Saturday 16 May 2020

दो गज की दूरी नदियों से भी जरूरी ...सिन्धु की पुकार पर , मिलन का उभार भर ,नर्मदा उमड़ रही सोलहों श्रृंगार कर

दो गज की दूरी नदियों से भी जरूरी  ...

सिन्धु  की पुकार पर , मिलन का उभार भर ,
नर्मदा उमड़ रही सोलहों श्रृंगार कर


मई का ही  महीना था | 17 साल पहले मैं अपने मित्र स्व.डॉ.सुधीर नेल्सन , और कमल ग्रोवर के साथ लद्दाख गया था | लेह तक की यात्रा यूँ तो मनाली होते हुए सड़क मार्ग से  करने की इच्छा थी किन्तु मौसम की अनिश्चितता की वजह से दिल्ली से हवाई यात्रा  का निश्चय किया , जिससे समय बचे तो लद्दाख को ज्यादा देख सकें | अलसुबह दिल्ली से उड़ान भरकर हम तीनों लगभग 7 बजे लेह की धरती पर थे | तापमान 2 डिग्री होने से ठिठुरन थी | दिल्ली से उड़ने के कुछ देर बाद ही हमारा विमान हिमाचल के पहाड़ों पर आ गया और फिर शुरू हुई बर्फ से ढंकी चोटियों की दृश्यावली जो एक तरफ तो लुभा रही थी दूसरी तरफ उनकी निर्जनता से मन में भय भी था | सूर्य की किरणों से कहीं  - कहीं बर्फ का रंग चटक पीला नजर आया जो अद्भुत था | अचानक विमान के कैप्टेन ने उद्घोषणा की कि कुछ ही मिनिट बाद हम लेह में लैंडिंग करेंगे | बर्फीले पहाड़ों के ऊपर इतनी लम्बी हवाई यात्रा का पहला अनुभव होने से पूरे समय खिड़की से बाहर ही देखता रहा | कुदरत के अनावृत सौन्दर्य और ईश्वर की अकल्पनीय सृजनशीलता का साक्षात दर्शन करते समय मानो अपने सांसारिक अस्तित्व को भूल सा गया था | और इसीलिये जब कैप्टेन की आवाज आई तो जैसे स्वप्न लोक से धरा पर लौट आया | सामान्य होते  ही  देखा विमान उस समय तक बर्फ से ढंके पहाड़ों के ऊपर ही था | हाँ , वह कुछ नीचे जरुर आ गया था | लेकिन अमूमन उतरने  के कुछ मिनिट पहले से ही शहर का नजारा दिखने लगता है और हवाई पट्टी भी , किन्तु विमान के लगातार नीचे आते जाने पर भी जमीन नजर नहीं  आ रही थी | दो - तीन दिन पहले लेह हवाई अड्डे पर उड़ान भरते समय एक विमान के टायर फट गए थे | गनीमत थी उसने हवाई पट्टी नहीं छोड़ी थी , इसलिए रुक गया | उस वजह से भी आशंकित होकर सोच रहा था  कि ये कैसा  हवाई अड्डा है जो उड़ान खत्म होने को आई पर दिख नहीं रहा | इतने में  चारों तरफ पहाड़ों से घिरी  हवाई पट्टी नजर आ गयी | विमान ने एक दो चक्कर लगाये और उतर गया |

हमारे  मेजबान ने टैक्सी से होटल जाने का प्रबंध किया | उसके पहले भी  मैं अनेक पहाड़ी जगहों पर घूम चुका  था किन्तु लेह उन सबसे अलग या यूँ कहें एक दूसरी दुनिया जैसा था | 1965 में स्व.चेतन आनंद ने 1962 के चीनी हमले पर हकीकत नामक जो फिल्म बनाई थी उसकी काफी आउटडोर शूटिंग लेह में हुई थी | उस फिल्म को देखने के  बाद ही लद्दाख जाने की इच्छा थी जो तकरीबन 38 साल बाद जाकर पूरी हुई | होटल पहुंचकर सोचा जल्दी  तैयार होकर शहर भ्रमण  पर निकल जाएं किन्तु होटल के वृद्ध मुस्लिम मालिक ने धूप में कुर्सी डालकर कहा  आराम करिए , ये मैदान नहीं है | ज्यादा  मशक्कत करने से पस्त हो जाओगे | तब तक हमें भी वहां ऑक्सीजन की कमी  महसूस होने लगी थी | उसका निर्देश मानकर दोपहर होटल में गुजारी | 

और शाम को शहर से कुछ दूर बहने वाली सिन्धु नदी देखने चल पड़े | बचपन से सिन्धु घाटी की सभ्यता सुनते आये थे | ये भी मालूम था कि वह पकिस्तान में जाकर  अरब सागर में मिलती है और उस देश की जीवन रेखा भी  है | लेकिन ये नहीं सोचा था उसके दर्शन का अवसर कभी मिलेगा  | सच कहूं तो लेह जाने के पहले तक यही नहीं पता था कि सिन्धु उसी शहर में बहती है | उसी के पास दलाई लामा का एक महल भी है | वैसे उनका मुख्यालय है तो धर्मशाला में किन्तु लद्दाख  बौद्ध बहुल है और काफी कुछ तिब्बत का एहसास करवाता है |

