Monday 22 January 2018

मप्र : चुनाव के मद्देनजर अध्यापकों पर मेहरबानी

मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पूरे प्रदेश के आंदोलनरत अध्यापकों को सरस्वती पूजा पर जो बहुप्रतीक्षित उपहार दिया उसे मज़बूरी में की गई मेहरबानी ही कहना सही होगा। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह शिक्षकों को गुरुजी और शिक्षा कर्मी बनाकर इस पवित्र पेशे की जो दुर्दशा कर गए थे उसे शिवराज जी ने अध्यापक नाम देकर कुछ सुधारा जरूर लेकिन उनकी नियुक्ति शहरों में नगरीय प्रशासन और ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायत विभाग के अंतर्गत होने से शासकीय शिक्षक और अध्यापक के बीच ज़मीन-आसमान का अंतर कर दिया गया। दोनों की सेवा शर्तें, वेतन एवं अन्य सुविधाओं में काफी अंतर होने से अध्यापक वर्ग लम्बे अरसे से मांग कर रहा था कि उसे भी दूसरे विभागों से हटाकर शिक्षा विभाग के अधीन रखा जावे जिससे वे भी सरकारी शिक्षकों के समकक्ष सभी सुविधाओं के हकदार बन सकें। अध्यापकों का आंदोलन जब धीरे - धीरे जोर पकडऩे लगा और मुख्यमंत्री को महसूस हुआ कि चुनावी वर्ष में भी यदि उन्हें खुश न किया गया तो प्रदेश भर में फैले लगभग 3 लाख अध्यापक भाजपा का खेल बिगाड़ सकते हैं तब उन्होंने संविलियन की पुरानी मांग मंजूर करते हुए सभी अध्यापकों को नगरीय प्रशासन और पंचायत विभाग से निकालकर शिक्षा विभाग का हिस्सा बना दिया जिसके परिणामस्वरूप उनके वेतन और सेवा शर्तों  सहित अन्य सुविधाएं भी वर्तमान सरकारी शिक्षकों जैसी हो जाएंगी। बीते दिनों भोपाल में आंदोलनरत अध्यापिकाओं द्वारा सिर मुड़वाने के चित्र प्रसारित होने से राज्य सरकार की काफी बदनामी हुई थी। आंदोलन तेज होने के अंदेशे ने भी मुख्यमंत्री सहित पूरी भाजपा के कान खड़े कर दिए। दो दिन पहले 20 स्थानीय निकायों के चुनाव परिणामों ने भी सत्तारूढ़ खेमे की चिंताएं बढ़ा दीं। इसीलिए मुख्यमंत्री ने समय गंवाए बिना अध्यापकों को बसन्त पंचमी पर मुंह मांगी मुराद दे दी। इस निर्णय से अब अध्यापक वर्ग को भी अन्य शासकीय शिक्षकों के समान  स्थानान्तरण, मातृत्व अवकाश, वेतन वृद्धि, बीमा, पेंशन, ग्रेच्युटी, चिकित्सा व्यय और अनुकम्पा नियुक्ति के अधिकार और सुविधाएं हासिल हो जाएंगी। पद की हैसियत और तदनुरूप वेतन में भी बढ़ोतरी का लाभ तत्काल मिलने से उनके मन का असन्तोष दूर हो सकेगा जिसका सकारात्मक असर शिक्षा की गुणवत्ता के तौर पर देखे जाने की उम्मीद करना गलत नहीं होगा। यद्यपि ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि सरकारी शिक्षक जितना वेतन पाते हैं उसकी तुलना में उनका कार्य के प्रति समर्पण और पेशे के प्रति ईमानदारी नहीं दिखती लेकिन इसका एक कारण शासन द्वारा सरकारी विद्यालयों के रखरखाव की उपेक्षा भी है। शिक्षक को मात्र एक सरकारी वेतनभोगी मानकर उससे न जाने कहाँ - कहाँ की पल्लेदारी करवाई जाती है। इसका दुष्प्रभाव शिक्षा के स्तर पर पड़े बिना नहीं रहता। लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकाय, पंचायत और  सहकारिता के चुनाव अलग-अलग होने से चाहे जब चुनाव ड्यूटी और नई मतदाता सूचियां बनाने जैसी बेगारी शिक्षकों को उनके मूल दायित्व से दूर कर देती है। ऊपर से उनके बीच का वर्गभेद भी असन्तोष और कुंठा का बड़ा कारण बनता गया। शिवराज सरकार ने भले ही शिक्षा कर्मी और संविदा शिक्षक का नाम बदलकर अध्यापक कर दिया किन्तु सरकारी शिक्षकों की तुलना में वे दोयम दर्जे के ही रहे। अब चूंकि शिक्षा विभाग के अधीन आने से उनकी हैसियत शासकीय शिक्षकों के बराबर हो गई है इसलिए सरकार के लिए भी उनका नियंत्रण सुलभ हो सकेगा। अध्यापकों के नेता ने मुख्यमंत्री के निर्णय पर खुशी व्यक्त करते हुए कहा है कि शिक्षक बनकर अब अध्यापक  शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान दे सकेंगे। उम्मीद की जा सकती है उनका यह आश्वासन पूरा होगा। इसी के साथ सरकार का भी ये फजऱ् बनता है कि वेतन और सुविधाओं सम्बन्धी मांगें पूरी करने के अलावा उसे सरकारी शालाओं को निजी शिक्षण संस्थानों की टक्कर में खड़ा करने पर भी ध्यान देना चाहिए। निजी विद्यालयों की मुनाफाखोरी बढऩे के पीछे भी शासकीय विद्यालयों की दुर्दशा ही प्रमुख कारण है। कई विद्यालयों में तो 50-50 हज़ार वेतन पाने शिक्षक  मक्खी मारते बैठे रहते हैं। मध्यान्ह भोजन भी सरकारी विद्यालयों में विद्यार्थियों को खींचने में असमर्थ रहता है। सर्व शिक्षा अभियान का भी अपेक्षित परिणाम नहीं निकला। शिवराज सिंह चौहान ने मप्र को कृषि के क्षेत्र में तो काफी आगे बढ़ा दिया। औद्योगिक विकास के लिए भी वे देश-विदेश में हाथ पांव मारते रहते हैं किंतु तमाम नामी गिरामी संस्थानों के आने और निजी क्षेत्र द्वारा संचालित शिक्षा के शो रूमों के बावजूद मप्र का राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में यदि बड़ा नाम नहीं है तो उसके लिए शालेय स्तर के अधिकांश सरकारी शिक्षण संस्थानों की दयनीय दशा ही जिम्मेदार है। चुनाव सिर पर आने के कारण भले ही मजबूरी में मुख्यमंत्री ने अध्यापकों पर कृपा कर दी किन्तु इसके बाद उन्हें सरकार द्वारा संचालित विद्यालयीन स्तर की शिक्षा का स्तर सुधारने को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि आज के युग में बिना स्तरीय शिक्षा के प्रगति और विकास के आंकड़े अर्थहीन होकर रह जाते हैं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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