Monday 1 January 2018

संकट सुलझा लेकिन कटुता तो आ ही गई

गुजरात संकट भले निबट गया हो लेकिन यदि अमित शाह को अपने ही राज्य में इस तरह की स्थिति का सामना करना पड़े तो माना जा सकता है कमल की पंखुडिय़ों के कुम्हलाने का खतरा बढऩे लगा है। नितिन पटैल ने जिस तरह के तेवर दिखाए यद्यपि उसमें पार्टी छोडऩे या तोडऩे का संकेत नहीं नजर आया लेकिन उससे जो कटुता उनके और मुख्यमंत्री विजय रूपानी के बीच उत्पन्न हो गई वह शायद ही दूर ही सकेगी। नरेंद्र मोदी और अमित शाह का इकतरफा जलवा होने पर भी अगर नितिन भाई ने अड़कर वित्त मंत्रालय ले लिया तो इसे केंद्रीय नेतृत्व के दबदबे में  कमी का प्रमाण मान लेना गलत नहीं होगा। गुजरात में भाजपा के सामने तलवार की धार पर चलने जैसी स्थिति है । अतीत में  शंकर सिंह वाघेला तथा केशुभाई पटैल के बीच चली वर्चस्व की लड़ाई में उसे कितना नुकसान हुआ ये भी सर्वविदित है। ऐसी स्थिति में भाजपा उस हादसे को दोहराए जाने की बात सोचकर ही भयभीत हो गई थी और नाराज नेताओं के सामने घुटने नहीं टेकने के प्रारंभिक दावे के बाद नितिन पटैल को वित्त विभाग देकर उनका तुष्टीकरण करने में तनिक भी देर नहीं की गई। खैर, हाल-फिलहाल तो संकट टल गया किन्तु चिंगारी पूरी तरह बुझ गई ये मान लेना खुशफहमी ही है। सरकार बनते ही एक मंत्री ने आंखें दिखाकर न सिर्फ अपना मनपसन्द विभाग ले लिया किन्तु बाकी को भी रास्ता दिखा दिया। नितिन पटैल भाजपा के समर्पित नेता रहे हैं। उनकी नाराजगी बगावत का रूप नहीं लेगी ये तो सभी मानते थे। नवनिर्वाचित कोई भी भाजपा विधायक दोबारा चुनाव होने का खतरा नहीं उठाना चाहेगा। वहीं कांग्रेस भी जल्दबाजी में ऐसा कोई कदम नहीं उठाएगी जिससे उसकी मुसीबतें बढ़ जाएं क्योंकि उसे अमित शाह की क्षमता और कार्य शैली अच्छी तरह पता है। फिर भी आने वाले दिनों में भाजपा को सतर्क रहना होगा क्योंकि उसके कई विधायक नई भर्ती वाले भी हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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