Wednesday 31 January 2018

बजट : चुनाव के दबाव में राहत की उम्मीद


आर्थिक समीक्षा पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जो तस्वीर पेश की उसमें आगामी वित्तीय वर्ष को बेहद आशाजनक बताते हुए विकास दर 7.5 प्रतिशत रहने का जो दावा किया गया उसके बाद से आम जनता ही नहीं उद्योगपति, व्यापारी, किसान और नौकारपेशा वर्ग को भी अच्छे दिन आने के नए-नए सपने आने लगे हैं। आज सरकारी क्षेत्र की तेल कम्पनी इंडियन ऑयल के जो नतीजे आए हैं उनके अनुसार कम्पनी ने बीते समय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आई गिरावट का लाभ लेकर जबरदस्त मुनाफाखोरी की जिससे उसका खजाना लबालब हो गया। सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य उद्यमों ने भी जनता की जेब काटने में कोई संकोच नहीं किया चाहे वे बैंक ही क्यों न हों जो एनपीए के बाद भी जमकर कमाई करने में कामयाब रहे। इसका छोटा सा प्रमाण भारतीय स्टेट बैंक द्वारा न्यूनतम बैलेंस न रखने पर चार्ज के तौर पर वसूले गए तकरीबन 2 हज़ार करोड़ रुपये हैं। इसमें दो मत नहीं है कि बीते तीन वर्ष में मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में दूरगामी लाभ की दृष्टि से चाहे कितने भी अच्छे कदम उठाए हों किन्तु बिना लागलपेट के ये कहा जा सकता है कि उन सबका तात्कालिक तौर पर अपेक्षित लाभ नहीं हुआ या जिससे 2014 के चुनाव में दिखाया गया अच्छे दिनों का सपना पूरा होना तो दूर दु:स्वप्न साबित होता लगा। नोटबन्दी और जीएसटी जैसे कदम निश्चित रूप से क्रांतिकारी और काफी हद तक दुस्साहसी भी कहे जाएंगे जिनका फायदा भविष्य में जरूर मिलेगा लेकिन उससे कारोबारी जगत की मुसीबतें तो बढ़ीं ही आम जनता भी उससे कहीं प्रत्यक्ष और कहीं परोक्ष रूप से प्रभावित हुई। जीएसटी को लागू करने में कांग्रेस ने जो अड़ंगेबाजी की उसकी वजह से उसके जो लाभ अब तक आ जाना चाहिए थे वे नहीं आ सके और ऊपर से केंद्र सरकार पर बिना सोचे-समझे जल्दबाजी में उठाए गए कदम के तौर पर उसकी आलोचना हुई। गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन की एक वजह जीएसटी को लेकर उत्पन्न पेचीदगियां भी रहीं। यदि चुनाव के पहले जीएसटी की दरों और शर्तों में कुछ सुधार और बदलाव न हुए होते तो बड़ी बात नहीं गुजरात भाजपा के हाथ से निकल गया होता। चूंकि इस साल आधा दर्जन राज्यों के विधानसभा और फिर अगले वर्ष लोकसभा चुनाव होने हैं इसलिए केंद्र सरकार के समक्ष जनता को लुभाने और अपनी संवेदनशीलता साबित करने के लिए कल 1 फरवरी को पेश होने वाला बजट आखिरी अवसर है। यद्यपि किसी भी वित्तमंत्री को जनता की नजरों में चन्द अपवाद छोड़कर लोकप्रियता नहीं मिली लेकिन अरुण जेटली जनता की नजरों में कुछ ज्यादा ही गिर गए। उन पर अमीरों को लाभ पहुंचाने वाले वित्तमंत्री होने का आरोप लगता रहा है। इसी वजह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ईमानदार छवि के बावजूद उनकी सरकार के प्रति उसके परंपरागत समर्थकों में भी निराशा सतह पर महसूस की जा सकती है। यही सब देखते हुए उम्मीद है कि अपने अंतिम पूर्ण बजट में भले ही मोदी सरकार खैरातों की बारिश न करे किन्तु जनता को निराश और नाराज नहीं करेगी। जैसा कि वित्तीय हल्कों में कहा जा रहा है कि जीएसटी के बाद अब बजट में वित्तमंत्री के पास सिवाय नीतिगत