Friday 19 January 2018

पद्मावत : समाज की सोच बदलने में पीढियां लग जाती हैं

संजय लीला भंसाली की आने वाली फिल्म का नाम पद्मावती से पद्मावत जरूर हो गया और सेंसर बोर्ड के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने भी उसके प्रदर्शन का रास्ता खोल दिया किन्तु राजपूतों के जो संगठन शुरू से विरोध करते आ रहे हैं वे अभी भी ऐंठे हुए हैं और कफ्र्यू लगाने से लेकर सिनेमा हॉल को नुकसान पहुंचाने जैसी धमकियां हवा में लहराई जा रही हैं। करणी सेना तो भंसाली के बारे में न जाने क्या-क्या कह रही है। अन्य लोग भी ईंट से ईंट बजाने की बातें कहकर खुद को राजपूती आन-बान-शान का आधुनिक अवतार साबित करने पर तुले हुए हैं। फिल्म 25 जनवरी को देश भर में प्रदर्शित होने वाली है। मप्र सहित कई भाजपा शासित राज्यों ने पद्मावत पर जो रोक लगाई थी उसे सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया। लेकिन फिल्म विरोधी तबका राजस्थान के आगामी चुनाव में भाजपा को देख लेने की चेतावनी के साथ आक्रामक रूप दिखाने पर आमादा है। इधर भाजपा की मुसीबत ये है कि न तो उसकी राज्य सरकारें सर्वोच्च न्यायलय के आदेश की अवहेलना कर सकती हैं और न ही वे पद्मावत के प्रदर्शन की अनुमति देकर राजपूतों को नाराज करने का साहस दिखा पा रही हैं। राजस्थान सहित मप्र में भी विधानसभा चुनाव की सरगर्मी बढ़ चली है जिसके कारण विरोध करने वाले भी कुछ ज्यादा ही जोश दिखा रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आधार पर फिल्म के प्रदर्शन का अंतरिम आदेश देते हुए मार्च में सुनवाई की तारीख तय कर दी लेकिन तब तक तो पद्मावत पर्दे से उतरकर इतिहास बनने की ओर बढ़ चुकी होगी। गत दिवस न्यायालय में बहस के दौरान यहां तक कहा गया कि कलाकार को इतिहास के साथ छेड़छाड़ की अनुमति मिलनी चाहिए जिसका जवाब दिया गया कि महात्मा गांधी को मदिरापान करते नहीं दिखा सकते। प्रधान न्यायाधीश ने फिल्म पर रोक का ये कहते हुए विरोध किया कि जब फूलन देवी पर बनी बैंडिट क्वीन दिखाई जा सकती है तब पद्मावत क्यों नहीं? मुद्दा ये है कि जब सेंसर बोर्ड ने फिल्म को कांटछांट के उपरांत  प्रदर्शन की अनुमति दे दी तब उसे रोकने का अधिकार राज्य सरकारों को कैसे दिया जा सकता है? अब भाजपा शासित राज्य सरकारें सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की काट ढूंढ रही हैं वहीं राजपूत संगठन और ऊंची पीठ में अपील करने की तैयारी में हैं। पहले उम्मीद थी कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से विवाद टल जाएगा किन्तु मामला भावनात्मक से ज्यादा राजनीतिक हो जाने के कारण आग बुझने की बजाय और भड़कती दिख रही है। चूंकि सेंसर बोर्ड भी भाजपा की केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त है इसलिये उसकी राज्य सरकारें भी पशोपेश में  हैं। कुल मिलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भावनाओं के बीच का द्वंद हमारे राष्ट्रीय जीवन का स्थायी हिस्सा बनता जा रहा है। जोधा-अकबर को लेकर भी ऐसा ही विवाद मचा था। ऐतिहासिक विषयों को लेकर बनी फिल्मों के कथानक को लेकर बवाल पहले भी होते रहे हैं। फिल्मी पटकथा में नाटकीयता और मनोरंजन के मदद्देनजऱ तथ्यों से छेड़छाड़ स्वाभाविक होती है। साहित्यिक कृतियों के फिल्मांकन में भी बदलाव होते हैं लेकिन इतिहास के साथ जुड़ी जनभावनाएं कुछ ज्यादा ही गहरी होती हैं। हॉलीवुड में