Saturday 13 January 2018

सुनवाई न होने का दर्द तो महसूस हुआ मी लार्डों को

सर्वोच्च न्यायालय के 4 न्यायाधीशों ने गत दिवस जो धमाका किया उससे पूरा देश सन्न रह गया। वरिष्ठता की अनदेखी अथवा सैद्धांतिक मतभेदों को लेकर अतीत में अनेक न्यायाधीश त्यागपत्र देकर अलग हो चुके हैं लेकिन पद पर रहते हुए प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने जिस तरह मोर्चा खोला वह न सिर्फ अभूतपूर्व और अप्रत्याशित अपितु कुछ हद तक अनावश्यक भी था। सर्वश्री जे.चेलमेश्वर, कुरियन जोसफ , रंजन गोगोई और मदन लोकुर के प्रधान न्यायाधीश श्री मिश्रा से कार्यप्रणाली को लेकर मतभेद थे जो पत्र लिखकर उन्हें अवगत भी कराए गए। कल सुबह भी वे चारों श्री मिश्रा से मिले लेकिन बात नहीं बनी तब श्री चेलमेश्वर के बंगले पर पत्रकारों को बुलाकर प्रधान न्यायाधीश पर सार्वजनिक हमला बोल दिया गया। मुख्य आपत्ति महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई अपने मनपसंद और अपेक्षाकृत कनिष्ठ न्यायाधीशों को देने पर थी। सरकार से जुड़े कुछ चुनिंदा प्रकरण वरिष्ठ न्यायाधीशों की जगह दूसरी पीठ को आवंटित किये जाने ने भी उक्त चारों के गुस्से को बढ़ा दिया। मुंबई की सीबीआई अदालत के दिवंगत न्यायाधीश स्व.जोया सम्बन्धी प्रकरण को निबटाए जाने के तरीकों पर भी ऐतराज किया गया। प्रेस कांफ्रेंस के जरिये देश को सर्वोच्च न्यायालय में चल रही गड़बडिय़ों से लोकतंत्र को उत्पन्न कथित खतरे से अवगत कराने के इस प्रयास ने एक बात तो साफ  कर दी कि न्यायपालिका चाहे जितना उपदेश झाड़ती रहे लेकिन  वह भी उन चारित्रिक बुराइयों से अछूती नहीं रही जिनके लिए वह कार्यपालिका और विधायिका की खिंचाई करने में सदैव आगे रहती है। न्यायिक स्वतंत्रता के नाम पर कभी-कभी स्वच्छन्दता और यहां तक कि तानाशाही का एहसास भी होता रहा है। अदालत की अवमानना रूपी ब्रह्मास्त्र होने से किसी की हिम्मत न्यायपालिका में चल रहे भ्रष्टाचार एवं अन्य गड़बडिय़ों पर बोलने की नहीं  पड़ती थी लेकिन गत दिवस चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने जिस तरह प्रधान न्यायाधीश के विरुद्ध आवाज उठाई उसने अब लोगों को खुलकर बोलने का मौका दे दिया है। प्रश्न उठना स्वाभाविक कि श्री मिश्रा ने यदि महीनों पहले प्राप्त पत्र का कोई संज्ञान नहीं लिया तो उसकी वजह क्या रही? और यदि प्रधान न्यायाधीश ने उनके ऐतराज को तवज्जो नहीं दी तब इन चारों को पत्रकार वार्ता बुलाकर ठेठ नेतागिरी की शैली में रायता फैलाने की बजाय क्या राष्ट्रपति को पत्र लिखकर अपनी पीड़ा नहीं बतानी थी जो देश के संवैधानिक मुखिया होने के अलावा सर्वोच्च न्यायालय में वकालत भी कर चुके हैं। देश की जनता पर मामला छोडऩे जैसी बात बचकानी नहीं तो और क्या है? सबसे बड़ी जो चीज इस समूचे प्रकरण से निकलकर आई वह है अपनी वाजिब बात की समय पर सुनवाई न होने की तकलीफ का अनुभव। जिन चार न्यायाधीशों ने कल देश के समक्ष अपना मुकदमा पेश किया उन्हें उन लाखों लोगों की पता नहीं याद भी आई होगी या नहीं जिनकी चप्पलें  अदालतों के चक्कर काटते-काटते घिस जाती हैं। कुछ तो न्याय की आस में भगवान को प्यारे हो जाते हैं। अब न्याय के इन चारों देवताओं से पूछा जाना चाहिये कि जिन अनगिनत लोगों को सर्वोच्च या अन्य किसी अदालत के न्यायाधीश या कार्यालयीन कार्यप्रणाली से शिकायत हो यदि वे भी पत्रकार वार्ता बुलाकर अपने आरोप सार्वजनिक तौर पर