Thursday 14 May 2020

अब हवाएं ही करेगी रोशनी का फैसला , जिस दिये में जान होगी वो दिया रह जाएगाअब से भारत एक ब्रांड और हम सब उसके ब्रांड एम्बेसेडर





 कुछ समय पहले कागजों के बीच  अचानक विदेश से आया एक पुराना लिफाफा मिला | प्रेषक का नाम देखा तो डॉ. लक्ष्मी नारायण पिपरसानिया ( अब स्वर्गीय )  लिखा था | अचानक यादों की  सुई आधी सदी पीछे घूम गई  | डॉ. पिपरसानिया जबलपुर में साठिया कुआ मोहल्ले में हमारे पड़ोसी थे | पहले यहाँ एक निजी वाणिज्य महाविद्यालय में प्राध्यापक भी रहे | बाद में उनका चयन विदेश मंत्रालय में हो गया और 1965 में वे संरासंघ में भारतीय दूतावास में नियुक्ति पर न्यूयॉर्क चले गये | उनका वह पत्र पढ़ा जिसमें सितम्बर 1968 की तारीख थी |  पिताश्री को संबोधित उस पत्र में प्रारंभिक औपचारिकताओं के बाद कुछ घरेलू चीजों का नाम और मात्रा लिखते हुए निवेदन था कि वे सब उनके लिये लेते आयें | दरअसल पिताजी बतौर पत्रकार अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव का अवलोकन करने जा रहे थे | अक्टूबर 1968 में उनका वहां जाने का कार्यक्रम था | उन्होंने अपने अमेरिका आने की पूर्व सूचना डॉ . पिपरसानिया को पत्र द्वारा भेज दी थी | जिसके उत्तर में आये संदर्भित पत्र में न्यूयॉर्क में अपने घर पर ही ठहरने के आग्रह  के साथ ही  पापड़ , बड़ी , मसाले , तिथि - त्यौहार दर्शाने वाले पंचांग - कैलेंडर और पूजन सामग्री के  अलावा बाटा कम्पनी का  एक काले रंग का जूता भी साथ लाने  का आग्रह था |

पत्र पढ़ने के बाद मुझे ध्यान आया कि पिताजी वह सब सामान ले भी गए थे | लगभग डेढ़ महीने की यात्रा के दौरान अमेरिका में मिले भारतीय  समुदाय के व्यक्ति के यहाँ भोजन करने का अवसर उन्होंने कभी नहीं गंवाया | इसका कारण डॉलर बचाना नहीं वरन शाकाहारी भारतीय भोजन का लालच था | उस ज़माने में वहां भारतीय रेस्टॉरेंट इक्का - दुक्का होते थे | जबकि अमेरिका में तब तक भारतीय समुदाय की उपस्थिति महसूस होने लगी थी | 

लेकिन आज का माहौल पूरी तरह बदला हुआ है | अब केवल अमेरिका ही नहीं अपितु विश्व के  सभी प्रमुख देशों में भारतीय मूल के लोगों की अच्छी खासी संख्या है  | अमेरिका , ब्रिटेन , कैनेडा , यूएई इनमें प्रमुख कहे जा सकते हैं | इस कारण भारतीय परिवारों में उपयोग  होने वाली दैनिक उपयोग की हर चीज वहां आसानी से उपलब्ध हो जाती है | भारतीय भोजन के रेस्टॉरेंट भी बड़ी मात्रा में खुल गये  हैं | न्यूयॉर्क के न्यू जर्सी और लन्दन के साउथ हॉल इलाके में तो लगता है मानों  भारत में ही घूम रहे हों | कैनेडा के प्रमुख शहरों के कुछ हिस्सों को तो मिनी पंजाब तक कहा  जाने लगा है | कहते हैं वहां के अनेक भारतीय तो गुरुद्वारे के लंगर से ही काम चला लेते हैं।

इस वजह से भारत के तमाम लोकप्रिय घरेलू  ब्रांड विदेशी बाजारों में जगह बना चुके हैं | इनमें  ,मसाले , अचार , रेडी टु ईट सब्जियां , पापड़ , खाकरे , नमकीन , पान मसाला और रेडीमेड वस्त्र आदि शामिल हैं | वैसे इसमें अनोखा कुछ भी नहीं है क्योंकि जहाँ उपभोक्ता होते हैं वहां बाजार भी पीछे - पीछे चला ही आता है |

यहाँ तक तो ठीक था लेकिन भारत में विदेशी उतनी बड़ी संख्या में नहीं रहने के बाद भी बीते दो ढाई दशक में जो विदेशी ब्रांड भारत में आये उनका कारण समझने वाली बात है | फैशन और सौन्दर्य प्रसाधन को अलग कर दें लेकिन पिज्जा , बर्गर और चिकेन के शौकीनों के कारण अमेरिका से निकले ब्रांडों के विक्रय केंद्र मझोले श्रेणी के शहरों तक में खुल जाना चौंकाता भले न हो परन्तु अध्ययन का विषय अवश्य है | यद्यपि कोका कोला और बाद में पेप्सी नामक  अंतर्राष्ट्रीय सॉफ्ट ड्रिंक का प्रवेश भारत में काफी पहले हो चुका था |  1977 में जनता पार्टी सरकार ने कोका कोला का भारत से डेरा उठवा दिया लेकिन नब्बे का दशक आते - आते तक  कोका कोला और पेप्सी  भारत में अपने पैर ज़माने में  कामयाब क्या हुईं , घरेलू बाजारों में छाये भारतीय ब्रांड डबल सेवन , कैम्पा कोला , गोल्ड स्पॉट , थम्स  अप का भट्टा ही बैठ गया | कुछ को उन दोनों ने खरीद लिया |

संयोग से  पिज्जा , चिकेन और सॉफ्ट ड्रिंक्स का व्यवसाय करने वाली उक्त सभी कम्पनियां अमेरिका से निकली हुई हैं और इनकी गिनती विश्व के सबसे बड़े ब्रांड के तौर पर होती  है | भारत जैसे देश में जहाँ शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के व्यंजनों में  पाक कला का सर्वोत्कृष्ट रूप देखने मिलता हो और हर प्रदेश की अपनी स्वाद संबंधी विशिष्टता हो , वहां एकरूपता लिए इन  ब्रांडों को भारत जैसे  स्वाद की  बहुलता से सम्पन्न देश ने सहजता से कैसे अपना लिया ये मार्केटिंग के साथ ही समाज विज्ञान के शोधकर्ताओं के लिए विश्लेषण  का विषय है | सॉफ्ट ड्रिंक तो काफी  पहले से भारतीय समाज में पैठ बना चुके थे  लेकिन पिज्जा और चिकेन में ऐसा क्या था जिसके लिए भारत के लोगों ने विदेशी ब्रांड को पैर ज़माने की जगह दे दी |

दरअसल ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की अनाप - शनाप कमाई का असर है | उनके प्रचार का बजट अकल्पनीय और रणनीति बेहद आक्रामक होने से आम जनता के दिमाग में ये बात बिठा दी जाती है कि उनका उपयोग करते ही आप वैश्विक सोच से जुड़ जाते हैं | भारत में पेप्सी ने पहले कुछ वर्षों तक पूरी कमाई प्रचार और  मार्केटिंग पर खर्च कर दी | क्रिकेट विश्व कप जैसे  आयोजन को प्रायोजित कर उसने भारतीय जनमानस में अपने लिए स्थायी जगह बना ली | कोका कोला तो पहले से ही जाना पहिचाना नाम था | ये दोनों  स्वास्थ्य वर्धक कुछ न होने के बाद भी  जिस तरह पैसा कमाते हैं वह चिन्तन का विषय हैं |

यही हाल पिज्जा और चिकेन बेचने वाली कम्पनियों का भी है जो समाज के अभिजात्य वर्ग से होते हुए भारत के विशाल मध्यमवर्गीय घरों में भी घुस गईं | 20  मिनिट में होम डिलीवरी न होने पर कीमत नहीं लेने जैसा तरीका उनका ट्रम्प कार्ड बन गया | ये चुटकुला तक चल पड़ा कि भारत में पुलिस , एम्बुलेंस , फायर ब्रिगेड के आने में भले देर हो जाए  लेकिन पिज्जा कम्पनी की डिलीवरी में देर नहीं  हो सकती | कहने का आशय ये है कि इन विदेशी ब्रांडों के कारण हम आज भी मानसिक तौर पर विदेशी श्रेष्ठता के सामने बौने बने हुए हैं |

