Wednesday 3 January 2018

दलितों के बीच उमर खालिद की मौजूदगी षड्यंत्र का प्रमाण


महाराष्ट्र में बीते दो दिनों में जो कुछ घटित हुआ उसे आकस्मिक मानकर उपेक्षित करना खतरनाक होगा। 200 साल पहले हुई एक ऐतिहासिक घटना की स्मृति में होने वाले वार्षिक जलसे में लाखों की भीड़ ही इस आशंका को प्रबल कर देती है कि दलितों की आड़ में सामाजिक विद्वेष फैलाकर राजनीतिक उल्लू सीधा करने हेतु षडय़ंत्र रचा गया। वरना गुजरात में नए नए उभरे दलित चेहरे जिग्नेश मेवानी की वहां उपस्थित का कोई औचित्य नहीं था। उनके साथ जेएनयू के छात्र नेता उमर खालिद के आने से भी साफ  हो गया कि जान बूझकर आग भड़काने का कुचक्र रचा गया। स्मरणीय है कि ये वही खालिद है जिन पर भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह जैसे देश विरोधी नारे लगाने का मुकदमा चल रहा है। दलितों के इस सालाना आयोजन में इसके पहले कभी कोई बड़ा दलित नेता गया हो ये भी कोई नहीं जानता। महाराष्ट्र दलित राजनीति का पुराना केंद्र रहा है। डॉ भीमराव आम्बेडकर की कर्मभूमि होने से वहां दलित चेतना भी काफी है लेकिन न कोई कांशीराम पनपा और न ही मायावती। यहां तक कि डॉ आम्बेडकर के पुत्र प्रकाश का भी दलित वर्ग में कोई खास असर नहीं है। सुशील कुमार शिंदे मुख्यमंत्री बने जरूर लेकिन वे भी एक क्षेत्र विशेष में ही असर रखते हैं। और भी दलित चेहरे राजनीति में उभरे लेकिन वे शिखर पर नहीं पहुंच सके। आम्बेडकर जी द्वारा बनाई रिपब्लिकन पार्टी के रूप में दलितों की जो राजनीतिक विरासत थी वह भी कुछ नेताओं के आपसी मतभेदों में बंट गई जिसकी वजह से प्रकाश भी केवल नाममात्र के दलित नेता बनकर रह गए। इन स्थितियों में पेशवाओं की पराजय के 200 साल पूरे होने के बहाने दलितों को गोलबंद करने के पीछे निश्चित रूप से गहरी साजिश की बू आ रही है अन्यथा जिग्नेश के साथ उमर खालिद का वहां क्या काम था ? कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बिना देर किए जिस तरह से  भाजपा और रास्वसंघ पर आरोप मढ़ दिया वह भी आश्चर्यजनक है। अभी तो मामले की प्रारंभिक जांच तक नहीं हो सकी है।  भीमा - कोरेगांव नामक जिस जगह अंग्रेजों के हाथों पेशवा की हार का स्मारक बना है उसे दलितों से कब और कैसे जोड़ा गया ये भी अध्ययन का विषय है क्योंकि वह युद्ध जातीय आधार पर नहीं लड़ा गया था। अंग्रेजों की सेना में महार नामक दलित जाति के सैकड़ों सैनिकों के कारण उस विजय को सवर्ण विरुद्ध दलित का नाम देना अंग्रेजों की फूट डालो राज करो नीति का ही नतीजा था। बावजूद इसके 1 जनवरी को उक्त स्मारक पर जमा होने वाले हज़ार दो हज़ार दलितों की मौजूदगी पर कभी कोई विवाद नहीं हुआ लेकिन इस वर्ष 200 वर्ष के नाम पर लाखों का हुजूम एकत्र करने के पीछे कौन सी ताकतें थीं इसका खुलासा भी होना जरूरी है। जिन सवर्णों द्वारा हमले की बात कही जा रही है वह भी बेमानी है क्योंकि इतने बड़े  समूह पर हमला करने की बात समझ से परे है। धीरे धीरे जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनके मुताबिक जिग्नेश और उमर खालिद की उपस्थिति और भड़काऊ भाषण ही सारे फसाद की जड़ बने। महाराष्ट्र सरकार की गलती इस स्तर पर तो स्वीकार करनी ही पड़ेगी कि वह कानून व्यवस्था की स्थिति का सही आकलन नहीं कर पाई। वह ये सोचकर बैठी रही कि दलित समुदाय आएगा और जलसे में शरीक होकर लौट जाएगा किन्तु राज्य सरकार की प्रशासनिक मशीनरी भीतर भीतर पक रही खिचड़ी की गंध नहीं ले पाई जिसका लाभ उठाकर शरारती तत्व अपना खेल दिखा गए। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के ऊंची जति से होने को भी मुद्दा बना लिया गया। एक दलित की मौत निश्चित रूप से निन्दनीय और दुखद थी किन्तु उसके बाद जिस तरह से महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में तोडफ़ोड़, आगजनी और हिंसक आंदोलन किया गया वह दर्शाता है कि गुजरात चुनाव में फैलाया गया जातीय घृणा का ज़हर लुढ़ककर महाराष्ट्र में आ गया है। भीतरखानों की खबर है कि महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव लोकसभा के साथ करवाने की तैयारी भाजपा कर रही है। इसके पीछे उद्देश्य शिवसेना की दादागिरी से मुक्ति पाना है। इसका आभास होते ही राज्य की सियासत को जाति के जंजाल में उलझाने का षड्यंत्र रचते हुए 200 साल पुरानी घटना को माध्यम बना लिया गया जिसे लेकर अब तक का कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ। पूरे घटनाक्रम में महाराष्ट्र सरकार खलनायक बनकर उभरी तो उसकी वजह पूर्वानुमान लगाने में उससे हुई चूक ही रही किन्तु महाराष्ट्र के दलित नेताओं को  चाहे वे रामदास आठवले हों या प्रकाश आम्बेडकर, ये सोचना चाहिए कि दलित वर्ग को भड़काकर अपना उल्लू सीधा करने वाले उनके हितचिंतक नहीं अपितु शत्रु हैं जो कुछ अदृश्य शक्तियों के एजेंट बनकर देश को बांटने के षड्यंत्र को अंजाम देने में लगे हुए हैं वरना, उमर खालिद जैसे देश विरोधी शख्स की दलितों के जमावड़े में क्या जरूरत थी?  आश्चर्य की बात ये है कि जो राजनीतिक दल राजनीति में धर्म के प्रवेश पर नाक सिकोड़ते हैं वे ही जाति के नाम पर मतदाताओं को बांटकर अपनी स्वार्थ सिद्धि करने के लिए समाज के विघटन का आधार तैयार कर रहे हैं। दलितों को समाज की मुख्य धारा में जोड़कर सामाजिक समरसता बनाने की तमाम कोशिशों को ऐसी घटनाओं से जो नुकसान होता है उसे दलित वर्ग नहीं समझता वरना वह अधकचरे और षड्यंत्रकारी नेताओं से बचकर रहता। दुख की बात ये है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तक क्षणिक लाभ हेतु उन जातिवादी नेताओं को सिर पर बिठा रहे हैं जो देश को ऐसे गड्ढे में ढकेलने पर आमादा हैं जिससे निकलना बेहद कठिन होगा। चुनाव तो आते जाते रहेंगे लेकिन उसके लिए जिग्नेश और उमर खालिद जैसों की मदद लेना आत्मघाती होगा। जिन ज़हरीले नागों के फन कुचलना चाहिए उन्हें दूध पिलाना किसी भी तरह से बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। एनसीपी नेता शरद पवार का ये कहना सही है कि सभी दलों को आगे आकर महाराष्ट्र को आग में झोंकने के प्रयासों को बेअसर करना चाहिए। मराठा आरक्षण की मांग के चलते दलितों के साथ टकराव की परिस्थितियाँ किसी बड़े तूफान का संकेत है जिससे समय रहते बचाव करना जरूरी है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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