Monday 4 May 2020

प्रवासी श्रामिक की वापिसी ग्रामीण भारत के लिए वरदान होगी



प्रवासी श्रमिकों को वापिस ले जाने वाली रेल गाडिय़ां अपने गंतव्य तक पहुँचने लगीं। इसके कारण देश भर में फंसे लाखों लोगों में उम्मीद की किरण जागी है। लेकिन उनका स्वास्थ्य प्ररीक्षण किया जाएगा और सब ठीक होने पर ही उन्हें घर जाने मिलेगा। वहां भी कुछ दिन क्वारन्टीन की स्थिति में रहने की मजबूरी रहेगी। लेकिन ये प्रक्रिया भी आसान नहीं है। एक ट्रेन बमुश्किल 1200 यात्रियों को ले जा पा रही है। ऐसे में प्रतिदिन 100 गाडिय़ाँ चलें तब भी अधिकतम सवा लाख लोग ही जा सकेंगे। जबकि मोटे अनुमान के मुताबिक कुल संख्या करोड़ों में बताई जा रही है। हालाँकि उसका सही अनुमान किसी के पास नहीं है। उनको घर पहुँचाने के लिए सरकार पर चौतरफा दबाव पडऩे लगा था। अनेक जगहों पर बलवे की नौबत तक आ गई। गत दिवस मप्र और गुजरात की सीमा पर जमा सैकड़ों मजदूरों ने बैरिकोड तोडकर भीतर घुसने की जबरिया कोशिश भी की। ये भी सही है कि हजारों लोग पहले ही पैदल या सायकिल जैसे किसी साधन से अपने गाँव तक पहुँच चुके थे। यद्यपि कुछ दुर्भाग्यशाली भी रहे जो बीच में ही दम तोड़ बैठे। प्रवासी मजदूरों का दर्द घर पहुँचते ही दूर हो जाएगा, ये मान लेना जल्दबाजी होगी। क्योंकि जिस दो वक्त की रोटी के लिए वे अपने गाँव से दूर मुम्बई, दिल्ली या किसी दुसरे शहर में खानाबदोशी की जि़न्दगी जीने गये वह उन्हें गाँव में मिलती होती तब वे जाते ही क्यों? और इसीलिये ये सवाल भी साथ ही साथ उठ खड़ा हुआ है कि क्या वे दोबारा लौटेंगे? यदि हाँ, तो कब तक और नहीं, तो करेंगे क्या? उधर लॉक डाउन के तीसरे चरण में उद्योग धंधे शुरू होने की अनुमति मिलते ही श्रामिकों की उपलब्धता का सवाल उठने लगा है। अकुशल मजदूर तो चलो जैसे तैसे मिल भी जाए किन्तु कुशल श्रमिकों का टोटा पडऩे की बात अभी से सुनाई देने लगी है। दूसरी बात ये है कि उद्योग शुरू होने के बाद भी क्या अब तक फंसे पड़े श्रमिक अपने गाँव लौटना चाहेंगे या वे इरादा बदलकर काम करने लगेंगे। प्रवासी श्रमिकों की ये समस्या केवल देश में नहीं अपितु खाड़ी देशों के साथ ही पश्चिम एशिया के तमाम मुल्कों में रह रहे भारतीयों को लेकर भी है। जो या तो लौट आये हैं या लौटने का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में बेरोजगारी का ग्राफ  और उपर जाने का अंदेशा है। आने वाले कुछ दिनों में हालत काफी हद तक साफ़  होगी। उद्योगों के सामने फिलहाल मजदूरों के अलावा कच्चे माल की भी किल्लत है। हो सकता है सामान्य स्थित्ति आते - आते तक देश में मानसून दस्तक देने लगे। और तब खेती किसानी का काम भी शुरू हो जाएगा। ऐसे में जो प्रवासी श्रमिक लौटकर आये हैं उनमें से कुछ को खेतिहर मजदूर का काम मिल सकता है बशर्ते वे उसके लिए राजी हों। उनके शहर जाने के पीछे भी खेतों में काम न करने की प्रवृत्ति थी। विशेष तौर पर