Monday 1 January 2018

यदि जंग ही विकल्प है तो हो जाने दें

बीते वर्ष की आखिरी भोर दुखद खबर लेकर आई। जम्मू कश्मीर के पुलवामा क्षेत्र में सीआरपीएफ  के शिविर में घुसे तीन आतंकवादियों ने हमारे आधे दर्जन जवानों को मार दिया । हालांकि जवाबी कार्रवाई में तीनों हमलावर भी ढेर कर दिए गए लेकिन खुफिया तंत्र द्वारा नव वर्ष पर ऐसे हमलों के लिए पहले से आगाह किये जाने के बाद भी चूक हो गई। ऐसे हादसों पर आलोचना और प्रत्यालोचना उचित नहीं होती क्योंकि सुरक्षा बल अपने कर्तव्यों के निर्वहन में सदैव सजग रहते हैं लेकिन आतंकवादी चूंकि आत्मघाती बनकर आते हैं। इसलिए मरने के पहले वे बड़ा नुकसान करने में सफल हो जाते हैं। कुछ दिन पूर्व ही जैश ए मोहम्मद के एक बड़े सरगना को सुरक्षा बलों ने मार गिराया था। कल की घटना को उसी का बदला बताया गया है। कांग्रेस ने हमले को केंद्र सरकार की कश्मीर नीति की विफलता बताकर अपना विपक्षी धर्म निभा दिया जिसे पूरी तरह नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता लेकिन इसका दूसरा पहलू ये भी है कि बीते साल सुरक्षा बलों की मुस्तैदी से काश्मीर घाटी में 200 से ज्यादा आतंकवादी मार गिराए गए। काफी संख्या उन लोगों की भी रही जिन्होंने हथियार छोड़कर शांति के साथ रहने का निर्णय लिया। सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने की घटनाएं भी करीब-करीब खत्म सी हो चली हैं। सुरक्षा बलों को राज्य की पुलिस भी अब पहले की अपेक्षा बेहतर सहयोग करती है जिसके सकारात्मक परिणाम देखने मिल रहे हैं। कश्मीर घाटी में अलगाववादी नेताओं पर शिकंजा कसे जाने से भी माहौल सुधरा है लेकिन ये मान लेना गलत होगा कि आतंकवाद पर पूरी तरह काबू पा लिया गया है। दरअसल घाटी को अलगाववाद के रास्ते पर धकेलने में पाकिस्तान की सक्रिय भूमिका के कारण ही स्थिति सम्भलते-सम्भलते एकाएक बिगड़ती लगने लगती है। 31 दिसम्बर की सुबह-सुबह पुलवामा में सीआरपीएफ के शिविर पर हुआ हमला भी उसी कड़ी का हिस्सा है जिसका मकसद सुरक्षा बलों का मनोबल तोडऩा है। जहां तक बात केन्द्र सरकार की नीति की है तो उसकी समीक्षा सार्वजनिक रूप से कर पाना न तो सम्भव ही है और न ही उचित क्योंकि एक तरफ तो सेना तथा अन्य सहयोगी बल आतंकवादियों को तलाशकर उनका सफाया करने में जुटे हुए हैं वहीं दूसरी तरफ  केन्द्र के वार्ताकार भी घाटी में सभी पक्षों से बातचीत कर बीच का रास्ता निकालने प्रयासरत हैं। क्या होगा, क्या नहीं ये कह पाना कठिन है किंतु इतना तय है कि शांति स्थापना के प्रत्येक प्रयास में पाकिस्तान व्यवधान पैदा करता रहेगा। आए दिन आतंकवादियों के मारे जाने की खुशख़बरी पर उस समय पानी फिर जाता है जब हमारे जवान और युवा अफसर सस्ते में मारे जाते हैं। केन्द्र सरकार की सख्ती से स्थिति नियंत्रण में आती देख आतंकवादी कोई न कोई वारदात कर देते हैं। गत दिवस जो हुआ वह अत्यंत दुखद एवं चिंताजनक था क्योंकि पूर्व चेतावनी के बाद भी आतंकवादी सुरक्षा प्रबंधों को धता बताकर अपने मकसद में कामयाब हो गए। ऐसी घटनाओं को पूरी तरह से रोक पाना सम्भव नहीं दिखता क्योंकि आतंकवादियों के दस्ते मरने के लिए ही आते हैं। उनका उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा लोगों को मारना होता है लेकिन एक बात जरूर है कि हमारी सेनाओं और अर्ध सैनिक बलों की तमाम चौकसी के बावजूद अगर पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादी सीमा पार करने में सफल हो जाते हैं तब ये गम्भीर मुद्दा है। इसी तरह ये भी विचारणीय है कि उन्हें संवेदनशील ठिकानों तक पहुंचने में स्थानीय लोग ही मदद करते हैं जिससे साबित होता है कि घाटी में भारत विरोधी तत्वों की जड़ें काफी गहरी और दूर -दूर तक हैं। यद्यपि ये कहने में जितना आसान लगता है उतना है नहीं किन्तु पाकिस्तान से वार्ता करने या रोके रहने के अपेक्षित परिणाम नहीं आने के बाद अब सैन्य कार्रवाई ही विकल्प दिखाई देती है। ये कब और कैसे होगी ये तो सरकार और फौज को मिलकर तय करना है लेकिन ऐसी किसी भी कोशिश को देश की जनता बिना शर्त समर्थन। करती आई है और आगे भी करेगी, ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा। बिना लड़े फौजियों की शहादत से बेहतर है जंग ही हो जाए वरना इसी तरह रोज ताबूतों को सलामी देने वाले दृश्य देख-देखकर देश का मनोबल भी गिर रहा है और छप्पन इंच के सीने का मज़ाक भी उडऩे लगा है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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