Friday 1 May 2020

गांव रूपी रीढ़ को मजबूत करने का सुनहरा मौका



गत दिवस प्रधानमंत्री ने एक उच्च स्तरीय बैठक लेकर कोरोना के बाद की परिस्थितियों में भारत के औद्योगिक विकास की रणनीति पर विचार किया। जो बातें सामने आई हैं उनसे लगता है सरकार चीन से कारोबार समेटने वाली औद्योगिक इकाइयों को ठीक उसी तरह भारत में स्थापित होने के लिए आकर्षित करने के लिए प्रयत्नशील है जैसा चीन ने अतीत में किया था। त्वरित निर्णय ऐसे मामलों में कारगर होता है। जमीन का आवंटन , शासकीय विभागों से जरुरी स्वीकृतियां, कम से कम औपचारिकताएं और सबसे बड़ी बात नौकरशाही की अड़ंगेबाजी से मुक्ति जैसे मुद्दों पर यदि सरकार बारीकी से ध्यान दे दे तो नये उद्योग लगाने के लिये विदेशी कंपनियों के साथ ही भारत के उद्यमी भी उत्साह दिखा सकते हैं। लॉक डाउन के कारण महानगरों से लाखों श्रमिक अपने गांव वापिस चले गये या जाने को तैयार बैठे हैं। कहा जा रहा है वे लम्बे समय तक वापिस नहीं लौटेंगे। उनमें से कुछ बढ़ती आयु के कारण हो सकता है गांव या निकटवर्ती क्षेत्र में रोजगार तलाशकर जीवनयापन करने लगें। ऐसे में अब सरकार को ये सोचना चाहिए कि वह विदेशी निवेश को तो आमंत्रित करे ही लेकिन ऐसे उद्योगों को प्रोत्साहित भी करे जो कम लागत से शुरू हो सकें और जिनमें अकुशल श्रमिक भी कार्य करें। इसका लाभ ये भी होगा कि फसल बोने और काटने के समय ग्रामीण क्षेत्रों में श्रमिकों की जो कमी होने लगी है वह भी दूर की जा सकेगी। अर्थशास्त्र की आधुनिक सोच में जो कुछ भी हो लेकिन भारत की आर्थिक प्रगति गांव की उपेक्षा करते हुए कर पाना असम्भव है। यदि बीते सात दशक के प्रयोगात्मक रवैये से मिले सबक ध्यान में रखकर गलतियां सुधारने पर जोर दिया जावे तो आने वाले कुछ सालों में ग्रामीण क्षेत्र नए भारत का शक्ति केंद्र बन सकता है। एक बात तो साफ है कि शहरी उद्योग भी बिना श्रमिकों के नहीं चल सकते। जिस तरह उत्पादन के लिये बाकी चीजें जरूरी होती हैं ठीक वैसे ही श्रम की जरूरत भी पड़ती है । जो मशीनी युग में भी बनी हुई है और आगे भी रहेगी। इसे देखते हुए प्रधानमंत्री और उनकी टीम को ये देखना होगा कि जिन राज्यों के श्रमिकों का महानगरों से पलायन हुआ है उन्हीं में नये रोजगार लगाने की पहल की जाए। इससे महानगरों की आवासीय समस्या भी हल हो सकेगी तथा विकास का विकेंद्रीकरण होने से असंतुलन की स्थिति भी खत्म की जा सकेगी। ग्रामीण भारत से श्रम शक्ति का शहरों में जाना नई बात नहीं है। लेकिन पहले व्यक्ति अकेला जाता और परिवार गाँव में रखता था। खेती की जरूरत के समय वह अपने गाँव चला आता था। और तो और वह ज्यादा दूर जाने से हिचकता था। धीरे-धीरे उसकी पहुंच लम्बी हुई। आवागमन और संचार सुविधाओं के विकास ने भी उसमें योगदान दिया। दूरी के कारण गांव आना कम हुआ तो वह अपने परिवार को भी साथ ले गया और इस तरह गांव से उसका संबंध घटता चला गया। शहरी चकाचौंध ने उस पर जो सम्मोहन किया उसके कारण वह नारकीय हालातों में भी वहीं बसर करने लगा। लेकिन लॉक डाउन ने उस चकाचौंध के पार का अन्धेरा दिखा दिया। उसके पास गांव लौटने की मजबूरी आ गयी लेकिन आवागमन के आधुनिक संसाधनों के बावजूद गांव की दूरी उसकी कल्पना से भी ज्यादा हो गई। हजारों श्रमिक किस तरह अपने गांव लौटे ये बताने की कोई जरूरत नहीं है। और इसी वजह से अब ये सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या वे दोबारा उन्हीं शहरों को लौटेंगे जिन्होंने मुसीबत के समय उनको बेसहारा छोड़ दिया। सही कहें तो ये बहुत ही सही अवसर है ग्रामीण भारत को भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार बनाने का। कोरोना के बाद पूरी दुनिया एक नए युग में प्रवेश करने जा रही है। ये मजबूरी भी है और जरुरी भी क्योंकि विकास की जो इमारत दूसरे विश्वयुद्ध के बाद खड़ी हुई वह खजूर का पेड़ साबित होकर रह गयी जिससे पथिक को छाया भीं नहीं मिलती और फल भी पहुंच से बहुत बाहर हैं। पश्चिमी समाज की प्राथमिकताएं चूंकि भारत से सर्वथा अलग हैं इसलिए उनका अन्धानुकरण हमें महंगा पड़ गया। कोरोना ने विकास को शहरों तक सीमित रखे जाने की गलती का एहसास करवा दिया है। ऐसे में बुद्धिमत्ता यही होगी कि उसे दोहराने से बचा जाए। देश के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया को ग्राम केन्द्रित बनाना ही समय की मांग है। कृषि और उद्योगों की नजदीकी से हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को जो मजबूती मिलेगी वह भविष्य में किसी भी आपातकाल के समय पैदा होने वाली परेशानियों से निपटने में मददगार होगी और आबादी के पलायन जैसी समस्या से हम बचे रहेंगे। भारत की अधिकतर आबादी आज भी ग्रामीण इलाकों में बसती है। अटलबिहारी वाजपेयी ने ग्रामीण सड़क योजना बनाकर जो क्रांति की उसकी वजह से अब गांव तक आना जाना सुलभ हो गया है। मोदी सरकार ने बिजली पहुंचा दी। अब अगर वहां आर्थिक गतिविधियां बढ़ा दी जाएं तो जिस न्यू इण्डिया की बात प्रधानमंत्री सोच रहे हैं वह सही साबित हो सकती है। आज तक ' चलो गांव की ओर 'के नारे तो खूब लगे लेकिन जमीनी सच्चाई इसके ठीक उलट है। समय आ गया है जब पूरा फोकस महानगरों की बजाय भारत की रीढ़ को मजबूत करने पर केन्द्रित हो। महानगरों से हुए पलायन को केवल एक तात्कालिक घटना मानकर भुला देने की बजाय उसके गर्भ में छिपे भविष्य के संकेतों को भी समझना होगा। 
किसी शायर की ये पंक्तियां आज के माहौल में सहसा प्रासंगिक हो उठीं :-
अपने खेतों से बिछड़ने की सजा पाता हूँ ,
अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूँ।

- रवीन्द्र  वाजपेयी

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