Tuesday 23 January 2018

दौलत का असमान बंटवारा : अराजकता फैलने का खतरा

आजकल रोजाना नए-नए आंकड़ों की जानकारी आती रहती है। ये भी कह सकते हैं कि अच्छी हो या बुरी, हर बात का आकलन उससे जुड़े आंकड़ों के आधार पर करने का चलन सा बन गया है। इनमें से सभी सीधे आम जनता से जुड़े हों ये जरूरी नहीं किन्तु गत दिवस आए कुछ आंकड़ों ने एक बार फिर ये सोचने बाध्य कर दिया कि विकास के जिन दावों के आधार पर भारत को विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनाने का ढोल पीटा  जाता है और 2018 में हम चीन को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था बन जाने को लेकर आत्ममुग्ध हैं, वे कितने व्यवहारिक हैं? जो जानकारी प्रसारित हुई उसके मुताबिक 2017 में  देश के भीतर सम्पत्ति की जो वृद्धि हुई उसका तकरीबन तीन चौथाई अर्थात 73ज् महज उन 1ज् धनकुबेरों के पास जा पहुंचा जिनकी तिजोरियां पहले से ही लबालब थीं। ये स्थिति केवल भारत की हो ऐसा नहीं है। पूरी दुनिया पर निगाह डालें तो हालात और भी बुरे हैं। एक तरफ जहां भौतिक प्रगति की तस्वीर दिन ब दिन रंगीन होती जा रही है वहीं दूसरी तरफ  आर्थिक विषमता में भी तेजी से वृद्धि देखने मिल रही है। अन्य देशों के लिहाज से देखें तो कुछ पूरी पृथ्वी की दौलत का बड़ा हिस्सा दबाए बैठे हैं और अपने स्वार्थों की पूर्ति के हिसाब से ही आर्थिक नीतियां बनाते-बिगाड़ते हैं। ताजा आंकड़ों ने एक बार फिर ये साफ  कर दिया कि चाहे भारतीय सन्दर्भ में हो या वैश्विक , विषमता रूपी अभिशाप पीछा नहीं छोड़ रहा। अपने देश का जहां तक प्रश्न है तो आज़ादी के पूर्व शोषण के चलते आर्थिक विषमता भारतीय समाज की पहिचान थी। अंग्रेजों ने भी ज़मींदारी और सामन्ती व्यवस्था को अपने लिए अनुकूल मानकर उसका पोषण किया। परिणामस्वरूप गरीबी यथावत रही। आज़ादी के बाद पहले ज़मीदारी खत्म हुई और फिर राजा-महाराजाओं को मिले अधिकार छीनकर समाजवाद का राग अलापा गया। सीलिंग कानून बनाकर बड़े भू स्वामियों से लेकर जमीनें भूमिहीनों को देने का अभियान भी चला। गरीब और वंचित वर्ग के सर्वतोमुखी उत्थान के लिए सभी राजनीतिक दलों ने सत्ता और विपक्ष में रहते हुए अपने-अपने ढंग से भूमिका का निर्वहन किया। अर्थव्यवस्था को लेकर जितने प्रयोग बीते 70 साल में किये गए उन सभी का उद्देश्य जन साधारण की बेहतरी ही बताया गया। समाजवाद से शुरू यात्रा उदारवाद के मौजूदा मुकाम पर आ पहुँची लेकिन जिस आम जनता के नाम पर सारे प्रपंच रचे गए वह आज भी खास बनने के लिए तरस रही है। पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के उत्थान के लिए हर शासक  प्रयासरत दिखाई देता है किंतु  वह जहां खड़ा है वहां से आगे नहीं बढ़ पा रहा तो इसकी वजह नीतियों के क्रियान्वयन में किया गया पाखंड रहा। गत दिवस जो आंकड़े आए उनमें समृद्धि का बखान तो है लेकिन उनका बंटवारा पूरी तरह अन्यायपूर्ण होने से उन पर गौरव नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो पुराने ज़मींदारों और सामंतों की जगह नए धनकुबेरों ने ले ली। आंकड़ों की बम्पर फसल हर वर्ष देश की प्रगति का प्रमाण पेश करती है किंतु ये प्रमाणपत्र तब फर्जी लगने लगता है जब करोड़ों लोग रोटी, कपड़ा,  मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और यहां तक कि शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाओं तक से वंचित हों। यदि 2017 में देश की कुल सम्पत्ति में हुई वृद्धि का 73ज् केवल 1ज् अरबपतियों के पास चला गया तब ये कहने में कोई बुराई नहीं है कि लोकतन्त्र आज भी सही मायनों में लागू नहीं हो सका। जनता के द्वारा , जनता के लिए और जनता के कहलाने वाले तंत्र की स्थापना के 70 वर्ष बाद भी यदि आर्थिक समृद्धि और संसाधनों के वितरण में ज़मीन और आसमान जैसा अंतर हो तब कुछ कहने के लिए ही नहीं बचता। राजनीतिक दलों का समूचा चिंतन चूंकि चुनाव जीतने पर केंद्रित होकर रह गया है इसलिए वे येन केन प्रकारेण मुकाबला जीतने के लिए कुछ भी करने में नहीं हिचकते किन्तु इससे वे सपने अधूरे ही रह जाते हैं जो 15 अगस्त 1947 से प्रतिदिन देखे और दिखाए जाते रहे हैं। आंकड़ों की इस नई फसल में पैदावार तो बहुत दिखती है लेकिन पूरा माल आधुनिक ज़मींदारों के गोदामों में जमा होना और शेष जनता के हिस्से छानन-बीनन आने की जो वास्तविकता है उसे केवल नीति आयोग की रिपोर्ट और बजट पूर्व की जाने वाली आर्थिक  समीक्षा तक सीमित रख़कर आगे बढ़ जाना देशहित में नहीं होगा। जिस तरह से विघटनकारी तत्व देश के हर हिस्से में सिर उठाते दिख रहे हैं उसका एक बड़ा कारण आर्थिक विषमता भी है। साम्यवाद नामक जिस व्यवस्था ने मालिक और मज़दूर का भेद मिटाने का दावा किया वह अपनी जन्मस्थली सोवियत संघ में ही अकाल मृत्यु का शिकार हो गई। उसकी दूसरी प्रयोगशाला बना चीन तो वह भी पूंजी के मायाजाल में उलझकर रह गया। क्यूबा में साम्यवाद ने व्यक्तिगत तानाशाही के बाद वंशवादी सत्ता का रूप ले लिया जिसका वीभत्स रूप उत्तर कोरिया में भी दिखाई दे रहा है। साम्यवाद से हटकर थोड़ा नरम रूप समाजवाद के तौर पर आया लेकिन वह भी भटकाव का शिकार हो गया। जिस वैश्वीकरण को आर्थिक उदारीकरण के नाम पर पेश किया गया वह शोषण का नया संस्करण बन गया। गत दिवस आए आंकड़ों से स्पष्ट हुआ कि पूरे विश्व के संदर्भ में देखें तो भारत की स्थिति कुछ बेहतर है लेकिन विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने की तरफ  बढ़ रहे देश में आर्थिक विषमता की वर्तमान स्थिति को यदि नहीं सुधारा गया तो इसका दूरगामी परिणाम अराजकता के रूप में सामने आना अवश्यम्भावी है। सबका साथ, सबका विकास को चुनावी नारे की बजाय वास्तविकता में तब्दील करना समय की सबसे बड़ी जरूरत है जिसे सियासती नफे-नुकसान से ऊपर उठकर देखना चाहिए वरना गांधी,लोहिया और दीनदयाल तीनों की आत्माएं स्वर्ग में भी चैन से नहीं रह पाएंगीं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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