निर्णयों के खास करने को कुछ बचा नहीं है क्योंकि विभिन्न वस्तुओं और सेवाओं पर लगने वाले करों की दरें तो जीएसटी काउंसिल के अधिकार क्षेत्र में चली गईं किन्तु आयकर सहित कृषि और उद्योग को बढ़ावा देने सम्बन्धी नीतियों को लेकर अभी भी सरकार काफी कुछ कर सकती है। इसी तरह पेट्रोल-डीजल जो जीएसटी से बाहर हैं उनकी आसमान छूती कीमतों पर मुनाफाखोरी कम करने का अधिकार भी सरकार के हाथ में है। अब चूंकि विकास दर 7.5 प्रतिशत होने की उम्मीद श्री जेटली ने आर्थिक समीक्षा में संसद के सामने व्यक्त कर दी है इसलिए हर किसी को ये आशा है अपने दावे को मजबूती देने के लिए वे बजट में ऐसा कुछ जरूर करेंगे जिससे उनकी और सरकार की छवि में गुणात्मक सुधार हो सकेगा। हालांकि सरकार के पास सीमित विकल्प ही हैं लेकिन हमारे देश में अर्थशास्त्र पर चूंकि राजनीति का दबाव बना रहता है और किसी नेता की सफलता उसकी चुनाव जिताने की क्षमता से आंकी जाती है इसलिए ये कहना गलत नहीं होगा कि कल अरुण जेटली मोदी सरकार की उदारता की पराकाष्ठा करते हए जनता को गदगद करने की कोशिश करेंगे। प्रधानमंत्री गत दिवस संसद में ये संकेत दे ही चुके हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 30 January 2018

एक साथ चुनाव : अच्छा सुझाव


कुछ दिनों पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की जरूरत बताते हुए उससे होने वाले फायदे गिनाए थे। 1967 तक यही होता रहा किन्तु संविद सरकारों के बनने और गिरने के कारण एक तो राज्यों में अस्थिरता आई और फिर 1969 में कांग्रेस के विभाजन से उत्पन्न राजनीतिक परिस्थितियों से निपटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1971 में लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव करवा दिया। उसके बाद चुनाव का कैलेंडर जो गड़बड़ाया तो आज तक व्यवस्थित नहीं हो सका। इसके लिये कौन ज्यादा दोषी है और कौन कम ,  इस बहस में समय गंवाने की बजाय बेहतर यही होगा कि समस्या का समुचित निदान ढूढऩे का प्रयास हो। श्री मोदी ने जो मुद्दा छेड़ा उसके राजनीतिक निहितार्थ अपनी जगह हैं किंतु निष्पक्ष आकलन हो तो देश के अधिकतर लोग चाहते हैं कि लगातार चलने वाले चुनाव के चक्र  से देश को बाहर निकाला जावे। गत दिवस संसद के बजट सत्र का शुभारंभ करते हुए दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में अभिभाषण देते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी एक साथ चुनाव का जो सुझाव दिया उसे मोदी सरकार की कार्ययोजना का हिस्सा मानकर उससे जुड़ी सम्भावनाओं का आकलन शुरू हो गया है। राजनीतिक क्षेत्रों में ये कयास लगाया जा रहा है कि प्रधानमन्त्री इस मुद्दे को राष्ट्रीय बहस का विषय बनाकर जनमत को अपनी तरफ  मोडऩा चाहते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों को मानना है कि भाजपा शासित जिन बड़े राज्यों में लोकसभा के पहले चुनाव होना हैं वहां भाजपा को सत्ता विरोधी रुझान का शिकार होने का खतरा है। यदि पार्टी वहां गुजरात की तरह अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो 2019 की बड़ी लड़ाई में उसे परेशानी झेलनी पड़ेगी। प्रधान मंत्री समझ रहे हैं कि 2014 जैसा उन्मादी समर्थन दोबारा हासिल करना कठिन होगा इसलिये मतदाताओं के सामने एक ऐसा मुद्दा लेकर जाया जाए जो राजनीतिक