Tuesday 30 January 2018

एक साथ चुनाव : अच्छा सुझाव


कुछ दिनों पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की जरूरत बताते हुए उससे होने वाले फायदे गिनाए थे। 1967 तक यही होता रहा किन्तु संविद सरकारों के बनने और गिरने के कारण एक तो राज्यों में अस्थिरता आई और फिर 1969 में कांग्रेस के विभाजन से उत्पन्न राजनीतिक परिस्थितियों से निपटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1971 में लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव करवा दिया। उसके बाद चुनाव का कैलेंडर जो गड़बड़ाया तो आज तक व्यवस्थित नहीं हो सका। इसके लिये कौन ज्यादा दोषी है और कौन कम ,  इस बहस में समय गंवाने की बजाय बेहतर यही होगा कि समस्या का समुचित निदान ढूढऩे का प्रयास हो। श्री मोदी ने जो मुद्दा छेड़ा उसके राजनीतिक निहितार्थ अपनी जगह हैं किंतु निष्पक्ष आकलन हो तो देश के अधिकतर लोग चाहते हैं कि लगातार चलने वाले चुनाव के चक्र  से देश को बाहर निकाला जावे। गत दिवस संसद के बजट सत्र का शुभारंभ करते हुए दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में अभिभाषण देते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी एक साथ चुनाव का जो सुझाव दिया उसे मोदी सरकार की कार्ययोजना का हिस्सा मानकर उससे जुड़ी सम्भावनाओं का आकलन शुरू हो गया है। राजनीतिक क्षेत्रों में ये कयास लगाया जा रहा है कि प्रधानमन्त्री इस मुद्दे को राष्ट्रीय बहस का विषय बनाकर जनमत को अपनी तरफ  मोडऩा चाहते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों को मानना है कि भाजपा शासित जिन बड़े राज्यों में लोकसभा के पहले चुनाव होना हैं वहां भाजपा को सत्ता विरोधी रुझान का शिकार होने का खतरा है। यदि पार्टी वहां गुजरात की तरह अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई तो 2019 की बड़ी लड़ाई में उसे परेशानी झेलनी पड़ेगी। प्रधान मंत्री समझ रहे हैं कि 2014 जैसा उन्मादी समर्थन दोबारा हासिल करना कठिन होगा इसलिये मतदाताओं के सामने एक ऐसा मुद्दा लेकर जाया जाए जो राजनीतिक होते हुए भी राजनीतिक न लगे। अपने टीवी साक्षात्कार में उन्होंने लगातार चुनाव चलते रहने के आर्थिक, प्रशासनिक और व्यवहारिक नुकसान बताए थे। कोई भी व्यक्ति इस बारे में असहमत नहीं होगा कि पूरे पांच साल चुनाव का चक्र चलने से केंद्र सरकार अपनी नीतियों को लागू नहीं कर पाती। नरेंद्र मोदी को सत्ता में आने के  बाद से लगातार चुनाव प्रचार में बहुत ज्यादा समय और शक्ति खर्च करनी पड़ी। प्रतिवर्ष किसी न किसी राज्य में चुनावी डुगडुगी बजने की वजह से प्रधानमंत्री पर जो दबाव बना रहता है उससे नीतिगत निर्णयों को लागू करने में अनेकानेक परेशानियां आया करती हैं। क्षेत्रीय भावनाओं का सम्मान करने के दबाव में तात्कालिक कुछ ऐसे काम भी करना पड़ जाते हैं जिनका दूरगामी परिणाम देश के लिए नुकसानदेह होता है। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक पार्टियां इन बातों से अनभिज्ञ हैं किन्तु अपने फायदे के लिए देशहित को ताक पर रखने की जो प्रवृत्ति राजनीतिक बिरादरी पर हावी हो गई उसकी वजह से हर पार्टी केवल अपने फायदे में उलझकर रह गई है। इसके लिए केवल क्षेत्रीय दल और उनके नेता ही दोषी नहीं वरन राष्ट्रीय पार्टियां भी बराबर की कसूरवार हैं जिन्होंने अपने क्षणिक लाभ के लिए अनुचित समझौते और सौदेबाजी से कभी परहेज नहीं किया। एक साथ लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव करवाना यद्यपि आज की स्थिति में आसान नहीं लगता लेकिन कभी न कभी तो ये करना ही पड़ेगा। इसलिये बेहतर है प्रधानमंत्री द्वारा की जा रही पहल का न सिर्फ  स्वागत अपितु समर्थन भी किया जावे। वर्ष 2018 में ही आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों के चुनाव होने हैं जिनके निबटते ही लोकसभा और उसके साथ ही कुछ राज्यों के चुनाव होंगे। उसके तुरन्त बाद फिर वही क्रम शुरू हो जावेगा। इस प्रक्रिया में भले ही राजनीतिक दलों के अपने स्वार्थ सिद्ध होते हों किन्तु हर समय चुनाव होते रहने से उद्योगपतियों पर भी चंदे का जो अतिरिक्त दबाव बना रहता है वह भी भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत है। ये बात भी सर्वविदित है कि चुनाव और कालाधन का चोली दामन का साथ है। चुनाव आयोग की सख्ती के बावजूद भी चुनाव का खर्च बढ़ता चला जा रहा है। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में खर्च की जो सीमा तय की गई है उसमें तो साक्षात प्रभु भी चुनाव  नहीं लड़ सकेंगे। इसलिये बेहतर होगा इस बारे में देशहित को ध्यान में रखकर विचार करते हुए निर्णय किया जावे। विधि विशेषज्ञों के मुताबिक जैसा प्रधानमन्त्री चाह रहे हैं वैसा करने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा जिसके लिए राज्यसभा में भाजपा का बहुमत न होने से जब तक कांग्रेस एवं अन्य छोटे दल समर्थन न करें तो वह सम्भव नहीं होगा। इस सम्बंध में अनेक सुझाव भी आए हैं जिन पर गहराई से विचार करने के उपरांत निर्णय लेना समय की मांग है। लोकसभा के साथ भाजपा एवं दूसरी पार्टियों के शासन वाले कुछ राज्यों के चुनाव करवाने पर सहमति बनने की खबर राजनीतिक क्षेत्रों में तेज होने से हलचलें बढ़ गईं हैं। ये भी चर्चा है कि कुछ विधानसभाओं के चुनाव समय से पहले और कुछ थोड़े आगे सरकाकर लोकसभा के साथ करवाने की रणनीति प्रधानमंत्री ने बना ली है। यदि ये कामयाब रही तो फिर बचे हुए राज्यों के चुनाव भी एक साथ करवाकर रोज-रोज के चुनाव चक्र से देश को राहत दिलवाने का रास्ता खुल सकता है। सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे अपने निहित स्वार्थों को कुछ समय के लिए भुलाकर देश के व्यापक हितों को प्राथमिकता दें। चुनाव लोकतंत्र की आधारभूत आवश्यकता है। उसे रोकना तो तानाशाही को आमंत्रण देना होगा किन्तु भारत सदृश विशाल देश में बार-बार होने वाले चुनाव एक तरह का बोझ या यूँ कहें कि बीमारी बन गई है जो तरह - तरह की समस्याओं को जन्म देती है। सबसे बड़ी बात इसकी वजह से केंद्र सरकार की नीतियों और योजनाओं को लागू करने में उत्पन्न होने वाले अवरोधक हैं। राज्यों के चुनाव अलग-अलग होने से नए-नए दबाव समूह उभरते हैं और वोट बैंक की लालच में राजनीतिक दलों को उनके आगे झुकना पड़ता है। इन सबसे बचने के लिए प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के अभिभाषण में व्यक्त सुझाव पर समयबद्ध राष्ट्रीय बहस के उपरांत समुचित फैसला पूरी तरह उचित होगा। राजनीतिक दलों के बीच भले ही इसे लेकर एक राय नहीं हो किन्तु जहां तक जनता का प्रश्न है तो वह भारी बहुमत से लोकसभा-विधानसभा चुनाव एक साथ करवाने की पक्षधर है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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