Tuesday 5 May 2020

शराब दुकानें खोलने की जल्दी क्या थी



वही हुआ जो होना था। एक बार में 5 लोगों की उपस्थिति, 2 गज की दूरी और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे निर्देश शराब की तलब के आगे हवा-हवाई हो गए। इतनी मारामारी तो मुफ्त भोजन वितरण में भी कहीं नहीं दिखी। सुबह 7 बजे दुकानें खुलना थीं लेकिन लोग 5 बजे से ही आकर खड़े हो गए। लॉक डाउन के बाद अनाज और किराना  खरीदने के लिए भी लोग इस तरह नहीं भागे थे। टीवी समाचारों के जरिये शराब दुकानों के जो दृश्य देश भर से देखने में मिले वे चौंकाने वाले कम चिंता में डालने वाले ज्यादा थे। लॉक डाउन के माध्यम से लोगों के बीच शारीरिक दूरी का एकमात्र उद्देश्य  कोरोना संक्रमण को रोकना था। उसमें काफी हद तक सफलता भी मिलती दिख रही थी लेकिन गत दिवस शराब दुकानें खुलते ही इतने दिनों की मेहनत पर शराब फिर गयी। अनेक लोग तो पूरा का पूरा बक्सा उठाकर ऐसे चले आ रहे थे जैसे इसके बाद शराब बनना बंद होने वाली हो। पुरुषों के अलावा आधी आबादी की कतारें महिला सशक्तीकरण का जीवंत प्रमाण पेश कर रहीं थी। टीवी चैनलों को भी एक विषय मिल गया कोरोना के कारण उत्पन्न बोरियत को दूर करने का। शराब खरीदने वाले बिना शरमाये या घबराए साक्षात्कार दिए जा रहे थे। कुल मिलाकर ऐसा लगा ही नहीं कि महामारी का कोई भय है। सरकार की मजबूरी ये है कि उसे राजस्व चाहिए और शराब उसके लिए सबसे सरल जरिया है। कल शाम तक ये आंकड़े भी आने लगे कि किस राज्य को कितनी कमाई हुई ? लेकिन इस निर्णय की जिस तरह आलोचना हो रही है उससे एक नई बहस  शुरू हो गई है। शराब बुराई का कारण है या सरकारी कमाई का जरिया , इसे लेकर मतभिन्नता सदैव रही है। उसके सार्वजनिक उपयोग को लेकर पहले जैसी झिझक या अपराधबोध भी नहीं रहा। अब तो वह आधुनिक जीवनशैली के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा और व्यवसायिक सफलता का पैमाना भी मानी जाने लगी है। कुछ लोग उसे स्वास्थ्यवर्धक मानकर भी उसके सेवन का औचित्य साबित करते हैं। लेकिन कोरोना संक्रमण के इस दौर में लगभग सवा महीने से शराब की बिक्री रुकी होने के बाद अचानक उसे शुरू करने से जो अव्यवस्था फैली उसने इस बात की जरुरत पैदा कर दी है कि उसको लेकर कोई स्थायी नीति बननी चाहिए। वह बिहार और गुजरात में बुरी क्यों है और बाकी राज्य उसे बुरा क्यों नहीं मानते ये भी स्पष्ट होना चहिये। गुजरात को छोड़ भी दें जो औद्योगिक दृष्टि से काफी विकसित है किन्तु बिहार जैसे राज्य को तो राजस्व की भरपूर जरूरत है। लेकिन उसने भी शराब पर रोक लगा रखी है। लोगों का कहना है कि लॉक डाउन के दौरान भी चूंकि शराब की बिक्री अवैध रूप से होती रही इसलिए सरकार को लगा कि इससे बेहतर है शराब दुकानें खोल दी जाएं जिससे उनसे होने वाली आय उसके खजाने में जमा हो सके। तर्कों और तथ्यों के आधार पर शराब के पक्ष में बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन उसके जो सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभाव हैं उनके आधार पर उसके सेवन को नुकसानदेह माना जाता है। और वह गलत भी नहीं है। निम्न आय वर्ग के बीच शराब से किस तरह परिवार बर्बाद होते हैं इसके लिये किसी शोध की आवश्यकता नहीं है। शराब से होने वाली राजस्व आय से ज्यादा उसके कारण पैदा होने वाली समस्याओं के समाधान पर खर्च हो जाता है। सामाजिक वातावरण खराब होता है , सो अलग। बीते सवा महीने से शराब बंदी की वजह से किसी भी प्रकार की शिकायत नहीं मिली। किसी राजनेता अथवा संगठन ने भी उसके बारे में कोई मांग नहीं की। कुछ राज्य सरकारों ने ही अपने राज्स्व में कमी के नाम पर प्रतिबन्ध हटाने का दबाव बनाया। लेकिन कल पहले दिन ही जो स्थितियां सामने आईं उन्हें देखते हुए ये साबित हो गया कि शराब की लत इंसान को किस तरह से विवेकशून्य बना देती है। बगैर पढ़े लिखे लोगों की बात न भी करें किन्तु सुशिक्षित वर्ग भी जिस तरह से शराब के लिए अपनी जि़न्दगी खतरे में डालने पर आमादा दिखा वह देखकर अचरज कम दु:ख ज्यादा हुआ। मजे की बात देखिये कि मप्र के जिन शहरों को रेड जोन में मानकर शराब बिक्री के लिए प्रतिबंधित किया गया उन्हीं के ग्रामीण क्षेत्रों में उसकी अनुमति दे दी गई। लेकिन अब सुना है शराब विक्रेता दुकान नहीं खोलना चाहते जबकि सरकार की मंशा है शराब बेची जाए। हो सकता है विक्रेताओं को अवैध बिक्री वाली स्थिति रास आ रही हो। लेकिन इस सबसे हटकर अब सभी राज्य सरकारों को मिल बैठकर पूरे देश के लिए एक समान शराब नीति बना लेनी चाहिए। वह अच्छी है तो उसे लेकर होने वाला अपराधबोध खत्म हो और नहीं तो फिर खुलकर उसकी बुराई सामने लाई जाएं। शराब से कमाई करने वाली सरकार शराब बंदी का अभियान चलाये और नशा मुक्ति केंद्र में जाकर वे अधिकारी लोगों को समझाएं जो खुद शाम को ऑफीसर्स क्लब में पीकर धुत हो जाते हों, तो इस पाखंड से कोई लाभ नहीं है। शराब बिक्री पर अचानक प्रतिबंध हटाने से पैदा हुई अव्यवस्था को भले ही स्वाभाविक प्रक्रिया कहकर उसका बचाव किया जाए किन्तु इस बात का जवाब कौन देगा कि जब सब कुछ बंद है तो शराब की दुकानें खोलने की ऐसी कौन सी जल्दी पड़ी थी?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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