Thursday 25 January 2018

निष्क्रिय और निरंकुश तंत्र के शिकंजे में फंसता गण

चारों तरफ  मची उथलपुथल के बीच गणतंत्र दिवस फिर आ गया। संविधान की ये वर्षगांठ यूँ तो पूरे देश के लिए आत्मगौरव की अनुभूति का अवसर होता है लेकिन इस वर्ष यह ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि संविधान और उसके अधीन चलने वाली व्यवस्था पर उठ रहे चाहे-अनचाहे सवाल हर समझदार भारतीय को झकझोर रहे हैं। बीते दिनों सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों द्वारा मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लांघने के बाद संविधान की महत्ता पर जो विमर्श चला उसका हश्र भी एक बुलबुले की तरह होता दिख रहा है और यही इस देश की त्रासदी है। जातिगत आरक्षण की मांग हो या बाबा राम रहीम जैसे स्वयंभू भगवानों के पर्दाफाश पर हुआ तमाशा, हर समय व्यवस्था जिस तरह लाचार होकर दम तोड़ देती है वह खतरनाक संकेत है जिसका ताजातरीन उदाहरण पद्मावत फिल्म के विरोध स्वरूप हो रही हिंसा है। गणतंत्र में गण और तंत्र दो अलग-अलग तत्व हैं। इन दोनों के बीच समन्वय और सन्तुलन से ही शासन व्यवस्था चला करती है लेकिन हमारे देश में गणतंत्र का सन्धि विच्छेद ही नहीं अपितु सम्बन्ध विच्छेद होने की स्थिति बन गई है जिसके तात्कालिक परिणाम तो जो हैं सो हैं ही किन्तु दूरगामी नतीजे बहुत ही भयावह होने के अंदेशे से इंकार नहीं किया जा सकता। उद्देश्य किसी एक या कुछ लोगों को दोष देने का नहीं वरन भविष्य में झांकने का प्रयास है जो ऐसे अवसरों की आवश्यकता होती है। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होते ही भारत अपनी मर्जी से शासन के संचालन का अधिकारी बन गया था। 15 अगस्त 1947 को राजनीतिक तौर पर आज़ादी मिली थी लेकिन जिस दिन देश का संविधान लागू हुआ उस दिन सही मायनों में हम स्वतंत्र हुए और इस कारण से 15 अगस्त जहाँ हर्षोल्लास का दिन है वहीं गणतंत्र दिवस दायित्वबोध के पुनस्र्मरण का अवसर। मौजूदा संदर्भ में देखें तो सर्वाधिक संकट में यदि कुछ है तो जिम्मेदारी का वह भाव जिसे हर कोई दूसरे पर ढाल कर दूर हो जाना चाहता है। देश की संसद से शुरू होकर गांव की पंचायत तक एक सी स्थिति है। जिसे देखो बहस में उलझा है। खुद को सही मानकर बाकी सबको गलत मानने की प्रवृत्ति का चर्मोत्कर्ष पूरे ढांचे को भीतर से कमजोर कर रहा है। यही वजह है कि सम्पर्क, संवाद, समन्वय और सौजन्यता की जगह संदेह और षडयंत्र और संघर्ष समूचे परिवेश पर अतिक्रमण कर बैठ गया है। जिस न्यायपालिका पर देश की असंदिग्ध आस्था थी वह खुद ही अपनी पवित्रता पर उंगली उठाने पर आमादा हो गई है। कानून बनाने वाले स्वयं को कानून के ऊपर मानने की सामन्ती मानसिकता ओढ़कर बैठ गए हैं। शासक और शासित के बीच बैठी नौकरशाही जिसके कंधों पर पूरे तंत्र को गतिशील बनाये रखने का दायित्व है, के गतिरोधक की भूमिका में आ जाने से सब कुछ चलता हुआ दिखने के बाद भी यदि ठहराव बना हुआ है तब ये मानकर चला जा सकता है कि स्थिति ठीक नहीं है। निहित स्वार्थ और संकीर्ण सोच से ग्रसित छोटे-छोटे समूह जिस तरह पूरे तंत्र को तहस-नहस करने में सफल हो रहे हैं उसकी प्रतिक्रियास्वरूप उसी तरह के कुकुरमुत्ते यत्र-तत्र-सर्वत्र उगते जा रहे हैं जिससे अव्यवस्था और अराजकता देश की पहिचान बनने लगे हैं। ये शुभ संकेत नहीं हैं और इनकी लगाई आग के धुएं में तमाम उपलब्धियां और सम्भावनाएं दृष्टि से ओझल हो रही हैं। सही बात ये है कि तन्त्र या तो  निष्क्रिय है या निरंकुश। उसकी वजह से अराजक तत्व तो उस पर हावी होकर अपनी मर्जी चला लेते हैं किंतु संविधान के पालन हेतु प्रतिबद्ध व्यक्ति उपेक्षित, प्रताडि़त और अपमानित होने बाध्य कर दिया जाता है। मंगल और चन्द्रयान जैसी छलांगे, मिसाइलों का सफल परीक्षण, डिजिटल तकनीक का विस्तार भले ही, मेरा देश बदल रहा है, का संकेत हों किन्तु  सच कहें तो जमीन पर हालात पूरी तरह विपरीत और निराशाजनक हैं। संविधान की वर्षगांठ ऐसे समय हो रही है जब संविधान को ठेंगे पर रखने का दुस्साहस बच्चों के खेल जैसा हो रहा है और सर्वोच्च न्यायालय जैसी संस्था का लिहाज और सम्मान भी ढलान पर है। संसद के प्रति श्रद्धा घटने के साथ ही उच्च संवैधानिक पदों की गरिमा का भी अवमूल्यन होता जा रहा है। कुल मिलाकर स्थितियां दिन ब दिन बद से बदतर होते जाना संविधान की सत्ता और महत्ता दोनों के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। राष्ट्रीय गौरव के जश्न के मौके पर निराशाजनक बातें करना बहुतों को अटपटा लग सकता है किंतु आज भी सच्चाई से मुंह चुराया जाए तो फिर आत्मावलोकन करने का अवसर ही कहाँ है? गणतंत्र दिवस के पावन पर्व पर हर जिम्मेदार भारतीय का फर्ज है कि वह संविधान और उससे संचालित व्यवस्था के मूल भाव को समझे। सबसे बड़ी विचारणीय बात ये है कि संविधान हमें संचालित करने हेतु अधिकृत है, हम उसे अपनी मर्जी से हांकने के अधिकारी नहीं। यह अवसर केवल झंडा वंदन, परेड देखने और सजावट का नहीं वरन चिंतन और मनन का है क्योंकि संविधान की प्रस्तावना में किसी पार्टी या नेता का नाम नहीं, हम भारत के लोग, लिखा हुआ है।
                  गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाओं सहित,
                                      रवीन्द्र वाजपेयी
                                          

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