होते हुए भी राजनीतिक न लगे। अपने टीवी साक्षात्कार में उन्होंने लगातार चुनाव चलते रहने के आर्थिक, प्रशासनिक और व्यवहारिक नुकसान बताए थे। कोई भी व्यक्ति इस बारे में असहमत नहीं होगा कि पूरे पांच साल चुनाव का चक्र चलने से केंद्र सरकार अपनी नीतियों को लागू नहीं कर पाती। नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने के  बाद से लगातार चुनाव प्रचार में बहुत ज्यादा समय और शक्ति खर्च करनी पड़ी। प्रतिवर्ष किसी न किसी राज्य में चुनावी डुगडुगी बजने की वजह से प्रधानमंत्री पर जो दबाव बना रहता है उससे नीतिगत निर्णयों को लागू करने में अनेकानेक परेशानियां आया करती हैं। क्षेत्रीय भावनाओं का सम्मान करने के दबाव में तात्कालिक कुछ ऐसे काम भी करना पड़ जाते हैं जिनका दूरगामी परिणाम देश के लिए नुकसानदेह होता है। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक पार्टियां इन बातों से अनभिज्ञ हैं किन्तु अपने फायदे के लिए देशहित को ताक पर रखने की जो प्रवृत्ति राजनीतिक बिरादरी पर हावी हो गई उसकी वजह से हर पार्टी केवल अपने फायदे में उलझकर रह गई है। इसके लिए केवल क्षेत्रीय दल और उनके नेता ही दोषी नहीं वरन राष्ट्रीय पार्टियां भी बराबर की कसूरवार हैं जिन्होंने अपने क्षणिक लाभ के लिए अनुचित समझौते और सौदेबाजी से कभी परहेज नहीं किया। एक साथ लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव करवाना यद्यपि आज की स्थिति में आसान नहीं लगता लेकिन कभी न कभी तो ये करना ही पड़ेगा। इसलिये बेहतर है प्रधानमंत्री द्वारा की जा रही पहल का न सिर्फ  स्वागत अपितु समर्थन भी किया जावे। वर्ष 2018 में ही आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों के चुनाव होने हैं जिनके निबटते ही लोकसभा और उसके साथ ही कुछ राज्यों के चुनाव होंगे। उसके तुरन्त बाद फिर वही क्रम शुरू हो जावेगा। इस प्रक्रिया में भले ही राजनीतिक दलों के अपने स्वार्थ सिद्ध होते हों किन्तु हर समय चुनाव होते रहने से उद्योगपतियों पर भी चंदे का जो अतिरिक्त दबाव बना रहता है वह भी भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत है। ये बात भी सर्वविदित है कि चुनाव और कालाधन का चोली दामन का साथ है। चुनाव आयोग की सख्ती के बावजूद भी चुनाव का खर्च बढ़ता चला जा रहा है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में खर्च की जो सीमा तय की गई है उसमें तो साक्षात प्रभु भी चुनाव  नहीं लड़ सकेंगे। इसलिये बेहतर होगा इस बारे में देशहित को ध्यान में रखकर विचार करते हुए निर्णय किया जावे। विधि विशेषज्ञों के मुताबिक जैसा प्रधानमन्त्री चाह रहे हैं वैसा करने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा जिसके लिए राज्यसभा में भाजपा का बहुमत न होने से जब तक कांग्रेस एवं अन्य छोटे दल समर्थन न करें तो वह सम्भव नहीं होगा। इस सम्बंध में अनेक सुझाव भी आए हैं जिन पर गहराई से विचार करने के उपरांत निर्णय लेना समय की मांग है। लोकसभा के साथ भाजपा एवं दूसरी पार्टियों के शासन वाले कुछ राज्यों के चुनाव करवाने पर सहमति बनने की खबर राजनीतिक क्षेत्रों में तेज होने से हलचलें बढ़ गईं हैं। ये भी चर्चा है कि कुछ विधानसभाओं के चुनाव समय से पहले और कुछ थोड़े आगे सरकाकर लोकसभा के साथ करवाने की रणनीति प्रधानमंत्री ने बना ली है। यदि ये कामयाब रही तो फिर बचे हुए राज्यों के चुनाव भी एक साथ करवाकर रोज-रोज के चुनाव चक्र से देश को राहत दिलवाने का रास्ता खुल सकता है। सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपने निहित स्वार्थों को कुछ समय के लिए भुलाकर देश के व्यापक हितों को प्राथमिकता दें। चुनाव लोकतंत्र की आधारभूत आवश्यकता है। उसे रोकना तो तानाशाही को आमंत्रण देना होगा किन्तु भारत सदृश विशाल देश में बार-बार होने वाले चुनाव एक तरह का बोझ या यूँ कहें कि बीमारी बन गई है जो तरह - तरह की समस्याओं को जन्म देती है। सबसे बड़ी बात इसकी वजह से केंद्र सरकार की नीतियों और योजनाओं को लागू करने में उत्पन्न होने वाले अवरोधक हैं। राज्यों के चुनाव अलग-अलग होने से नए-नए दबाव समूह उभरते हैं और वोट बैंक की लालच में राजनीतिक दलों को उनके आगे झुकना पड़ता है। इन सबसे बचने के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के अभिभाषण में व्यक्त सुझाव पर समयबद्ध राष्ट्रीय बहस के उपरांत समुचित फैसला पूरी तरह उचित होगा। राजनीतिक दलों के बीच भले ही इसे लेकर एक राय नहीं हो किन्तु जहां तक जनता का प्रश्न है तो वह भारी बहुमत से लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ करवाने की पक्षधर है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 29 January 2018

देखें कितने सांसद मानते हैं वरुण की सलाह ------------------------------------


भाजपा में वरुण गांधी की हैसियत राहुल गांधी जैसी न थी, न है। उप्र विधानसभा के पिछले चुनाव में पार्टी ने उन्हें स्टार प्रचारक तक नहीं बनाया था। बीच में खबर उड़ गई कि वे राहुल गांधी के संपर्क में हैं और लोकसभा चुनाव के पहले काँग्रेस में चले जायेंगे। फिलहाल तो ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा क्योंकि वरुण की माँ मेनका गांधी मोदी सरकार में मंत्री बनी हुई हैं और उनके हटने की भी कोई सम्भवना नजर नहीं आ रही। वरुण वतर्मान में उप्र की जिस सुल्तानपुर सीट के लोकसभा सदस्य हैं वह राहुल के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी और सोनिया गांधी की लोकसभा सीट रायबरेली से सटी होने से काफी महत्वपूर्ण है। वरुण की गिनती तेजतर्रार युवाओं में होती रही है जो अपने तीखे बयानों और भाषणों के कारण चर्चा और विवाद दोनों में बने रहते थे। उन्हें लगता था कि भाजपा उन्हें उप्र में पार्टी का चेहरा बनाकर गांधी के मुकाबले गांधी उतारने की नीति पर चलेगी लेकिन वरुण को निराशा मिली। बीते काफी समय से वे खबरों में भी नहीं रहे इसलिये भाजपा से उनकी नाराजगी की खबरों को सच भी माना जाने लगा लेकिन गत दिवस एक बयान आया जिसने एक बार फिर वरुण को चर्चा के केन्द्र में ला दिया। सम्पन्न सांसदों से वेतन छोडऩे की उनकी अपील निश्चित रूप से  जनभावनाओं की अभिव्यक्ति ही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील पर देश के कई करोड़ लोगों ने जब रसोई गैस पर मिलने वाली सब्सिडी त्यागी तब भी ये उलाहना काफी उछला था कि जनता से ही त्याग की अपेक्षा क्यों? उसी संदर्भ में लोगों ने संसद भवन की कैंटीन में मिलने वाले सस्ते भोजन पर सवाल उठाते हुए कहा था कि लाखों रु. प्रतिमाह कमाने वाले सांसद यदि अपने वेतन-भत्तों और अन्य सुविधाओं में से कुछ का परित्याग