दरअसल ये विदेशी ब्रांड ही नव उपनिवेशवाद के औजार हैं | इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के  संचालन में भारतीय मूल के लोगों को उच्च पदों पर रखकर भारतीय उपभोक्ताओं को  भावनात्मक तौर पर प्रभावित करने का खेल चलता है | अनेक देशों में तो ये वहां की सत्ता तक को अपने प्रभाव क्षेत्र में ले लेते हैं | जिस जनता पार्टी की  सरकार ने कोका कोला को भारत से निकाल बाहर किया उसी से जुड़े मंत्री ने 1989  में जनता दल सरकार के समय पेप्सी को अनुमति दी |

ये ब्रांड केवल खाने पीने , परिधान , फैशन , सौदर्य के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहते | उनके देश के  नर्तक , गायक , खिलाड़ी , अभिनेता , फ़िल्में सभी ब्रांड बना दी जाती हैं | मायकल जैक्सन के एक शो के लिए मुम्बई पागल हो गई थी और भारतीय संस्कृति के संरक्षक बने स्व.बाल ठाकरे को उसका समर्थन था | चाहे बीटल्स का कार्यक्रम  हो या जुबिन मेहता का आर्केस्ट्रा | हम भारतीय केवल उनकी ब्रांड छवि को प्रतिष्ठा सूचक मानकर पीछे चल पड़ते  हैं | इसीलिये भारत में करोड़ों कमाने और अवार्ड दर अवार्ड जीतने के बावजूद भारतीय फिल्मकार ऑस्कर जीतने के लिए घुटनों के बल खड़े होने तैयार रहते हैं |

कोरोना संकट के कारण अचानक ग्लोबल ब्रांड के मुकाबले भारतीय उत्पादों को खड़ा करने पर बहस शुरू हो  गई | आरोप - प्रत्यारोप , व्यंग्य , कटाक्ष  का दौर  भी चल पड़ा | लेकिन राजनीति से तनिक हटकर देखें और सोचें तो जिन विदेशी ब्रांडों का यहाँ जिक्र हुआ क्या वे भारत की जरूरत थे या जबरन जरूरत बनाये गए ? जिस चीज में हम पीछे हों वहां तो विदेशी विकल्प का औचित्य है भी किन्तु अमूल जैसे भारतीय ब्रांड ने दिखा दिया कि  गुणवत्ता बनाये रखते हुए आत्मविश्वास के साथ मैदान में उतरा जाये तो अंतर्राष्ट्रीय ब्रांडो को शिकस्त दी जा सकती है |

हमें केवल अपनी मानसिकता बदलते हुए हीन भावना को  त्यागने  के  साथ ही मिथ्या श्रेष्ठता की चकाचौंध से भी बचना होगा | आने वाला दौर राष्ट्रीय बनाम बहुराष्ट्रीय के मुकाबले का होगा | कोरोना  के बाद की दुनिया में अलग तरह  के शीतयुद्ध के साथ ही अभिनव शक्ति संतुलन देखने मिलेंगे | ऐसे में प्रधानमंत्री न कहें तब भी हमें भारत को  एक विश्वसनीय वैश्विक ब्रांड बनाने के लिये जुटना होगा  | 135  करोड़ जनता अपने आप में एक विराट उपभोक्ता समूह है जिसके साथ उन करोड़ों अप्रवासी भारतीय मूल के लोगों का भी समर्थन जुड़ सकता है जो दुनिया के कोने - कोने में फैले हुए हैं |

आइये , संकट की इस घड़ी में राजनीति से सर्वथा दूर रहते हुए संकल्प लें कि अब से हमारा ब्रांड भारत होगा और हम सभी इसके जीवंत ब्रांड एम्बेसेडर बनेंगे |  किसी व्यक्ति या विचारधारा से जोड़े बिना राष्ट्रीय सम्मान  को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने का ये अनुष्ठान समय की मांग हैं |

महशर बदायुनी की ये पंक्तियाँ याद रहें :-

अब हवाएं ही करेंगी रोशनी  का फैसला , जिस दिये  में जान  होगी वो दिया रह  जायेगा |

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