Saturday 20 January 2018

आम आदमी पार्टी : सत्ता से ज्यादा साख पर खतरा

दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की सिफारिश चुनाव आयोग द्वारा राष्ट्रपति को भेजे जाने पर भी यद्यपि अरविंद केजरीवाल की सरकार को कोई खतरा नहीं है लेकिन इससे नैतिकता के उसके दावे जरूर कमजोर पड़ गए हैं। उक्त 20 विधायकों को संसदीय सचिव बनाकर अलग से वे सभी सुविधाएं दी गईं जो कमोबेश मंत्री को मिला करती हैं। दरअसल आम आदमी पार्टी के 67 विधायक जीत जाने के कारण श्री केजरीवाल के सामने उन सबको बांधे रखना काफी कठिन था। अधिकतर की कोई सियासी पृष्ठभूमि अथवा सैद्धांतिक प्रतिबद्धता भी नहीं थी। ऐसे में दलबदल की आशंका को टालने के लिए पार्टी ने अपने अधिकतर विधायकों को पिछले दरवाजे से सत्ता की मलाई खाने का इंतज़ाम कर दिया। वैसे अन्य राज्यों में भी ऐसा होता आया और अभी भी हो रहा है किन्तु उन सभी ने लाभ के पद को लेकर ऐसा कानून बना रखा है जिससे विधायकों की सदस्यता सुरक्षित बनी रहती है। दिल्ली में चूंकि संसदीय सचिव को लाभ के पद से बाहर नहीं किया गया इसलिए चुनाव आयोग के समक्ष पहुंची शिकायत पर उक्त कार्रवाई की गई। हालांकि अभी आम आदमी पार्टी दिल्ली उच्च न्यायालय में उक्त फैसले को रुकवाने हेतु प्रयासरत है और हो सकता है वह सफल भी हो जाए लेकिन इससे उसे छवि का जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई मुश्किल है। श्री केजरीवाल के पास इस बात का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है कि दिल्ली सदृश एक महानगर में ढेर सारे जनप्रतिनिधियों को जनता के धन पर ऐश करने की सुविधा देने का औचित्य क्या था? आम आदमी की प्रतिनिधि बनकर ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता में आई इस नई-नवेली पार्टी को देश में नई राजनीति का ध्वजावाहक माना गया। यही नहीं श्री केजरीवाल तो भविष्य में नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर देखे जाने लगे। भ्रष्टाचार विरोधी और सादगी भरी पारदर्शी राजनीति के उसके दावों ने पूरे देश को आकर्षित किया। अन्ना आंदोलन की कोख से जन्मी पार्टी और अपनी सीधी-सरल शख्सियत के कारण आम जनता के  नुमाइंदे के तौर पर उभरे श्री केजरीवाल में लोगों को एक ऐसा महानायक महसूस हुआ जो विश्वास के संकट से देश को उबारकर सही रास्ते पर ले आएगा किन्तु 70 में 67 सीटें जीतकर इतिहास रचने वाली आम आदमी पार्टी बहुत जल्द ही आम पार्टी बन गई। मंत्रियों की संख्या सीमित होने के प्रावधान की काट निकालते हुए अधिकतर विधायकों को अप्रत्यक्ष रूप से मंत्री की सुविधाएँ दे दी गईं। विधायकों को देश में सर्वाधिक वेतन देने का प्रस्ताव भी पारित करवा लिया गया। संसदीय सचिव के अतिरिक्त भी अनेक ऐसे पद सृजित किये गए जिनके जरिये विधायकों को सत्ता के सारे सुख और सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा सकें। इसका कानूनी पक्ष जो है सो है किंतु श्री केजरीवाल ने ऐसा करते हुए पार्टी की उन घोषणाओं को यमुना में डुबो दिया जिनमें जनप्रतिनिधि के शासक की बजाय सेवक के रूप में काम करने का वायदा था। विधायकों को मिलने वाले सर्वाधिक वेतन के बाद भी उन्हें अतिरिक्त वेतन एवं सुविधाओं की क्या जरूरत पड़ गई इसका कोई सार्थक उत्तर आम आदमी पार्टी के पास नहीं है। पार्टी शुरू से ही भाजपा और चुनाव आयोग को कोसने में लगी हुई थी और कल भी उसने यही किया। यहां तक कि 23 जनवरी को सेवा निवृत्त हो रहे मुख्य चुनाव आयुक्त पर श्री मोदी का कर्ज उतारने की तोहमत लगाते हुए हरियाणा में भाजपा के संसदीय सचिवों को इसी आधार पर हटाने का दबाव भी बना दिया। आयोग की सिफारिश राष्ट्रपति के पास भेजी जाएगी जो उस पर अंतिम फैसला करेंगे किन्तु जैसी जानकारी आई उसके अनुसार वे चुनाव आयोग की सिफारिशें मानने बाध्य हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा सोमवार को क्या फैसला दिया जाता है उस पर भी सबकी निगाहें लगी रहेंगी किन्तु इस प्रकरण ने एक बार फिर जनता के पैसे को जनप्रतिनिधियों के राजसी ठाठबाट पर लुटाने की प्रवृत्ति पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस की जरूरत उत्पन्न कर दी है। हरियाणा में भाजपा विधायक हों या दूसरे राज्यों के जनप्रतिनिधि, यदि उन्हें भी मंत्री पद जैसे वेतन,भत्ते एवं अन्य सुविधाएं दी जा रही हैं तो उन पर भी ऐसी कार्रवाई अपेक्षित है। भले ही वहां लाभ के पद को कानून बनाकर अयोग्यता से मुक्त कर दिया गया हो। चुनाव आयोग के फैसले पर आम आदमी पार्टी की आलोचनात्मक और आक्रामक प्रतिक्रिया तथा केजरीवाल सरकार पर कांग्रेस-भाजपा का हमलावर रुख राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित है लेकिन लगे हाथ माल ए मुफ्त दिल ए बेरहम की परिपाटी को समाप्त करने पर गम्भीरता से विचार जरूरी हो गया है। राज्यों के भीतर निगम-मंडलों  में सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं को बिठाकर मंत्री पद का दर्जा देने से करोड़ों रुपये हर साल खर्च होते हैं। विदेश यात्राएं करने का फैशन भी चल पड़ा है। ये सब एक तरह की फिजूलखर्ची ही है। अतीत में काँग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और  खंडवा से भाजपा सांसद कृष्ण मुरारी मोघे लाभ के पद के फेर में सदस्यता गंवा बैठे थे। दिल्ली के 20 विधायकों की सदस्यता खत्म हो जाने के बाद कुछ और पर भी तलवार लटक रही है। हालांकि इससे श्री केजरीवाल की सत्ता को खतरा नहीं है लेकिन आम आदमी पार्टी की साख को जरूर धक्का पहुंचा है। राज्यसभा सीटों पर पार्टी के वफादारों को नजरंदाज करते हए दो करोड़पतियों का चयन करने से पार्टी और श्री केजरीवाल दोनों की जमकर आलोचना हुई। यहां तक कि पार्टी के प्रबल समर्थक बने पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को भी श्री केजरीवाल का फैसला नागवार गुजरा। उसके बाद अब चुनाव आयोग ने भी आम आदमी पार्टी द्वारा किये जाने वाले नैतिकता और सादगी के दावों की हवा निकाल दी है। सियासी वातावरण में ताजी हवा का यह झोका भी इतनी जल्दी दिल्ली के वायुमण्डल की तरह प्रदूषित हो जाएगा ये देखकर आश्चर्य के साथ ही दुख भी होता है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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