्रतिस्पर्धा का नया अध्याय खुलने जा रहा है तब  जरूरी हो जाता है कि हम अपने उपभोक्ता बाजार में विदेशी ब्रांड की बिक्री को घटायें | लेकिन कीमत और क्वालिटी दो ऐसे तत्व  हैं जो उपभोक्ता के निर्णय  को प्रभावित करते हैं | और इसी  का लाभ लेकर चीन का सामान भारतीय बाजारों से होता हुआ घर  - घर में घुस गया | 

नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद ये उम्मीद थी कि वे चीनी सामान से हलाकान होकर दम तोड़ते जा रहे भारतीय उद्योगों को रक्षा कवच प्रदान करेंगे लेकिन उलटे चीन के साथ भारत के व्यापारिक रिश्ते मजबूत किये जाने लगे | उसके राष्ट्रपति जिनपिंग से याराना दिखाने के लिए कभी उनको अहमदाबाद में झूले पर झुलाया गया तो कभी महाबलीपुरम में आवभगत की गयी | मोदी जी भी चीन जाकर प्यार भरी बातें करके आ गए | इससे उनके अपने समर्थक वर्ग में भी असंतोष था | हालांकि चीन से आने वाले  कुछ सामानों  पर नियन्त्रण लगाये गए लेकिन प्रधानमंत्री के अपने वैचारिक परिवार के स्वदेशी जागरण मंच के प्रयासों के बावजूद भी चीनी  या अन्य विदेशी वस्तुओं का आयात जरा भी कम नहीं  हुआ | 

 बीते कुछ समय से चीन को अनेक मामलों में भारत के सशक्त विरोध का सामना करना पड़ा | विशेष रूप से अरुणांचल में भारत ने अपनी सैन्य शक्ति जिस तरह मजबूत की  उससे भी वह  काफी भन्नाया हुआ है | विशेष रूप से वन बेल्ट वन रोड वाले प्रोजेक्ट में शामिल नहीं  होने के हमारे  निर्णय ने उसको जबरदस्त नुकसान पहुँचाया | आतंकवाद और कश्मीर को लेकर भी चीन  द्वारा भारत के हितों के विरुद्ध सुरक्षा परिषद में वीटो के इस्तेमाल के कारण ऊपर से सामान्य दिखने वाले रिश्तों के बावजूद भीतर - भीतर शंकाएँ बढ़ती रहीं | लेकिन व्यापार के मोर्चे पर भारत सरकार ऐसा कुछ न कर सकी  जिससे घरेलू बाजारों में चीन के बढ़ते वर्चस्व को रोका जा सके |

आखिर कोरोना ने वह अवसर दिया और उसका लाभ उठाते हुए श्री मोदी ने पहली बार अपने वैचारिक प्रतिष्ठान की सोच को इतनी वजनदारी से रखा | सबसे बड़ी बात कोरोना संकट के लिए चीन पर मंडरा रही आशंका के चलते उसकी वैश्विक साख को जबर्दस्त धक्का पहुंचा है |  अमेरिका सहित तमाम देश चीन से अपने उद्योग हटाने की तैयारी कर रहे हैं | इस कारण वह भारी दबाव में है | वही क्यों समूचे  पश्चिमी जगत का आर्थिक और औद्यगिक ढांचा कोरोना की वजह से चरमरा उठा है |

उसकी तुलना में भारत में स्थिति काफी संतोषजनक होने से दुनिया का ध्यान हमारी तरफ आकर्षित होने की सम्भावना  है | यद्यपि उसका कितना लाभ हम उठा सकेंगे ये कह पाना तो कठिन है किन्तु अपने उत्पादन को बढ़ाकर अगर घरेलू जरूरतों को पूरा करने में भारत सक्षम हो सके तो अर्थव्यवस्था की गिरावट को उछाल में बदला जा सकता है | इससे व्यापार असंतुलन दूर होने के साथ  ही बेरोजगारी की समस्या भी हल होगी किन्तु ये तब तक संभव नहीं है जब तक स्वदेशी उत्पादों के प्रति भारत के लोगों में ही आग्रह न हो |

आर्थिक पैकेज को आत्मनिर्भर भारत अभियान का रूप देकर प्रधानमन्त्री ने जो पांसा फेंका है वह चमत्कारिक नतीजे दे सकता है , बशर्ते आर्थिक मोर्चे पर भी लोगों के मन में राष्ट्रीयता का भाव जगाया जा सके । 12 मई की रात प्रधानमन्त्री का सन्देश सुनने के बाद से ही देश भर से जो प्रतिक्रियाएं ग्लोबल के मुकाबले लोकल के समर्थन में आ रही हैं उनसे लगता है यदि भावनाओं के इस ज्वार की तीव्रता बनाये रखी जाए तो आत्मनिर्भर भारत अभियान को नारे से वास्तविकता  में बदला जा सकता है | प्रधानमंत्री ने जो आह्वान किया उसे अंजाम तक पहुंचाने की असली जिम्मेदारी अनगिनत मोदी समर्थकों की  है | वित्त मंत्री द्वारा 200 करोड़ तक की सरकारी खरीद के लिए ग्लोबल टेंडर नहीं निकालने की घोषणा करते हुए शुरुवात भी कर दी | उसके तुरंत बाद गृह मंत्री अमित शाह ने केन्द्रीय  पुलिस बलों के लिए संचालित कैंटीनों में केवल स्वदेशी उत्पाद ही उपलब्ध करवाने की घोषणा की तो थल सेनाध्य्क्ष ने सेना की कैंटीनों में वर्तमान  75 % की बजाय शत प्रतिशत भारतीय उत्पाद विक्रय हेतु रखे जाने पर सहमति दे दी |

 लेकिन जब तक आम जनता स्वदेशी के साथ भावनात्मक तौर पर नहीं जुड़ती तब तक ये अभियान महज सरकारी  औपचरिकता रह जाएगा | और यहीं शुरू होती है  भाजपा और रास्वसंघ  की भूमिका | दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी और  सबसे बड़े  संगठन का दावा करने वाली भाजपा और रास्वसंघ  यदि प्रधानमन्त्री के आह्वान को राममन्दिर की तरह का राष्ट्रीय आन्दोलन बना  सकें और उसके लिए वैसी ही मैदानी मेहनत करें तो अर्थ तंत्र बहुत जल्द व्यवस्थित होकर तेजी से आगे बढ़ने की स्थिति में आ जाएगा |

सवाल ये हैं कि क्या उक्त दोनों संगठन  भारतीय उपभोक्ता  को विदेशी छोड़कर स्वदेशी अपनाने और उसके लिए आवाज उठाने के लिए प्रेरित  कर  सकेंगे ? लेकिन इसी के साथ ही भारतीय उत्पादकों को भी क्वालिटी के मामले में प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा ।

सबसे बड़ी बात ये भी है कि करोड़ों मोदी समर्थकों को  ईमानदारी  के साथ पहले खुद  स्वदेशी को अपनाना होगा | अन्यथा वे दूसरों से इस हेतु आग्रह नहीं कर सकेंगे | आर्थिक पैकेज की प्रशंसा या आलोचना से उपर उठकर स्वदेशी को भारतीय जनमानस में बिठाने के आह्वान की प्रशंसा होनी चाहिए | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने बड़ी ही चतुराई से सही  समय पर अपने समर्थकों के सामने एक चुनौती पेश कर दी है | यदि वे उसमें कामयाब हो सके तो 21 वीं सदी भारत की होने की भविष्यवाणी सच साबित हो सकती है |