Thursday 4 January 2018

केजरीवाल भी आम नेताओं की जमात में खड़े हो गए


कोई राजनीतिक पार्टी राज्यसभा में किसे भेजे, किसे नहीं ये उसका आंतरिक मामला है लेकिन पारदर्शिता की सबसे बड़ी ठेकेदार बनकर भारतीय राजनीति में अवतरित हुई आम आदमी पार्टी ने गत दिवस दिल्ली से जिन तीन लोगों को राज्यसभा हेतु चुना उनमें संजय सिंह पर तो किसी ने ऐतराज नहीं किया किन्तु कांग्रेस से हाल ही में आए उद्योगपति सुशील गुप्ता और चार्टर्ड अकाउंटेंट एनडी गुप्ता को उम्मीदवार बनाए जाने से पार्टी के प्रति सहानुभूति रखने वाले तमाम लोग हतप्रभ हैं। सोशल मीडिया के साथ ही टीवी चैनलों पर गत दिवस वे चेहरे भी खुलकर नाराजगी व्यक्त करते देखे गए जो अब तक अरविंद केजरीवाल के हर कदम की प्रशंसा में आगे रहा करते थे। अभय दुबे, ओम थानवी और उन जैसे अनेक पत्रकार एवं बुद्धिजीवियों को श्री केजरीवाल का उक्त निर्णय रास नहीं आया। अपने संक्षिप्त राजनीतिक जीवन में यूं तो अरविंद पर काफी हमले हुए लेकिन कल वे जिस तरह से अकेले और उपेक्षित दिखाई दिए वह अभूतपूर्व था। पार्टी में अब तक बने होने के बाद भी  हांशिये पर धकेल दिए गए कवि डॉ. कुमार विश्वास के घोर आलोचक भी ये कहने से नहीं चूके कि उनके साथ श्री केजरीवाल ने अच्छा नहीं किया। सबसे तीखी और अर्थपूर्ण टिप्पणी रही पार्टी से धकिया दिए गए संस्थापक सदस्य योगेंद्र यादव की। उन्होंने बड़े ही मार्मिक अंदाज में कहा कि मतभेदों के बावजूद  मैं मानता था कि अरविंद को कोई खरीद नहीं सकता लेकिन अब समझ नहीं पा रहा हूँ क्या कहूँ, स्तब्ध हूँ। देश भर से आई प्रतिक्रियाओं का निचोड़ यही रहा कि श्री केजरीवाल ने पार्टी को आम आदमी से दूर कर धनकुबेरों के हाथ बेच दिया और वैकल्पिक राजनीति का ये प्रयोग भी अंतत: प्रचलित ढर्रे में फंसकर असफलता की बलि चढ़ गया। सुशील गुप्ता महीने भर पूर्व पार्टी में आये, वहीं एनडी गुप्ता आम आदमी पार्टी का हिसाब किताब देखा करते हैं। इनके चयन के जो आधार उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया ने पत्रकारों को बताए वे अपनी जगह सही हो सकते हैं लेकिन पार्टी के पास इस बात का कोई समुचित उत्तर नहीं है कि डॉ. विश्वास और टीवी पत्रकारिता छोड़ आम आदमी पार्टी में आए आशुतोष को पूरी तरह उपेक्षित करने का कारण क्या था? पार्टी द्वारा बाहर से सुयोग्य उम्मीदवारों को राज्यसभा भेजने की नीति सही लगती थी। उच्च सदन का गठन भी इसीलिए किया गया। श्री सिसौदिया की मानें तो बड़ी बड़ी हस्तियों से सम्पर्क किया गया लेकिन वे इस डर से पीछे हट गईं कि केंद्र सरकार उन्हें बेवजह परेशान करेगी लेकिन उसके बाद श्री केजरीवाल ने जिन दो गुप्ताओं को उपकृत किया वे पार्टी के समर्थकों के गले नहीं उतर रहे। भले ही अरविंद की मजबूत पकड़ के कारण भीतर से जोरदार विरोध न हो किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि संजय सिंह के अलावा जिन दो उम्मीदवारों को राज्यसभा की टिकिट आम आदमी पार्टी ने दी उनका चयन किसी को रास नहीं आया। डॉ. विश्वास और आशुतोष को न भेजकर श्री केजरीवाल पार्टी के किसी अन्य नेता या कार्यकर्ता को संसद के उच्च सदन हेतु चुनते तो उसे पचाया जा सकता था किंतु सम्पन्न वर्ग के ऐसे दो व्यक्तियों को चुनना पार्टी के उद्देश्यों और छवि के पूरी तरह विपरीत लग रहा है जिनका न तो उसके उत्थान में कोई योगदान रहा और न ही वे सैद्धांतिक तौर पर ही पार्टी के करीब कहे जा सकते  हैं। ये मान भी लें कि टिकिट के बदले श्री केजरीवाल ने उन दोनों से कोई पैसा नहीं लिया तब भी ये तो कहा ही जा सकता है कि आम आदमी पार्टी ने इस निर्णय के द्वारा खुद को बाकी की तरह आम पार्टी बना लिया। यद्यपि श्री केजरीवाल ने जिस तरह की स्वेच्छाचारिता दिखाते हुए पार्टी की नींव के पत्थरों को बाहर फेंका और फिर भ्रष्टाचार में लिप्त मंत्रियों को संरक्षण दिया उससे पार्टी की पवित्रता तो कब की खत्म हो चुकी थी। जो वरिष्ठजन पार्टी से जुड़े हुए हैं वे भी श्री केजरीवाल और उनके दाहिने हाथ मनीष सिसौदिया के सामने बौने बनकर रह गए हैं। डॉ. विश्वास जैसे इक्का-दुक्का ने यदि असहमति की हिम्मत दिखाई तो उन्हें तिरस्कृत करने का प्रबन्ध कर दिया गया। इन सबसे साबित हो गया कि अरविंद केजरीवाल ने जनांदोलन की कोख से जन्मी इस पार्टी को अपनी निजी जागीर बना लिया है और जिस तरह से अन्य क्षेत्रीय पार्टियां किसी नेता या उसके कुनबे की गिरफ्त में हैं ठीक उसी तरह से आम आदमी पार्टी भी श्री केजरीवाल के हाथ की कठपुतली बनकर रह गई है। कहाँ तो ये पार्टी कांग्रेस और भाजपा की टक्कर में एक सक्षम और ईमानदार राष्ट्रीय विकल्प बनने की उम्मीदें जगाने में सफल होती दिख रही थी और कहां इसकी पुण्याई एक-एक कर नष्ट होती जा रही है। भारतीय राजनीति में उम्मीदों का अवतरण और पतन दोनों नई बात नहीं है लेकिन आम आदमी पार्टी सही मायने में पार्टी विथ डिफरेंस की कसौटी पर खरी उतरती दिख रही थी। दिल्ली की जनता के लिए केजरीवाल सरकार भले ही कितने भी अच्छे काम कर रही हो लेकिन आम आदमी पार्टी अपनी उस छवि को कायम नहीं रख पाई जिसके बलबूते वह सत्ता के सिंहासन तक आ पहुंची थी और इसके लिए यदि कोई दोषी है तो वह अरविंद केजरीवाल की अहंकार युक्त कार्यशैली ही है जिसके कारण इस पार्टी के प्रति बनी धारणा तेजी से बदल रही है। बड़ी बात नहीं आने वाले दिनों में इसकी छवि और खराब हो जाए क्योंकि अब यह आम आदमी से दूर होती चली जा रही है। राज्यसभा के लिए दो गुप्ताओं के चयन के बाद श्री केजरीवाल भी उन आम नेताओं की जमात में खड़े नजर आ रहे हैं जिनकी वजह से राजनीति का सम्मान पूरी तरह विलुप्त होता चला गया ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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