Wednesday 10 January 2018

राष्ट्रगान का मजाक बनना बन्द हो

अपने ही फैसले को उलटने या उस पर पुनर्विचार करने का बढ़ता चलन सर्वोच्च न्यायालय को भी सवालों के घेरे में खड़ा कर रहा है। उसकी न्याय प्रियता निश्चित रूप से असंदिग्ध है। अपने पुराने फैसले की समीक्षा करने के प्रति उदार रवैया भी स्वागतयोग्य है। न्यायाधीश भी आखिरकार इंसान ही होता है, अत: वह गलती कर सकता है ये मान लेने में उसकी योग्यता पर शक करने जैसी बात भी नहीं है। ऊपरी न्यायालय में अपील की व्यवस्था इसीलिए की गई है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय यद्यपि अंतिम होते हैं लेकिन वह भी अपने फैसले पर पुनर्विचार की सुविधा प्रदान करता है। न्याय करना तलवार के धार पर चलने जैसा कठिन कार्य है जो कहने में तो आसान प्रतीत होता है किंतु व्यवहार में अत्यंत कठिन किन्तु इसका ये अर्थ नहीं कि न्यायाधीश आपाधापी में ऐसे फैसले करते रहें जिन्हें बदलना पड़े या जिन पर पुनर्विचार अनिवार्य हो जावे। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने की अनिवार्यता खत्म करते हुए कहा कि यह सिनेमाघर संचालक पर निर्भर होगा कि वह राष्ट्रगान बजाए अथवा नहीं लेकिन उसके बजने पर दर्शकों का खड़े होकर सम्मान देना अनिवार्य होगा। दिव्यांगों को बहरहाल इससे मुक्त रखा गया है। केंद्र सरकार द्वारा गठित एक मंत्रीमण्डलीय समिति की रिपोर्ट आने पर इस सम्बंध में अंतिम निर्णय लिया जावेगा। राष्ट्रगान बजाने या न बजाने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का यह तीसरा आदेश है  जिनमें कभी वह राष्ट्रगान के प्रति सम्मान को राष्ट्रभक्ति से जोड़कर अपेक्षा करता है कि सिनेमाघरों में उसे न सिर्फ बजाया जावे अपितु पर्दे पर राष्ट्रध्वज फहराता दिखे और दिव्यांगों को छोड़ शेष दर्शक खड़े होकर उसे सम्मान दें। विदेशों का उल्लेख करते हुए ये भी कहा गया कि वहां होता है तो हमारे यहां क्यों नहीं ? फिर इसी अदालत ने राष्ट्रगान बजाए जाने की अनिवार्यता पर सवाल भी उठाए और अब उसे ऐच्छिक करते हुए सरकार पर ढाल दिया। साल दो साल के भीतर तीन अलग अलग फैसलों से सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रगान दोनों के प्रति गम्भीरता घट रही है। दोनों के प्रति सम्मान हमारा कर्तव्य है जिसे लेकर किसी भी तरह की बहस की गुंजाइश नहीं है किन्तु इस बारे में एक बार में अंतिम निर्णय न कर पाना अटपटा लगता है। न तो सर्वोच्च न्यायालय को इतनी फुर्सत है और न ही राष्ट्रगान कोई दीवानी मुकदमा है जो पीढ़ी बदलने तक भी चलता रहे। राष्ट्रीय प्रतीकों के सम्मान के बारे में सरकार को सजग रहना चाहिए। आज़ादी के 70 बरस बाद भी सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाया जावे या नहीं जैसे विषय पर अनिश्चितता बनी रहना शर्म का विषय है जो समूची व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करता है। सर्वोच्च न्यायालय को भी चाहिए कि ऐसे मामलों में भावनात्मक न होते हुए व्यवहारिक निर्णय सुनाए जिससे उसे अपने ही फैसले में संशोधन की मज़बूरी न झेलना पड़े। केंद्र सरकार ने इस सम्बंध में जो मंत्रीमंडलीय समिति बनाई है उसे तय समय में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर अंतिम निर्णय करने की स्थिति बनाना चाहिए क्योंकि राष्ट्रगान कोई ऐरी-गैरी चीज नहीं जिसे लेकर आए दिन नई-नई व्यवस्थाएं की जाएं। राष्ट्रीय प्रतीकों को लेकर इस तरह की अनिश्चितता से उनका मजाक बनता है जो किसी भी लिहाज से उचित नहीं है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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