Saturday 23 May 2020

लॉक डाउन अवधि का ब्याज माफ़ किया जाए




भारतीय रिजर्व बैंक इतना उदार पहले कभी नहीं रहा। कोरोना की वजह से अर्थव्यवस्था पर आये अभूतपूर्व संकट के समय वह लगातार उद्योग-व्यापार जगत की मदद कर रहा है। अमूमन वह प्रत्येक तीन महीने में मौद्रिक नीति की समीक्षा करता था किन्तु कोरोना से उत्पन्न हालातों में उसने बीते दो महीने में अनेक बार राहतों का पिटारा खोलते हुए एक तरफ  तो कर्ज सस्ता किया वहीं दूसरी तरफ  कर्जदारों को किश्तें चुकाने में आ रही दिक्कतों को दूर करने के लिए तीन महीने की जो मोहलत दी उसे भी गत दिवस तीन महीने और बढ़ा दिया। साथ ही कर्ज भी सस्ता करते हुए बैंकों के पास नये ऋण बाँटने के लिए और धन की उपलब्धता बढ़ा दी। केंद्र सरकार द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज में चूँकि अधिकतर प्रावधान बैंकों के कर्ज से जुड़े हैं इसलिए भी शायद ऐसा करना जरूरी हो गया था। लेकिन कर्ज की अदायगी में मिली मोहलत के बावजूद ब्याज में छूट नहीं दी गयी। जबकि कारोबारी अथवा निजी ऋण लेने वालों की अपेक्षा है कि लॉक डाउन के कारण व्यापारिक गतिविधियाँ चौपट होने से हुए नुकसान की भरपाई के लिए उस अवधि के ब्याज को माफ़  किया जाना चाहिए। दरअसल जो छोटे दुकानदार कम पूंजी से व्यवसाय करते हैं, बीते दो माह में उनकी पूंजी डूब गयी। नये सिरे से व्यवसाय शुरू करने के लिए उन्हें अतिरिक्त सहायता नहीं मिली तो उनकी कमर टूट जायेगी। चूँकि ऐसी स्थिति पहले कभी पैदा नहीं हुई इसलिए कारोबारी और नौकरपेशा सभी परेशान हैं। उद्योग जगत भी कारोबार ठप्प होने से मुसीबत में है। ऐसे में सामान्य अपेक्षा ये है कि व्यवसायिक एवं निजी कर्जों पर कम से कम तीन महीने के ब्याज को सरकार माफ़ करे। इससे व्यापार-उद्योग जगत के साथ ही अपनी निजी जरूरतों के लिये ऋण लेने वाले मध्यमवर्गीय कर्जदारों को मनोवैज्ञानिक राहत मिलेगी। लोगों का ये सोचना गलत नहीं है कि उन्होंने लॉकडाउन को सफल बनाने में चूँकि पूरी ईमानदारी से योगदान दिया इसलिए अब सरकार का फर्ज बनता है कि उनके लिए आभार स्वरूप वह अप्रैल से जून का ब्याज माफ कर दे। इस बारे में एक बात ध्यान देने योग्य है कि अब तक सरकार के किसी भी कदम से नौकरपेशा मध्यमवर्ग और उसी श्रेणी के कारोबारियों को कोई राहत नहीं मिली। किराना, दूध, दवाई, सब्जी और फलों का कारोबार तो चलता रहा लेकिन उसमें भी तुलनात्मक रूप से गिरावट रही क्योंकि मजदूरों के साथ ही निजी क्षेत्र में छटनी और वेतन कटौती के कारण उपभोक्ताओं के बड़े वर्ग की क्रय क्षमता में जबरदस्त कमी आ गयी। सरकार को भी यदि राजस्व चाहिए तो उसे बाजार को गुलजार करना पड़ेगा। आज की स्थिति में लॉक डाउन पूरी तरह से हट जाने के बाद भी उद्योग-व्यवसाय में गतिशीलता तब तक नहीं आयेगी जब तक उत्पादक , व्यापारी और उपभोक्ता तीनों तनावमुक्त न हों। मौजूदा हालात में तो असुरक्षा का भाव ही सर्वत्र व्याप्त है। जिसके पास कारोबारी पूंजी यदि है तब भी वह अनिश्चितता के चलते उसका इस्तेमाल करने से हिचकेगा और खरीददार भी किसी चीज के लिए तब तक रुका रहेगा जब तक उससे खरीदना उसके लिए अनिवार्य न हो जाए। अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों के अलावा अब तो रिजर्व बैंक ने भी ये मान लिया है कि मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली छमाही में केवल कृषि क्षेत्र से ही अच्छे परिणाम मिले और बाकी सबमें गिरावट आई। इस कारण अब ये सुनिश्चित हो गया है कि भले ही सितम्बर से मार्च तक की आगामी छमाही में कारोबारी जगत कितने भी अच्छे नतीजे दे लेकिन विकास दर बढ़ना तो दूर उसके शून्य से भी नीचे जाने के आसार हैं। अब देखने वाली बात ये होगी कि वह कितने नीचे जाती है। हालांकि दुनिया भर के अर्थशास्त्री ये मानकर चल रहे हैं कि 2021-22 वाले वित्तीय वर्ष में भारत फिर वापिसी करेगा और विकास दर 5 से 7 फीसदी के लगभग हो जायेगी। लेकिन इसके लिए कारोबारी जगत के साथ ही उपभोक्ता के मन में उत्साह भरना जरूरी है। सरकार को ये बात समझ लेनी चाहिए कि उद्योग-व्यापार और उपभोक्ता तीनों का हौसला यदि नहीं बढ़ाया गया तब उसके खजाने में भी टैक्स कम आएगा और लगातार कारोबारी सुस्ती से विकास का पहिया जंग खाने के बाद लम्बे समय तक नहीं चल सकेगा। राज्यों में भी उद्योगों पर बिजली बिल का भार बढ़ गया है। स्थायी प्रभार के नाम पर बिजली कम्पनियां लॉक डाउन अवधि का भारी-भरकम बिल वसूलने का दबाव बना रही हैं। ये सब देखते हुए अब जो भी राहत दी जाए वह पिछले गड्ढे भरने की दृष्टि से होनी चाहिए क्योंकि एक बार काम चल निकला तो बाकी की व्यवस्था उद्योगपति-व्यापारी और मध्यमवर्गीय उपभोक्ता खुद ब खुद कर लेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment