Saturday 6 January 2018

बजट : मोदी के पास आखिरी मौका

जनवरी का महीना आते ही नया साल तो प्रारम्भ होता ही है किन्तु बीत रहे कारोबारी साल और नए वित्तीय वर्ष के लिए प्रस्तुत होने वाले केंद्रीय आम बजट को लेकर समीक्षा, आकलन और अनुमान का सिलसिला भी शुरू हो जाता है। गत दिवस संसद के शीतकालीन सत्र के समापन के बाद 2017-18  के लिए विकास दर 6.5ज् रहने का अनुमान लगाया गया है जो 2016-17 की 7.1ज् से 0.6च् कम है। इसके लिए 2016 की नोटबन्दी के बाद 2017 में लागू जीएसटी को जिम्मेदार माना जा रहा है। 8 नवम्बर 2016 की रात अचानक घोषित नोटबन्दी ने पूरे देश में हलचल मचा दी थी। उसके बाद कई महीनों तक उद्योग-व्यवसाय ठप्प रहे। बाज़ार में नगदी गायब होने से विकास के पहिये थम गये। उस स्थिति से उबरने में कई महीने लगे। इसी दौरान जीएसटी का हल्ला मचने लगा। उसके प्रावधानों को लेकर व्याप्त अनिश्चितता ने उत्पादन क्षेत्र में गतिविधियां शिथिल कर दीं जिसकी वजह से पहली और दूसरी तिमाही में विकास दर के आंकड़े 6च् से भी नीचे आ गए। इस कारण मोदी सरकार के आर्थिक प्रबंधन पर सवाल उठने लगे। दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था में गिरावट निश्चित रूप से चौंकाने वाली बात थी। यद्यपि नोटबन्दी और जीएसटी दोनों के पीछे सरकार की नीयत में कोई संदेह नहीं किया जा सकता लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि इन कदमों का दूरगामी फायदा जो भी हो लेकिन तात्कालिक तौर पर तो ये अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा झटका साबित हुए । इनके कारण मोदी सरकार की लोकप्रियता में आई गिरावट का असर गुजरात में भाजपा की फीकी जीत के तौर पर दिखाई भी दे गया। बहरहाल यदि वर्तमान वित्तीय वर्ष में विकास दर 6.5ज् रहती है तो उसे संतोषजनक मानना गलत नहीं होगा। इसकी वजह अप्रैल से सितंबर के बीच आई गिरावट में सुधार के लक्षण दिखना है। वरना आंकड़ा 6च् से नीचे ही रहता। जीएसटी लागू होने के बाद धीरे-धीरे उत्पादन और निर्माण क्षेत्र की स्थिति जिस तरह सुधर रही है उसने पहली छमाही में आई गिरावट की काफी हद तक भरपाई कर दी। यही वजह है कि 2018-19 के लिए लगाए जा रहे अनुमानों में विकास दर एक बार फिर 7ज् से उपर जाने के आसार बन रहे हैं। वर्तमान वित्तीय वर्ष की आखिरी छमाही में उसका 7ज् रहना उम्मीदों को फिर जवान कर रहा है। इसके पीछे ठोस आधार भी है। पूंजी बाजार ने तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी जिस तरह का धैर्य और उत्साह दिखाया उससे अर्थव्यवस्था की सेहत में जोरदार सुधार के आसार बढ़े हैं।  भारतीय रुपये की विनिमय दर में काफी स्थिरता देखी जा रही है। विदेशी मुद्रा का भण्डार निरन्तर आसमान छू रहा है। कारोबारी जगत में विश्वास लौटने की वजह से निवेश के क्षेत्र में भी उत्साह देखा जा रहा है जिसका प्रमाण निजी निवेश में दोगुनी वृद्धि होना है। गत वर्ष मानसून की बेरुखी से कृषि क्षेत्र की रफ्तार भी धीमी रही जिसने विकास दर के आंकड़े को बढऩे से रोक दिया। चूंकि नोटबन्दी और जीएसटी से कारोबार और बाज़ार दोनों उबरने की स्थिति में आ चुके हैं इसलिए 2017-18 में विकास की दर 6.5ज् के आंकड़े तक पहुंचने जा रही है।  अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और रेटिंग एजेंसियों ने भी 2018-19 में आर्थिक मोर्चे पर भारत के बेहतर प्रदर्शन की भविष्यवाणी करते हुए उसके द्वारा अनेक विकसित देशों को पीछे छोडऩे की उम्मीद जताई है। यद्यपि जीएसटी के रूप में राजस्व के आंकड़े कम होने से केंद्र सरकार को 50 हज़ार करोड़ का कर्ज लेना पड़ गया वहीं पेट्रोल-डीजल महंगा होने से भी सरकार पर बोझा बढऩे की आशंका है। लेकिन जो संकेत मिल रहे हैं उनके मुताबिक जीएसटी को लेकर आईं व्यवहारिक और व्यवस्थाजनित  परेशानियाँ धीरे-धीरे जिस तरह दूर होती जा रही हैं उनसे आगामी वित्तीय वर्ष में आर्थिक मोर्चे पर बेहतर प्रदर्शन की उम्मीदें बढ़ चली हैं। चूंकि 2018 और 2019 में प्रधानमंत्री पर कुछ राज्यों में विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव जिताने की जिम्मेदारी रहेगी इसलिए ये उम्मीद करना गलत नहीं होगा कि 1 फरवरी को वित्त मंत्री अरुण जेटली जो वार्षिक बजट पेश करेंगे उसमें रियायतों और सौगातों की भरमार रहेगी। सबसे अधिक जोर ग्रामीण विकास और कृषि पर रहने की उम्मीद है क्योंकि पूरे देश में किसानों की नाराजगी से केंद्र सरकार अच्छी तरह वाकिफ  है। वहीं जीएसटी की दरों में कमी और युक्तियुक्तकरण के प्रति भी कारोबारी जगत आशान्वित है। चूंकि हमारे देश में अर्थशास्त्र अपनी स्वाभाविक चाल की बजाय राजनीतिक नफे नुकसान से नियंत्रित-निर्देशित होता है इसलिये मोदी सरकार के लिए भी आगामी बजट अच्छे दिन आने वाले हैं, की गारंटी देने का आखिरी अवसर होगा। बीते साढ़े तीन साल में देश के हर वर्ग ने लगातर झटकों के बाद भी नरेंद्र मोदी पर अपने विश्वास को चन्द अपवाद छोड़कर बनाए रखा है। आम हिंदुस्तानी मानता है कि उनकी नीयत में खोट नहीं है। लेकिन ये स्थिति आगे भी जारी रहेगी ये कह पाना कठिन है क्योंकि आम जनता एक हद के बाद किसी को मोहलत नहीं देती। भाजपा और श्री मोदी को ये याद रखना चाहिये कि 2003 के अंत में मप्र सहित कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव जीतने के बाद लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को लोगों ने हटा दिया क्योंकि उसके द्वारा शुरु किये अच्छे कार्यों के परिणाम वास्तविकता के धरातल पर नहीं उतर सके। और फिर अटल जी तथा श्री मोदी की छवि में भी ज़मीन आसमान का फर्क है। श्री वाजपेयी के विरुद्ध व्यक्तिगत तौर पर बोलने की हिम्मत उनके घोर विरोधी भी नहीं कर पाते थे जबकि श्री मोदी के बारे में छुटभैये तक जो मुंह में आता है बोलते सुने जा सकते हैं। ये देखते हुए अर्थव्यवस्था में सुधार के ताजा संकेतों के बाद भी केंद्र सरकार को कुछ ऐसे कदम उठाना चाहिए जिससे सबका साथ, सबका विकास का वायदा वास्तविकता में बदल सके ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment