Monday 25 May 2020

ग्रामीण भारत में प्रगति के द्वार खुलने का अवसर



कोरोना ने अर्थव्यवस्था को चौपट करने के साथ ही उसमें चारित्रिक बदलाव के रास्ते भी खोल दिए हैं। सबसे बड़ी बात बढ़ते शहरीकरण के दुष्परिणाम झेलकर लौटे विशाल श्रमिक समुदाय में से ज्यादा न सही लेकिन एक हिस्से को तो कम से कम ये समझ में आ ही गया है कि शहरों में सब कुछ होने के बाद भी बहुत कुछ ऐसा नहीं है जो गाँवों में आज भी सहजता से उपलब्ध है। आखिर जिस बदहाली में वे शहरों में गुजारा कर रहे थे , गाँव में वह तो नहीं रहेगी। विचारणीय है कि देश की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाने वाले  कृषि क्षेत्र को बीते लम्बे समय से मजदूरों की किल्लत झेलनी पड़ रही थी। ग्रामीण कुटीर उद्योग के साथ ही परम्परागत हस्त शिल्प भी इससे प्रभावित हुआ। पहले खेती के साथ ही पशु पालन भी अनिवार्य रूप से होता था। खेती में बैल का उपयोग ज्यों-ज्यों कम होता गया आम किसान अपनी प्रिय गैया पालने से भी किनारा करने लगा। गाँव में दूध खरीदने का रिवाज ही नहीं था। अनेक किसानों ने ये स्वीकार किया कि गाय या भैंस उनके लिए आर्थिक दृष्टि से बेहद लाभप्रद हो सकती हैं। लेकिन नई पीढ़ी का खेती बाड़ी से उचटता मन और फिर गाँव छोड़ शहर चले जाने से उनके पास सहायक का अभाव हो गया। एक समय ऐसा था जब किसान की पत्नी और बच्चे भी मिलकर कृषि और उससे जुड़े समस्त कामों में हाथ बंटाते थे। शिक्षा और आधुनिकता के प्रसार ने भी कृषक परिवारों में कृषि के प्रति अरुचि पैदा की और ग्रामीण युवा भी शहरी ढंग में रंग गये। परिणाम ये हुआ कि खेती के प्रति पहले जैसा समर्पण भाव क्रमश: घटता गया। अनेक बड़े किसान अपनी खेती को अधबटाई पर देने लगे। पशुपालन से मुंह मोड़ लिया गया। इस वजह से जैविक की बजाय रासायनिक खाद का उपयोग मजबूरी बनी , जिसकी वजह से कहने को उत्पादकता तो बढ़ी लेकिन उससे लागत मूल्य बढ़ने के अलावा गुणवत्ता में कमी आई। इसका प्रमाण जैविक उत्पादनों की बढ़ती मांग है। कोरोना संकट से पैदा हुए हालात के बाद शहरों से श्रमिकों के पलायन के उपरान्त ही ये आशंका हुई कि इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा और बेरोजगारी की भयावहता सामने आयेगी। अपराध और अराजकता में वृद्धि का भी खतरा जताया जाने लगा। सतही तौर पर ये आकलन गलत नहीं था किन्तु जब इसके सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान दिया गया तब ये तथ्य भी उभरकर सामने आने लगा कि न सिर्फ  देश के अन्य शहरों वरन विदेशों से अपने गाँव लौटे अनेक सुशिक्षित युवा भी पशुपालन के माध्यम से दुग्ध उत्पादन का व्यवसाय करने का मन बना रहे हैं। इसका कारण गांवों में अचानक से बढ़ा मानव संसाधन है। शहरों से ठुकराए जाने के कारण श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग इस बात को समझ चुका है कि गाँव भी उन्हें रोटी दे सकता है और वह भी कहीं ज्यादा इज्जत के साथ। और अब ग्रामीण इलाके सड़क और संचार के मामले में शहरों जैसे ही हैं। बिजली ने भी जीवन शैली में काफी बदलाव किये हैं। ऐसे में यदि शासन-प्रशासन और निर्वाचित जनप्रतिनिधि ईमानदारी से समन्वित प्रयास करें तो ग्रामीण भारत फिर से अपने पुराने सुनहरे दिनों को जीने के करीब पहुंच सकता है। शहरों के भीड़ भरे माहौल के बीच असंगठित की श्रेणी में बने रहने की बजाय गाँव लौटकर खेतिहर मजदूर बनना ज्यादा सुरक्षित और सुविधाजनक है। इससे जो सबसे बड़ा लाभ हो सकता है वह उद्योगों का ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ  आकर्षित होना , जहां सस्ती जमीन और मजदूर के अलावा शुद्ध पर्यावरण भी  है। शासन इन इलाकों में उद्योगों को भारी अनुदान भी देता है। और अब तो ग्रामीण क्षेत्रों तक सड़क, बिजली, मोबाईल फोन के साथ इंटरनेट सुविधा भी सहज उपलब्ध है। यदि इस सबका लाभ उठाते हुए कोरोना की आपदा को अवसर में बदलने के प्रधानमन्त्री के संकल्प को जमीन पर उतारा जावे तो आने वाले दो-तीन वर्षों में ही भारत के ग्रामीण क्षेत्र औद्योगिक क्रांति के नए केंद्र बन सकेंगे और ऐसा होना भारत की अर्थव्यवस्था के मेरुदंड को मजबूत करने में सहायक होगा। कोरोना पीड़ित जो श्रमिक वर्ग गाँव लौटा है उसे ये समझाए जाने की जरूरत हैं कि शहर के 500 से गाँव के 300 कहीं बेहतर हैं। बीते कुछ दशकों में शहरों पर आबादी का बोझ जहाँ बढ़ा वहीं गांवों के उजड़ने का दौर शुरू हो गया। एक ज़माने में श्रमिक केवल अकेला जाता था जबकि उसका परिवार गाँव में ही रहता। कालान्तर में उसने सपरिवार जाना शुरू कर दिया और यहीं से गाँवों का सामाजिक और आर्थिक ढांचा गड़बड़ होना शुरू हो गया। कोरोना की त्रासदी ने शहरों विशेष तौर पर महानगरों में रह रहे श्रमिकों को जिस तरह उनके अधिकार से वंचित करने के साथ ही प्रताड़ित और अपमानित किया गया, उसके घाव उनके मन-मष्तिष्क पर बहुत गहरे हैं। इसके पहले कि उनके नहीं लौटने की स्थिति में ग्रामीण इलाके बेरोजगारों का संग्रहालय बन जायें वहां उद्योग-व्यवसाय स्थापित करने का काम युद्धस्तर पर शुरू हो जाना चाहिए। प्राथमिकता तो कृषि आधारित उद्योगों को ही दी जाए। साथ ही कृषकों को भी खेती के काम में पूरा ध्यान देने हेतु प्रेरित और प्रोत्साहित किया जावे। सही मायने में ये समय देश में सकारात्मक बदलाव का है। यदि ये सही रूप में किया जा सका तो शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में जो विषमता है उसे दूर करना मुश्किल नहीं होगा। सबका साथ, सबका विकास नारे के पीछे भी यही मंशा है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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