तकरीबन आधे घंटे बाद हम सिन्धु के करीब थे | उसका जल इतना साफ़ और निर्मल था कि देखता ही रह गया | सामने ऊंचे पहाड़ समूचे परिदृश्य को सौन्दर्य प्रदान कर रहे थे | जिस दिशा में वह बह रही थी उस तरफ निगाह घुमाने पर इस बात का दर्द हुआ कि प्रकृति की  ये अनमोल देन वहां से कुछ दूर बहकर पराई हो जायेगी | सिन्धु से यूँ तो कोई भावनात्मक लगाव न था | लेकिन गंगा , यमुना , मंदाकिनी और अलकनंदा जैसी हिमालय से निकली नदियाँ पहाड़ों पर भी मुझे इतनी स्वच्छ नहीं  दिखीं जितनी सिन्धु थी | बेहद ठंडा जल और तेज प्रवाह से उत्पन्न कलकल की आवाज ने एक दिव्य और अविस्मरणीय अनुभव से साक्षात्कार करवा दिया |

दूसरे दिन सुबह हम सिन्धु दर्शन करने दोबारा गये | उस समय वहां कुछ पर्यटक भी थे | सूर्य की किरणों से नदी का जल और चमक उठा था | लद्दाख की  उस  यात्रा में अनेक ऐतिहासिक बौद्ध स्तूपों के अलावा विश्व के सबसे ऊँचे मोटर मार्ग खरदूंगला तक का  रोमांचक सफर भी कभी  न भूलने वाला रहा । 

कोरोना संकट के कारण हमारे देश के पर्यावरण में जो आश्चर्यजनक सुधार हुआ उसने सहसा उस लेह यात्रा की स्मृतियाँ  ताजा कर दीं | विशेष रूप से सिन्धु नदी के स्वच्छ जल की तरंगें मानों दृष्टिपटल पर साकार हो उठीं |

हाल ही में किसी मित्र ने मुझे जबलपुर के समीप ग्वारीघाट का एक वीडियो भेजा जिसमें नर्मदा जिस अल्हड़पन से प्रवाहमान है वह देखकर 17 साल पहले के सिन्धु दर्शन का अनुभव सजीव हो उठा | उस मित्र का नाम मैं सहेज नहीं पाया किन्तु आलेख के अंत में वह वीडियो देखकर आप भी आनंदविभोर हो उठेंगे | उस दिन लेह में हमारे टैक्सी चालक  ने बताया था कि पर्यटक आते तो हैं लेकिन नदी के दर्शन मात्र करते है | कुछ लोग जल से आचमन करने के साथ ही उसे भरकर ले भी जाते हैं | इसलिए जल उतना स्वच्छ था |

संयोगवश बीते लगभग 50 दिन  से नर्मदा नदी भी जबलपुर शहर से सटी होने के बावजूद मानवीय सम्पर्क एवं हस्तक्षेप से दूर है | हालांकि उसके अत्यंत निकट अनेक आश्रम और बस्ती है |  इस दौरान कई  तीज - त्यौहार ऐसे निकल गए जो स्नान पर्व माने जाते हैं , लेकिन नर्मदा के जल में न किसी ने स्नान किया  न ही पूजन | अक्सर कहा जाता है कि प्रकृति अपना स्वभाव बदल रही है | लेकिन नर्मदा के जल में हुए अविश्वसनीय सुधार ने साबित कर  दिया कि प्रकृति का स्वभाव और तौर - तरीके यथावत हैं | बदला तो इन्सान है जिसने अपनी वासनाओं के वशीभूत प्रकृति प्रदत्त अनमोल धरोहरों के साथ अमानुषिक व्यवहार करते हुए  उनकी नैसर्गिकता छीन ली |

लेकिन न जाने कितने दशकों के बाद  मानवीय अत्याचारों से राहत मिलते ही प्रकृति ने अपना असली रूप पुनः धारण कर लिया | वाराणसी में गंगा  , दिल्ली में यमुना  और नासिक में गोदावरी  न केवल शुद्ध हुईं बल्कि उनका जलस्तर पिछली अनेक गर्मियों की अपेक्षा बढ़ गया है | हमारी संस्कृति में नदियों को माता मानकर पूजा जाता है | उनके दैवीय अस्तित्व को भी स्वीकृति है | उस आधार तो ये सोचना गलत नहीं होगा कि लॉक डाउन खत्म होने की कोई भी सम्भावना नदियों को  भयाक्रांत करती होगी |
जब इस बारे में सोचता हूँ तो मैं भी चिंतित के साथ ही दुखी हो जाता हूँ कि ज्योंही जन जीवन सामान्य होगा त्योंहीं इन नदियों का जीवन फिर खतरे में पड़ जाएगा | विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर चिकित्सा विज्ञान के जानकार तक कह रहे हैं कि कोरोना अब हमारे   साथ ही रहेगा और बचाव हेतु हमें सोशल डिस्टेंसिंग अर्थात दो गज की  शारीरिक दूरी का पालन दैनिक जीवन में  करना ही होगा | तो फिर यही नियम क्यों न इन नदियों के साथ भी उपयोग में लाया जावे | यदि भविष्य में भी हम उनसे लॉक डाउन जैसी दूरी बनाए रख सके तो नदियाँ  अपने समूचे सौन्दर्य के साथ यूँ ही प्रवाहित होती रहेंगीं |

आखिर अपने प्राणों की रक्षा के प्रति हरसंभव सावधानी का पालन करने को तैयार मनुष्यों को नदियों के जीवन को खतरे में डालने का क्या  अधिकार है ?

संस्कारधानी के ओजस्वी कवि स्व. रामकृष्ण दीक्षित विश्व द्वारा लिखी गयी ये पंक्तियाँ इन दिनों साकार हो उठी हैं :-

सिन्धु  की पुकार पर , मिलन का उभार भर ,
नर्मदा उमड़ रही सोलहों श्रृंगार कर  ....

आइये इस श्रृंगार को बनाये रखें | 

चित्र परिचय : - 1. नर्मदा का वीडियो , 2. सिंधु तट पर स्व.डॉ. नेल्सन , कमल ग्रोवर और मैं।

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