Tuesday 16 January 2018

एक और पत्रकार वार्ता की तो बनती है

मकर संक्रांति पर मराठी में शुभकामनाएँ देते हुए कहते हैं ' तिल-गुड़ खाओ, मीठा-मीठा बोलो, लगता है सर्वोच्च न्यायालय के चारों नाराज वरिष्ठ न्यायाधीशों ने भी मकर संक्रांति पर जमकर तिल-गुड़ से बने व्यंजन खाए होंगे तभी बीते शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायपालिका में आया बवंडर एकदम से शांत हो गया। गत दिवस सभी न्यायाधीश दिनचर्या के अनुसार प्रधान न्यायाधीश के कक्ष में आए, एक प्याला चाय पी और अपने काम में लग गए। इस दौरान उनके स्टाफ  को बाहर कर दिया गया था जिससे अंदर क्या कहा-सुना गया ये किसी को नहीं पता। न प्रधान न्यायाधीश इस सुलहनामे पर कुछ बोले और न ही लोकतंत्र पर मंडराते खतरे को टालने पत्रकार वार्ता करने वाले चारों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने एक शब्द किसी से कहा। वकीलों के संगठन ने बहरहाल पूरा श्रेय लूटते हुए दावा किया कि उसके प्रयासों से न्याय के सर्वोच्च स्तर पर व्याप्त मनोमालिन्य दूर हो गया। जिन चार न्यायाधीशों ने शुक्रवार को पत्रकारों से बतियाकर प्रधान न्यायाधीश की कथित स्वेच्छाचारिता के विरुद्ध आसमान सिर पर उठा लिया था वे गत दिवस इस तरह पेश आए मानो कुछ हुआ ही नहीं था। गत रात्रि एनडीटीवी पर रवीश कुमार ने इस पर कटाक्ष करते हुए कहा भी कि समस्या तो सभी को बताई गई किन्तु समाधान को लेकर चुप्पी साध लेना चौंकाने वाला है। अदालत में तमाम विवादों पर निर्णय खुले तौर पर सुनाए जाते हैं। किंतु इस विवाद को देश के  दिग्गज न्यायाधीशों ने जिस तरह बन्द कमरे में  सुलझा लिया उस पर रहस्य का परदा पड़ा होने से कुछ नए प्रश्न उठ खड़े हो रहे हैं। मसलन क्या विवाद उतना बड़ा नहीं था जितना ढिंढोरा पीटा गया और क्या  बार काउंसिल की मध्यस्थता मात्र से वह इत्मिनान से सुलझ गया ? जो मुद्दे चार  न्यायाधीशों ने उठाए उन्हें लेकर पूरा देश मानसिक तौर पर आंदोलित हो गया था। हर स्तर पर उन पर बहस और चर्चा चल पड़ी थी। पक्ष -विपक्ष में तर्कों की बाढ़ आ गई। दिग्गज कानूनविद अपने अनुभव आधारित ज्ञान का पिटारा खोलकर बैठ गए। टीवी चैनलों को भी काम मिल गया लेकिन अंत में सब फुस्सी बम की तरह साबित होकर रह गया जिससे नए तरह के सन्देह उत्पन्न हो रहे हैं। वकीलों के बीच में पडऩे से मामला यदि सुलट गया और 'जैसे थेÓ की स्थिति लौट आई तो इसका भी खुलासा होना चाहिए क्योंकि सन्दर्भित विवाद बार और बैंच का न होकर सीधे-सीधे न्यायाधीशों के बीच का था जिसमें केवल चार न्यायाधीश ही खुलकर सामने आए। हो सकता है उनके समर्थन में दो चार और भी हों किन्तु उनमें बोलने का साहस नहीं हुआ। ये भी सम्भव है क्रांति का  बिगुल फूंककर महानायक बनने निकले चार न्यायाधीशों को लगा होगा कि बाकी के मी लॉर्ड भी पीछे आ जाएंगे किन्तु उनकी उम्मीदें धरी रह गईं। अकेले पडऩे का एहसास होते ही उनके सुर बदल गए। दूसरे दिन ही चार में से दो राग समझौता गाने लग गए। फिर शुरू हुई बार काउंसिल के पदाधिकारियों की भागदौड़ और कल सुबह शोले ठंडे होकर फूल बन गए। अच्छा होता चारों न्यायाधीश फिर पत्रकारों को बुलाकर बताते कि उनकी शिकायतें  दूर हो गईं तथा लोकतंत्र पर मंडराया संकट खत्म हो गया। यदि ऐसा नहीं था तब भी उन्हें ये बताना चाहिए था कि प्रधान न्यायाधीश की चाय में ऐसी कौन सी मिठास थी जिसने बीते कई महीनों से चली आ रही कड़वाहट को चंद मिनटों में चलता कर दिया। ज़ाहिर है प्रधान न्यायाधीश ने उन चारों की बातें मान ली होंगी या फिर इनकार कर दिया होगा। ऐसे में काम पर लौटने वाले चारों न्यायाधीश जीतकर लौटे या मात खाकर ये स्पष्ट हुए बिना अविश्वास के वे बादल छंटेंगे नहीं जो विगत तीन दिन तक मंडराते रहे। पूरे देश को इस विवाद में घसीटकर जनता पर फैसला छोड़ देने के बाद अकेले बैठकर झगड़ा खत्म करने से तो न्यायपालिका के प्रति अविश्वास और बढ़ गया है। वकीलों के मध्यस्थ बनने से तो न जाने कहाँ-कहाँ की बातें होने लगी हैं। इस मुद्दे पर यदि चारों न्यायाधीश नहीं बोलते तो प्रधान न्यायाधीश को सामने आकर बताना चाहिए कि समाधान का आधार क्या बना? चारों न्यायाधीशों की मांगें मंज़ूर हुईं या नहीं ये उजागर होना जरूरी है क्योंकि जो कुछ भी उनके द्वारा कहा गया वह कोई मज़ाक नहीं था। जिस बात को  देश की सर्वोच्च न्यायपालिका की पवित्रता और लोकतन्त्र के भविष्य के लिए खतरा बताया गया वह साधरण नहीं हो सकती। चूंकि न्यायाधीश लोया की मौत की सुनवाई अभी भी अरुण मिश्रा ही करेंगे वहीं संविधान पीठ में भी उक्त चारों को न रखे जाने से संकेत मिल रहे हैं कि प्रधान न्यायाधीश ने झुकने से मना कर दिया है। वहीं ये भी कहा जा रहा है कि कल चाय पर चर्चा के दौरान कनिष्ठ न्यायाधीशों ने पत्रकार वार्ता करने वाले न्यायाधीशों को खरी-खोटी सुनाई। ये सब देखते हुए इस विवाद के सभी पहलू सामने आना जरुरी हो गया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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