भी ऐतिहासिक घटनाओं और चरित्रों पर भव्य फिल्में बनती हैं किंतु वहां पहले से काफी शोध कर लिया जाता है जिससे विवाद कम होते हैं। भारत में मुगल ए आज़म, अनारकली,  रुस्तम सोहराब , सिकंदर ए आज़म जैसी फिल्में बनीं और सफल भी रहीं। पौराणिक प्रसंगों पर भी अनेक फिल्में सुपर हिट हुईं। संतोषी माता पर बनी फिल्म ने तो कमाई के रिकार्ड बना डाले थे। लेकिन शायद ही विवाद हुआ हो किन्तु बीते कुछ समय से ऐतिहसिक घटनाओं एवम परंपराओं को लेकर कुछ ज्यादा ही ऊधम होने लगे हैं। हिन्दू समाज की मुख्य आपत्ति ये होती है कि सारे विवादास्पद विषय उसी से जुड़े होते हैं जबकि इस्लाम और ईसाइयत जैसे धर्मों को लेकर अभिव्यक्ति की आज़ादी का साहस नहीं दिखाई देता। प्रधान न्यायाधीश ने पद्मावत पर रोक हटाते हुए जो कहा वह कानूनन सही है किंतु कला के नाम पर हुसैन द्वारा हिन्दू देवियों के नग्न चित्रांकन का विषय हो या ऐतिहासिक पात्रों के गलत फिल्मांकन का, दोनों में छेड़छाड़ सदैव हिंदुओं से जुड़े विषयों पर होने की वजह से गुस्सा फूट पड़ता है। निश्चित रूप से भावनाएं भड़काने वालों का मकसद जो दिखता है वह होता नहीं किन्तु हर विवाद की जड़ में चूंकि वोट है इसलिए बात कहीं से शुरू होकर कहीं और चली जाती है। पद्मावत को लेकर हो रहा विरोध कितना जायज है ये तो फिल्म देखकर ही पता चलेगा लेकिन भंसाली द्वारा फिल्म का नाम बदलने के साथ ही कुछ दृश्य बदलने पर कहा जा सकता है कि वे भी आपत्तियों से कुछ हद तक ही सही सहमत तो थे। रानी पद्मावती का प्रसंग राजस्थान की गौरवशाली बलिदानी परंपरा का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। अद्वितीय सौंदर्य की धनी पद्मिनी का जौहर भारतीय नारी द्वारा आत्म  सम्मान की रक्षा के लिए जीवन की आहुति देने का अनुपम उदाहरण है। ऐसे पात्र को महज मनोरंजन का विषय बनाना अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उचित नहीं ठहराया जा सकता। हिन्दू देवी देवताओं का विदेशों में अपमान होने पर भी हमारे यहां बवाल मच जाता है तब पद्मावत तो भारत में ही बनी फिल्म है। सलमान रुश्दी, तस्लीमा नसरीन और डेनमार्क के कॉर्टूनिस्ट को लेकर मुस्लिम समुदाय की नाराजगी स्थायी है। इंदिरा गांधी पर बनी फिल्म पर भी कांग्रेसजनों ने खूब उत्पात मचाया। ये सब देखते हुए पद्मावत को यदि चित्तौड़ के राज परिवार सहित राजपूत समुदाय ने आपत्तिजनक माना तो उसे पूरी तरह नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। फिल्म प्रदर्शित होगी या नहीं और दर्शक उसे भाव देंगे अथवा नहीं ये तो 25 जनवरी को ही पता चल पाएगा किन्तु जिस तरह से उसका विरोध हो रहा है वह अच्छा संकेत नहीं है। भंसाली उच्च कोटि के फिल्म निर्माता हैं जिनकी पिछली फिल्में काफी भव्य और प्रभावशाली रहीं लेकिन उन्हें भी ये ध्यान रखना चाहिये कि भारत विविधताओं से भरा देश है जहां इतिहास और परम्पराओं को लेकर भावनाएं काफी असरकारी होती हैं और उनके आगे कोई कानून कारगर नहीं होता। ये स्थिति सही है या गलत इस पर सतही बहस से निर्णय करना सम्भव नहीं हो सकता क्योंकि भावनाएं किसी की गुलाम नहीं होतीं और फिर किसी व्यक्ति की धारणा को तो बदला भी जा सकता है किंतु पूरे समाज या उसके बड़े हिस्से की सोच को बदलने में दशक नहीं पीढिय़ां लग जाती हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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