ग्रामीण युवा अब अपने किसान पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम नहीं करना चाहता। शहरों का आकर्षण उसे अपने घर से दूर ले तो जाता है लेकिन चंद अपवाद छोड़कर वहां भी उसके साथ संघर्षों की कभी न टूटने वाली श्रृंखला जुड़ी रहती है। कोरोना न होता तो अभी भी महानगरों से इतनी बड़ी संख्या में श्रमिकों की वापिस नहीं होती। लेकिन अब आगे की स्थिति क्या होगी इस पर अर्थशास्त्रियों में मंथन चलने लगा है। यहाँ तक कि वैश्विक स्तर पर भारत के बारे में सोचने वाले भी प्रवासी मजदूरों के घर लौटने के बाद के प्रभाव का पूर्वानुमान लगाने में व्यस्त हैं। वैसे इस बारे में एक सहज विश्लेषण तो यह है कि ऐसा होने से भारतीय अर्थव्यवस्था को नये पंख लग सकते हैं। मसलन ग्रामीण क्षेत्रों में श्रामिकों की कमी का रोना दूर हो जाएगा। शहरों से लौटे तमाम मजदूर वहां की हकीकत को समझने के बाद हो सकता है वापिस खेतों में उतरने का मन बनाएं। इससे वे किसान भी कृषि कार्य को विस्तार देने के लिए प्रेरित होंगे जो मजदूरों की किल्लत के कारण कृषि छोड़कर कुछ और करने की सोचने लगे थे। बड़ी संख्या में ऐसे किसान भी हैं जिन्होने या तो खेती की जमीन बेच दी या बेचने की सोच रहे हैं यदि उन्हें श्रम शक्ति का सहारा पहले जैसा मिलने लगे तो संभव है वे दुबारा कृषि करने लगें। इसी तरह ग्रामीण इलाकों में पशुपालन और दुग्ध व्यवसाय में भी कमी आई है। किसान पहले बैलों की खातिर गाय पालते थे। लेकिन हल और बैलगाड़ी का दौर खत्म होते ही गोपालन के प्रति भी रुझान कम होने लगा। एकाध पशु तो खैर कुछ लोग रखते भी हैं लेकिन इस कार्य में भी श्रमिकों का अभाव समस्या बन गया। ऐसे में शहरों से वापिस आये मजदूरों को ग्रामीण क्षेत्रों में ही रोजगार मिले तो उनमें से अनेक लौटने का इरादा त्याग सकते हैं। उनके गाँव में रुकने से शहरी उद्योगों को शुरुवात में कुछ परेशानी हो सकती है किन्तु बाद में ये कमी उन शहरी बेरोजगारों के लिए नए अवसर उत्पन्न करेगी जो ग्रामीण श्रमिकों की वजह से काम से वंचित रहते थे। कुल मिलाकर कोरोना के बाद के भारत में श्रम और श्रमिक को लेकर बड़े बदलाव देखने मिल सकते हैं। यद्यपि शुरुवाती दौर में कुछ व्यवहारिक परेशानियाँ आ सकती हैं किन्तु कुछ महीनों बाद परिवर्तन अपना असर दिखा सकता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में तमाम विरोधाभासों के बाद भी तकरीबन 48 फीसदी योगदान देने वाले ग्रामीण जगत को यदि काम करने वाले ज्यादा हाथ मिल जाएं तो वहां खेती के अलावा बाकी काम धंधे भी दोबारा जोर पकड़ सकते हैं। भारत के भविष्य के लिए ये परिवर्तन सुखद भी हो सकता है। शहरों की चकाचौंध के पीछे का अंधेरा देखकर लौटे व्यक्ति को इतना तो महसूस हो ही गया होगा कि गाँव में आज भी संवेदनाएं बची हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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