करें तो आम जनता भी उससे प्रेरित होगी। वरुण गांधी ने बढ़ती आर्थिक विषमता का प्रश्न उठाते हुए कहा कि संसद में करोड़पति सदस्यों की संख्या में हुए इजाफे के मद्देनजऱ ये अपेक्षा है कि बचे हुए कार्यकाल में वे अपना वेतन छोड़ दें। पता नहीं वरुण की अपील पर उनकी पूज्य माता जी भी ध्यान देंगीं या नहीं लेकिन देश के करोड़ों लोग अपेक्षा करते हैं कि आर्थिक तौर पर हर तरह से सम्पन्न साँसदों को वेतन का त्याग करना चाहिए। इससे भी बढ़कर तो जनअपेक्षा है कि जो संसद सदस्य वाकई करोड़पति हैं उन्हें बतौर सांसद मिलने वाली अन्य सुविधाओं का भी परित्याग करना चाहिए। वैसे ये मान लेना सही नहीं है कि 50-100 सांसद अगर वरुण की अपील का संज्ञान लेते हुए वेतन-भत्ते सहित कुछ सुविधाएं और रियायतें छोड़ भी देते हैं तो उससे देश की आर्थिक बदहाली पलक झपकते दूर हो जाएगी लेकिन इसका प्रतीकात्मक असर जरूर होगा और वह भी बेहद सकारात्मक, क्योंकि कोई माने या न माने किन्तु जनप्रतिनिधियों को लेकर आम जनता के मन में पहले जैसा सम्मान नहीं बचा तो उसकी प्रमुख वजह उनकी छवि लोकतन्त्र के सामन्त सरीखी बन जाना है। यद्यपि कुछ सांसद और विधायक ऐसे भी होंगे जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है किंतु जो जानकारी आई उसके  मुताबिक तो अधिकतर लोकसभा सदस्य ऐलानिया तौर पर करोड़पति हैं। वरुण ने लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को पत्र लिखकर उनसे अनुरोध किया है कि वे आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न सांसदों से वेतन का परित्याग करने की अपील करें। पता नहीं सुमित्रा जी उसका कितना संज्ञान लेंगी किन्तु यदि वे ऐसा करें तो इससे सांसदों की छवि तो सुधरेगी ही, लोकतंत्र में लोगों की आस्था भी बढ़ेगी तथा शासक और शासित के बीच का अंतर मिटने की प्रक्रिया शुरू होगी। कहते हैं वामपंथी दलों के सांसदों को अपना वेतन पार्टी में जमा कराना होता है। पार्टी उन्हें घर खर्च चलाने हेतु एक निश्चित राशि लौटा देती है। ये एक आदर्श व्यवस्था है जिसमें कि जनप्रतिनिधि को सदैव ये एहसास होता रहता है कि वह एक विचारधारा से निर्देशित और नियंत्रित होता तथा जनता का सेवक है, मालिक नहीं। वरुण गांधी का सुझाव ऐसे समय आया है जब सांसदों के प्रति आम जन में ये धारणा गहराई तक समा गई है कि उनको जनता की तकलीफों से लेशमात्र भी लेना-देना नहीं है और वे केवल अपनी सुख-सुविधाएं बढ़ाने के बारे में सोचा करते हैं। बतौर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह मात्र एक रूपया वेतन लेते थे। कई जनप्रतिनिधि ऐसे भी हैं जो वेतन की राशि अपने निर्वाचन क्षेत्र में गरीब लड़कियों के विवाह अथवा निर्धन छात्रों की शिक्षा पर खर्च करते हैं लेकिन ये पुण्य कार्य करने वाले सांसद-विधायक मु_ी भर भी नहीं होंगे। उस दृष्टि से वरुण ने जो बात कही वह सामयिक और सही है। कह सकते हैं कि मात्र इतने से ही आर्थिक विषमता दूर नहीं की जा सकेगी किन्तु इसका अच्छा असर पड़ेगा ये मानने में कुछ भी गलत नहीं है। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटकर जब अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई का निर्णय किया तो सबसे पहले बैरिस्टर वाली वेशभूषा त्यागकर साधारण लोगों जैसे वस्त्र और जीवन शैली को अपनाया जिसका जबरदस्त असर हुआ। दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद गांधी जी के अनुयायी ही उनके बताए रास्ते से भटकते चले गए। ऐसा ही हुआ जनसंघ और अब भाजपा के साथ जो दीनदयाल उपाध्याय को आदर्श मानने का दिखावा चाहे जितना करे किन्तु उनके आदर्शों के प्रति पार्टी के सांसद - विधायकों की अनदेखी किसी से छिपी नहीं है। पता नहीं वरुण गांधी के अनुरोध और अपील को कितनी तवज्जो मिलती है किन्तु यदि भाजपा के ही दस - बीस सम्पन्न सांसद वरुण की अपेक्षानुरूप वेतन और अन्य सुविधाएं छोड़ दें तो बाकी पर भी दबाव बनेगा। सब्सिडी के नाम पर सरकारी खजाने की जो लुटाई हो रही है उसे रोकने के लिए प्रधान मन्त्री ने कई ऐसे कदम उठाए जिनकी वजह से उन्हें आलोचना और अलोकप्रियता झेलनी पड़ी किन्तु यदि वे भाजपा सांसदों और विधायकों को वरुण गांधी की अपील पर अमल करने राजी कर सकें तो उनके कड़े कदमों की भी सराहना होने लगेगी। करोड़ों लोगों द्वारा प्रधान मंत्री की अपील पर रसोई गैस सब्सिडी छोड़ दी गई थी। देखना है कि यदि वे अपील करें तब बाकी तो छोडिय़े भाजपा के ही कितने सांसद वेतन सहित अन्य सुविधाएं त्यागने का साहस जुटा पाते हैं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 27 January 2018

पत्थरबाजों पर रहम देशहित में नहीं

गणतंत्र दिवस पर जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने वाले हज़ारों युवकों पर चल रहे मुकदमे वापिस लेने की घोषणा कर दी । राज्य के डीजीपी द्वारा दी गई रिपोर्ट के आधार पर की गई इस कार्रवाई ने सियासी तूफान खड़ा कर दिया है । घाटी के भीतर आतंक प्रभावित कुछ जिलों में सुरक्षा बलों की सख्ती से पत्थरबाजी में कमी आई थी । पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने गहराई से खोजबीन करते हुए बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां करने के बाद अपराधिक प्रकरण दर्ज किए थे । पत्थरबाजी के लिए भुगतान करने वाले आतंकवादियों के मददगारों पर छापेमारी की गई । हुर्रियत नेताओं पर भी शिकंजा कसा गया । इन सबका सुपरिणाम ये हुआ कि एक तरफ  जहां पत्थरबाजी की घटनाएं तकरीबन रुक गईं वहीं बड़ी संख्या में युवक आतंकवाद की राह छोड़कर मुख्यधारा में लौटने लगे । पुलिस की भर्ती में  जिस तरह से भीड़ उमड़ी उससे भी सुरक्षा बलों की कार्रवाई का अनुकूल असर महसूस हुआ । लेकिन दूसरी तरफ ये दबाव भी आने लगा कि पत्थरबाजी में पकड़े गए युवकों पर मुकदमे लगे रहने से उनके मन में गुस्सा और पनपेगा जिससे शांति प्रक्रिया बहाल करने में रुकावट आएगी । डीजीपी द्वारा की गई सिफारिशों को स्वीकार करते हुए मुख्यमंत्री ने गणतंत्र दिवस पर हजारों पत्थरबाजों से मुक़दमे वापिस लेने का ऐलान करते हुए उम्मीद जताई कि इससे विश्वास का माहौल बनेगा लेकिन इस फैसले की राष्ट्रीय स्तर पर जो प्रतिक्रिया हुई उसके आधार पर कहा जा सकता है कि हजारों पत्थरबाजों को थोक के भाव माफ कर देना लोगों को रास नहीं आया । अधिकतर लोगों का मानना है कि इससे सुरक्षा बलों का मनोबल घटेगा वहीं इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अपराधमुक्त कर देने के बाद ये युवक दोबारा आतंकवाद के रास्ते पर नहीं लौटेंगे। हुर्रियत के जो नेता नजरबंद हैं या उनकी गतिविधियों पर रोक लगा दी गई है उनका मन बदल गया हो ऐसी बात भी नहीं हैं। ये जरूर हुआ कि नोटबन्दी और उसके बाद मारे गए छापों में आतंकवादियों की वित्तीय मदद करने वाले चेहरे सामने आने से पत्थरबाजों को भुगतान मिलना बंद हो गया । लेकिन इतने मात्र से वे आतंकवादियों की मदद करना बंद कर देंगे ये सोच लेना सच्चाई से मुंह मोडऩे जैसा होगा । यही वजह है कि महबूबा मुफ्ती की उक्त घोषणा से राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा बगलें झांकने  मजबूर हो गई।  उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि वह इस पर क्या कहे और क्या करे क्योंकि हज़ारों पत्थरबाजों से एकमुश्त मुकदमे हटाने के फैसले का समर्थन करने पर केंद्र सरकार की कश्मीर नीति पर उठ रहे सवाल और भी पैने हो जाएंगे  वहीं वह विरोध करती है तब राज्य सरकार में उसकी  बराबरी से चल रही हिस्सेदारी पर नए सिरे से उंगलियां उठने लगेंगी। कुल मिलाकर भाजपा के लिए ये उगलत निगल पीर घनेरी वाली स्थिति है । लेकिन मौन या निर्विकार  रहना भविष्य के खतरों को अग्रिम आमंत्रण देने जैसा होगा । महबूबा मुफ्ती दरअसल इस तरह के निर्णय लेकर अगले चुनाव की तैयारियों में जुट गईं हैं। ये कहने में कुछ भी अटपटा नहीं है कि कश्मीर घाटी में आज भी अलगाववाद की जड़ें बहुत गहरी हैं । पीडीपी और नेशनल कांफ्रेस ऊपर से कितना भी दिखावा करें किन्तु असलियत में दोनों के मन काली हैं । यही वजह है कि कश्मीर की विशेष स्थिति और धारा 370 को हटाने की चर्चा मात्र से अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार भनभनाने लगते हैं । मजबूरी ये है कि कांफ्रेंस और भाजपा दोनों घाटी के भीतर अप्रासंगिक हैं जिससे कश्मीर को मुख्य धारा में लाकर अलगाववाद की जड़ों में मठा डालने का काम शुरू ही नहीं हो पाता । यही वजह है कि कांग्रेस कभी अब्दुल्ला तो कभी मुफ्ती परिवार की दुमछल्ला बनने मजबूर होती रही और अब उसी स्थिति को भाजपा झेलने बाध्य है । यद्यपि पीडीपी से हाथ मिलाने का उसका फैसला  दूरगामी रणनीति के लिहाज से ठीक था और उससे राज्य  के प्रशासन में पहली बार उसकी घुसपैठ हो सकी जिस वजह से आतंकवाद से सख्ती से निपटने में भी आसानी हुई वरना पत्थरबाजी रोकना असम्भव लगने लगा था । मेहबूबा भी अपने पिता के चले जाने के बाद खुद को असुरक्षित महसूस करने की वजह से भाजपा का साथ छोडऩे का साहस नहीं कर पा रहीं किन्तु मौका पाते ही वे ज़हरीला डंक मारने से भी नहीं बाज आतीं। अभी तक ये स्पष्ट नहीं है कि पत्थरबाजों से प्रकरण वापिस लेने में भाजपा की कितनी सहमति थी किन्तु इस फैसले ने पार्टी के लचरपन को उजागर कर दिया है । विरोधियों को तो चलो छोड़ भी दें किंतु भाजपाई भी मानते हैं कि अब उसे महबूबा से गठबंधन तोड़ देना चाहिए क्योंकि इससे कश्मीर को लेकर अब तक अपनाई गई उसकी नीतियों की धज्जियां उड़ रही हैं । महबूबा इस समय कमजोर गोटी हैं ।  भाजपा अलग हो जाए तो उनकी गद्दी खतरे में आ जाएगी, जो वे नहीं चाहेंगीं । ये सब देखते हुए जरूरी हो गया है कि भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व कोई ठोस फैसला करते हुए जम्मू कश्मीर के सम्बंध में अपनी मूल नीतियों को लागू करने की दिशा में कदम उठाए वरना ये आरोप सच माना जाएगा कि सत्ता के लिए सिद्धांतो से समझौता करने में भाजपा भी बाकी दलों की तरह ही है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी