Tuesday 9 January 2018

समलैंगिकता : चन्द लोगों की सोच को समाज पर लादना घातक

सर्वोच्च न्यायालय अपने उस निर्णय पर पुनर्विचार करने राजी हो गया है जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को पलट दिया गया था जिसके अनुसार समलैंगिक सम्बन्धों को दण्डनीय अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया। चार वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 के अंतर्गत समलैंगिक सम्बन्धों को अवैध माने जाने पर मुहर लगा दी गई थी किन्तु एक याचिका पर विचार करते हुए गत दिवस न्यायालय ने दो वयस्कों के बीच सहमति के आधार  पर समलैंगिक सम्बन्धों की अनुमति देने सम्बन्धी अनुरोध को संविधान पीठ के पास भेजने का निर्णय लिया। इस दौरान प्रधान न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा ने भी ये माना  कि समय के साथ बदलते नैतिकता के मापदंडों के अनुरूप कानून में संशोधन और परिवर्तन की बात  विचारणीय है और व्यक्तिगत आज़ादी के मौलिक अधिकार में कटौती नहीं की जा सकती। चूंकि प्रकरण संविधान पीठ के हवाले कर दिया गया इसलिये उसके  कानूनी पहलुओं पर टीका-टिप्पणी करना फिलहाल अनधिकार चेष्टा होगी लेकिन खुद प्रधान न्यायाधीश ने प्रकृति की अनुकूलता और सामाजिक नैतिकता के प्रति अवधारणा में परिवर्तन का जिक्र करते हुए सामाजिक स्तर पर बौद्धिक विचार विमर्श की गुंजाइश छोड़ दी है इसलिए जरूरी है कि लिव इन रिलेशनशिप, किराए पर कोख और तीन तलाक जैसे मुद्दों की तरह बिना शर्म किये समाज भी समलैंगिकता को लेकर अपना मत व्यक्त करे जिससे सर्वोच्च न्यायालय को भी ये ज्ञात हो सके कि समाज के दृष्टिकोण और सोच में परिवर्तन की सीमा और जरूरत कितनी है? इस सम्बंध में केवल न्यायालय के जिम्मे छोड़कर दूर बैठ जाने के दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं होंगे। न्यायालय ने याचिका को संविधान पीठ के विचारार्थ भेजकर भले ही व्यक्तिगत आज़ादी के मौलिक अधिकार को स्पष्ट करने की मंशा व्यक्त की हो किन्तु ऐसे सवाल केवल कानून की दहलीज पर नहीं सुलझाए जा सकते। अदालत का ये प्रारंभिक अवलोकन निश्चित तौर पर विचारणीय है कि प्रकृति और सामाजिक नैतिकता के प्रति अवधारणा और विश्वास समयानुकूल बदलते हैं किन्तु समलैंगिक सम्बंध कोई वैज्ञानिक विषय नहीं है जिसके निष्कर्ष और परिभाषाएं नई खोज के साथ बदल दिए जाएं। प्रकृति को लेकर व्याप्त अनेक धारणाएं और विश्वास वैज्ञानिक अनुसंधानों एवम अध्ययनों के बाद बदली हैं जिन्हें स्वीकार करने में कोई दिक्कत भी नहीं हुई किन्तु व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मौलिक अधिकार किसी भी तरह की ऐसी स्वच्छन्दता की अनुमति नहीं देते जो शाश्वत और अकाट्य सिद्धांतों के विरुद्ध  हो। समलैंगिक सम्बंध के बारे में भी यही कहा जा सकता है। प्रकृति ने जो लिंग भेद बनाया क्या व्यक्तिगत स्वतंत्रता उसे बदल सकती है। मु_ी भर लोग तो क्या पूरी दुनिया मिलकर भी कहे कि स्त्री और पुरुष  में कोई अंतर नहीं तो भी उसे सत्यता की कसौटी पर सही नहीं माना जा सकेगा। दो समलैंगिक व्यक्ति निजी तौर पर कैसे भी रहें किन्तु उसे सार्वजनिक करना या मौलिक अधिकार मानकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोडऩा उस विकृत मानसिकता का ही दुष्परिणाम है जो पश्चिमी जगत के वर्जनाहीन समाज में विकसित यौन विकृति से उत्पन्न होकर हमारे देश में घुसने का दुस्साहस कर रही है। यौन सम्बन्धों को लेकर भारतीय संस्कृति बेहद व्यवहारिक रही है। रक्त सम्बन्धों के साथ अनुवांशिकता के मदद्देनजऱ वैवाहिक रिश्ते तय करने के पीछे जो वैज्ञानिक सोच थी उसे उजागर करने वालों को पश्चिम नें नोबेल पुरस्कार दिया गया जबकि हमारे ऋषि मुनियों ने हज़ारों वर्ष पहले इसे बतौर सिद्धान्त स्थापित कर दिया था। लिव इन रिलेशनशिप के अलावा किराए की कोख जैसी विधियों के बढ़ते चलन ने भी परिवार नामक उस संस्था के लिए खतरा उत्पन्न कर दिया है जो भारत का आधार है। हाल ही में फिल्म क्षेत्र की कुछ हस्तियों के बिना विवाह किए किराए की कोख़ से मां और पिता बनने के बाद भी तरह - तरह के सवाल उठे थे। नि:संतान दंपत्तियों के लिए तो ये सब उचित भी मान लिया जाए किन्तु इसे आम बनाना घातक होगा। उसी आधार पर कहा जा सकता है कि समलैंगिक सम्बन्ध प्रकृति को लेकर अवधारणाएं बदलने का नहीं अपितु उस सत्य को अस्वीकार करने का प्रयास है जो किसी भी लिहाज से तर्कसंगत नहीं हो सकता। न्यायालय केवल कानूनी स्तर पर यदि सोचे तो निजी स्वतंत्रता और मौलिक अधिकार के नाम पर  काफी कुछ ऐसा होने लगेगा जो समाज द्वारा स्थापित उन नैतिक मानदंडों को ध्वस्त कर देगा जो लम्बे अनुसंधान, अध्ययन और अनुभव पर आधारित हैं।  इसके पहले कि सर्वोच्च न्यायालय किसी ऐसे निष्कर्ष को लाद दे जिसे स्वीकार करना मुश्किल हो, समाज को भी अपना मत खुलकर व्यक्त करना चाहिए। समलैंगिकता को कानूनी मान्यता मिलने से समाज में जो गन्दगी बढ़ेगी वह एक नए तरह के व्यभिचार का मार्ग प्रशस्त करेगी। समाज के जिम्मेदार लोगों को तत्काल अपने अभिमत के साथ मुखर हो जाना चाहिए क्योंकि चन्द लोगों की स्वछंद सोच को पूरे समाज का दृष्टिकोण मान लेना  दिमागी दिवालियापन ही कहा जाएगा।

-रवींद्र वाजपेयी

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