Wednesday 27 May 2020

श्रमिक एक्सप्रेस को भी राजधानी जैसा महत्व मिले



जिस तरह की परिस्थितियाँ देश में बनी बु6ईं हैं उसमें बात-बात पर शासन-प्रशासन की आलोचना ठीक नहीं लगती किन्तु कुछ गलतियाँ ऐसी हैं जिन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है, जिससे उनकी पुनरावृत्ति न हो। प्रवासी श्रमिकों को लेकर जा रही अनेक श्रमिक एक्सप्रेस रेलगाड़ियों द्वारा घंटो का सफर कई दिनों में करने की जो बात सामने आई उस पर रेल मंत्री या उनके विभाग की सफाई गले नहीं उतरती। रेलगाड़ी का परिचालन पूरी तरह तकनीकी मामला है। इंजिन में बैठा ड्राइवर अपनी मनमर्जी से उसे कहीं भी नहीं मोड़ सकता। यदि किसी ट्रेन का मार्ग बदला जाता है तो उसमें ड्राइवर की भूमिका नहीं होती। ऐसे में ये गहन जाँच का विषय है कि मुम्बई या अन्य किसी स्थान से बिहार के लिये निकली रेल गाड़ी उड़ीसा कैसे जा पहुँची और वह भी 16-18 घंटों की बजाय हफ्ते भर के विलम्ब से। इसके अलावा श्रमिक एक्सप्रेस गाड़ियों को स्टेशन से दूर घंटों रोके रहने की शिकायतें भी बड़ी संख्या में आ रही हैं। भीषण गर्मी में साधारण रेल के कहीं खड़े हो जाने पर यात्री कितने हलाकान होते हैं ये किसी से छिपा नहीं है। और फिर श्रमिक एक्सप्रेस से सफर करने वाले लोग पहले से ही खून के आंसू रो चुके थे। उनको भोजन-पानी दिए बिना घंटों गाड़ी बिना स्टेशन के रोके रखना और एक-दो दिन के सफर को हफ्ते भर में पूरा करने जैसी भयंकर भूल पर रेलमंत्री और संबंधित अधिकारी बजाय आधारहीन सफाई देने के अगर सीधे-सीधे माफी मांगते हुए जिम्मेदार लोगों पर दंडात्मक कार्रवाई की बात कहते तो वह ज्यादा सही होता। शुरुवात में तो श्रमिक एक्सप्रेस बिना रुके लम्बी-लम्बी दूरी तय करते हुए ज्यादा से ज्यादा फेरे लगा रही थीं। जिन स्टेशनों पर सवारियों को भोजन-पानी देने की व्यवस्था होती या रेलवे के स्टाफ को बदलना होता , वहीं उसे रोका जाता था परन्तु ज्यों-ज्यों गाड़ियों की संख्या बढ़ती गयी रेलवे का ढर्रा भी वापिस लौटने लगा। भारतीय रेलवे दुनिया की सबसे बड़ी रेल व्यवस्था है। गर्मियों में यात्रियों की भीड़ के मद्देनजर विशेष गाड़ियां चलाई जाती हैं। लेकिन इस वर्ष कोरोना की वजह से लगाये गये लॉक डाउन के कारण यात्री गाड़ियों का परिचालन लम्बे समय तक बंद रहा। मालगाड़ियां भी तुलनात्मक रूप से कम ही चलीं। ऐसे में श्रमिक एक्सप्रेस चलने से रेलवे पर अतिरिक्त बोझ आया ऐसा भी नहीं था। और फिर प्रवासी श्रमिकों की बड़ी संख्या देखते हुए ये जरूरी था कि ट्रेन निर्धारित समय पर अपने गन्तव्य तक पहुंचकर वापिस लौटें। लेकिन प्रारम्भिक मुस्तैदी के बाद रेलवे की ढीलपोल सामने आने लगी। ऐसे समय में इस तरह की गलतियाँ इस बात का संकेत हैं कि इतने बड़े संगठन में अभी तक पेशेवर कार्यप्रणाली नहीं आ सकी। जिस तरह की आपदा से देश गुजर रहा है और करोड़ों प्रवासियों को उनके गाँव में पहुंचाना एक राष्ट्रीय आवश्यकता बन गई है तब इस विभाग से अपेक्षा है कि वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन पूरी प्रामाणिकता के साथ करे। हालांकि शुरुवाती चरण में श्रमिक एक्सप्रेसों ने जीवनदायिनी की भूमिका का निर्वहन किया किन्तु बाद में वे सरकारी कार्यप्रणाली का नमूना पेश करने लगीं। रेलमंत्री को ये नहीं भूलना चाहिए कि श्रमिक एक्सप्रेस के माध्यम से प्रवासी मजदूरों की सहायता करने का ये प्रयास अव्यवस्था का शिकार होने से उन श्रमिकों के मन में बजाय संतुष्टि के नाराजगी का भाव उत्पन्न हो रहा है। सोचने वाली बात है कि इस भीषण गर्मी में 18-20 घंटों की यात्रा यदि हफ्ते भर में पूरी हो तो साधारण डिब्बे में बैठे यात्री की क्या दशा हुई होगी ? और कोई देश होता तो यात्रियों को मुआवजा देना पड़ जाता। लेकिन हमारे देश में जिम्मेदार लोग अफ़सोस करने में भी कंजूसी करते हैं। आपदा में किसी भी समाज और देश की पेशेवर दक्षता और संवेदनशीलता की परीक्षा होती है। ये कहना गलत नहीं होगा कि जिन भी राज्यो में दूसरे राज्यों के श्रमिक रह रहे थे वहां के शासन-प्रशासन ने अव्वल दर्जे की लापरवाही या शरारत की ,  वरना प्रवासी श्रमिकों की घर वापिसी एक राष्ट्रीय त्रासदी नहीं बनी होती। इस सम्बन्ध में महाराष्ट्र और गुजरात सरकार विशेष रूप से कठघरे में खड़े करने लायक हैं। हालाँकि अब तक करोड़ों प्रवासी श्रमिक अपने स्थानों तक लौट चुके हैं लेकिन अभी भी लाखों बाकी हैं। उन्हें पैदल जाने से रोकने हेतु बसों की व्यवस्था किये जाने के अलावा श्रमिक एक्सप्रेसों की संख्या भी बढ़ाई गई। इस काम में भी अनेक राज्यों ने निर्णय लेने में विलम्ब किया। बहरहाल अब जबकि काफी काम हो चुका है इसलिए रेलवे को देखना चाहिए कि उसके अच्छे प्रयास पर बदनामी के दाग न लग जाएं। रेलमंत्री पियूष गोयल को चाहिए वे श्रमिक एक्सप्रेस के परिचालन को राजधानी एक्सप्रेस जैसा ही महत्व प्रदान करें क्योंकि इस समय प्रवासी मजदूर पूरे देश की जिम्मेदारी हैं और उन्हें भी ये महसूस होना चाहिए कि देश उनका भी उतना ही है जितना सम्पन्न लोगों का।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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