व्यक्त करें तो क्या उन्हें भी वैसा ही क़ानूनी सुरक्षा चक्र मिलेगा जिसके दम पर उक्त न्यायाधीश अपने प्रधान से टकराने का दुस्साहस कर सके? उन्होंने श्री मिश्रा पर जो आरोप लगाए उनमें वरिष्ठता की उपेक्षा करते हुए महत्वपूर्ण प्रकरणों को कनिष्ठ न्यायाधीशों को सौंपा जाना भी है किन्तु इसी के साथ एक विरोधाभासी तर्क देते हुए यह भी कहा जा रहा है कि प्रधान न्यायाधीश की स्थिति चूंकि समानों में बड़े से अधिक कुछ भी नहीं इसलिए सभी न्यायाधीश बराबर हैं। यदि इस सिद्धांत को मानें तब फिर वरिष्ठ और कनिष्ठ की बात का कोई महत्व ही कहाँ रह जाता है? कुल मिलाकर एक बात साफ हो गई कि न्यायपालिका के सर्वोच्च शिखर पर भी वैसा ही कचरा फैला पड़ा है जैसा विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर पर्वतारोही फैलाते हैं। जिन चार न्यायाधीशों ने अंदर की बात को सबके सामने लाने का प्रयास किया वे बधाई के हकदार हैं क्योंकि न्यायपालिका के उजले चेहरे के पीछे का कालापन जानते तो सब हैं लेकिन प्रजातन्त्र के दौर में भी 'मी लार्डÓ बने बैठे इन चार न्यायाधीशों ने जो रास्ता चुना उसने देश में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। ये सवाल तेजी से उभरा है कि क्या न्यायपालिका के निर्णयों और कार्यप्रणाली की आलोचना का ऐसा ही अधिकार आम जनता को भी हासिल हो सकेगा? क्या शासकीय सेवा में कार्यरत कोई कर्मचारी अपने वरिष्ठ अधिकारी की कार्यप्रणाली से असंतुष्ट होकर बजाय उचित माध्यम का उपयोग करने के अख़बारों का सहारा लेने स्वतन्त्र होगा? सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि अपने नियुक्तिकर्ता राष्ट्रपति को नजरंदाज करते हुए सीधे जनता की अदालत में अपना मुकदमा पेश करने की जो कोशिश की गई, वह औचित्य की कसौटी पर कितनी सही थी? इसके बाद सोचने वाली बात ये भी है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय के बाकी न्यायाधीश भी इन चारों के विरुद्ध ऐसे ही तौर-तरीके अपनाते हुए दूसरा मोर्चा खोल बैठें तब क्या होगा? और यदि प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने स्तीफा नहीं दिया तब भी क्या चारों न्यायाधीश पद पर बने रहेंगे और सर्वोच्च न्यायालय भी संसद की तरह अखाड़े में तब्दील होकर रह जाएगा? ऐसे में न्याय देवी के मंदिर में पुजारियों के बीच चढ़ावे को लेकर हो रहे विवाद से यदि श्रद्धालुओं की आस्था कम हो जाए तो उन्हें दोष नहीं दिया जाना चाहिए। प्रधान न्यायाधीश ने चुप्पी साधकर भले ही तू-तू, मैं-मैं से परहेज किया हो लेकिन उन्हें आरोपों पर उचित माध्यम से स्पष्टीकरण तो देना ही चाहिए। रही बात केंद्र सरकार द्वारा बीच में नहीं पडऩे की तो इसके पीछे चार न्यायाधीशों द्वारा बिना नाम लिए कार्यपालिका के हस्तक्षेप का जो संकेत किया गया वह वजह हो सकती है। अन्य राजनीतिक दलों की टिप्पणियां इस विवाद में उचित नहीं लगतीं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी. राजा का श्री चेलमेश्वर से उनके घर जाकर मिलने पर उठी उंगलियां गलत नहीं हैं। अटॉर्नी जनरल ने आज विवाद सुलझने की जो उम्मीद व्यक्त की वह यदि सत्य भी हो गई तब भी सर्वोच्च न्यायालय की स्थिति दुर्घटनाग्रस्त उस वाहन की तरह होकर रह जायेगी जिसकी मरम्मत और डेंट-पेंट होने के बाद भी कीमत कम हो जाती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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