Thursday 27 December 2018

चुनावी एकता पर भारी मलाईदार विभाग


मप्र  में नई सरकार बन गई। मंत्रीमंडल ने भी शपथ ले ली। उम्मीद थी कि कल शाम तक विभागों का बंटवारा हो जाएगा और आज से मंत्रीगण अपने मंत्रालय का प्रभार लेकर काम शुरू कर देंगे। मुख्यमंत्री कमलनाथ  तेजी से काम करने के लिए जाने जाते हैं। उन्हें ये एहसास है कि लोकसभा  चुनाव करीब होने से उनकी सरकार के पास मतदाताओं को खुश करने के लिये बहुत ही  कम समय है। किसानों की कर्जमाफी का निर्णय तो उन्होंने तत्काल ले लिया था किंतु उस पर अमल कब तक और कैसे होगा ये सवाल अभी तक अनुत्तरित है। दूसरी तरफ  यूरिया की कमी ने पूरे प्रदेश में किसानों को नाराज कर दिया और वे सड़कों पर उतरने मज़बूर हो गए। कई जग़ह उन पर लाठियां भी बरसाईं गईं। बिजली कटौती की खबरें भी नई सरकार के लिए सिर मुंडाते ही ओले पडऩे वाली स्थिति उत्पन्न कर रही है। ये सब देखते हुए जरूरी था कि मंत्रियों को तुरंत विभागों का प्रभार मिलता और वे अपना काम शुरू कर देते। लेकिन कल दिन भर खींचातानी चलने के बाद भी विभागों का वितरण नहीं हो सका। इसके पीछे जो कारण उभरकर आ रहे हैं वे नए नहीं हैं। जिस तरह मंत्रियों के चयन में मुख्यमंत्री के अलावा दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के गुटों  के बीच रस्साकशी हुई ठीक वैसे ही मंत्रियों के बीच विभागों के आवंटन में भी गुटीय विभाजन स्पष्ट नजर आ रहा है। तीनों छत्रप अपने कोटे के मंत्रियों के पास महत्वपुरण विभाग रखकर सरकार पर अधिकाधिक नियंत्रण चाहते हैं। हालांकि ये मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार होता है कि वह अपनी टीम के सदस्यों की क्षमता और योग्यता का आकलन करते हुए उन्हें तदनुसार विभाग दे लेकिन अपने देश में राजनीति का जो चरित्र बन गया है उसके कारण से मंत्री भी उन विभागों को हासिल करने के लिए लालायित रहते हैं जिन्हें प्रचलित भाषा में मलाईदार कहा जाता है। इसी के साथ ये भी होने लगा है कि बड़े नेता अपने कृपापात्र मंत्री को ऐसा विभाग दिलवाएं जिसमें रौब-रुतबे के साथ पैसे का प्रवाह ज्यादा हो। परसों रात से भोपाल में जो कुछ भी होता रहा वह सत्ता के साथ जुड़ गईं आवाश्यक बुराइयों में से ही एक  है। यद्यपि ये कांग्रेस में ही होता हो ऐसा नहीं हैं। भाजपा एवं अन्य दलों में भी महत्वपूर्ण और मलाईदार पदों को लेकर इसी तरह की खींचातानी दिखाई देने लगी है। लेकिन मप्र में कांग्रेस 15 साल बाद सत्ता में लौटी है। इसके पीछे सभी गुटों में समन्वय बनना बड़ा कारण माना गया। इसके विपरीत भाजपा गुटों में बंटी नजर आई। लेकिन पहले मुख्यमंत्री और उसके बाद मंत्रियों के चयन में कांग्रेस की परंपरागत गुटबाजी उभरकर सामने आ गई। दिग्विजय सिंह कहने को तो कमलनाथ के साथ हैं लेकिन उन्होंने अपने पुत्र सहित अपने गुट के लोगों को मंत्री बनवाने में पूरी ताकत लगा दी। ज्योतिरादित्य ने भी अपने दरबारियों को सरकार का हिस्सा बनवाने हेतु दबाव बनाया। पहले उनका आग्रह उपमुख्यमंत्री पद को लेकर भी था लेकिन अब वे भी कुछ ऐसे विभाग अपने गुटीय मंत्रियों को दिलवाना चाह रहे हैं जिनकी वजह से उनकी वजनदारी शासन-प्रशासन पर बनी रहे। यही सोच मुख्यमंत्री और दिग्विजय सिंह की भी है। कई वरिष्ठ विधायक मंत्री पद नहीं मिल पाने की वजह से भन्नाए हुए हैं।  दूसरी तरफ़  जिन निर्दलीयों और सपा ,बसपा विधायकों के समर्थन से ये सरकार बनी वे भी कोपभवन में जा बैठे हैं। यद्यपि वारासिवनी से जीते कांग्रेस के बागी निर्दलीय प्रदीप जायसवाल को मंत्री पद दे दिया गया किन्तु शेष मलाई की इच्छा में बैठे रह गए। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस पर कटाक्ष भी किया है। कुल मिलाकर कमलनाथ ने जिस अच्छे तरीके से शुरुवात की वह मंत्रियो के विभाग वितरण को लेकर उत्पन्न गतिरोध की वजह से फीकी पडऩे लगी। बाहर से मिल रहे समर्थन को बिना शर्त मानकर कांग्रेस ने सम्भवत: उन विधायकों को सत्ता में हिस्सेदारी देने से परहेज किया हो किन्तु ये बात भी पूरी तरह सच है कि मुख्यमंत्री के पास जो बहुमत है वह तलवार की धार पर चलने जैसा है। यदि विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव में बाहर बैठे ये छह विधायक गड़बड़ कर दें तब पहले ही निवाले में मक्खी गिरने की कहावत सत्य सिद्ध हो जाएगी। भाजपा ने हालांकि अभी सरकार को अस्थिर करने जैसा कोई इरादा नहीं जताया है लेकिन शिवराज सिंह चौहान जिस तरह से सक्रिय हो उठे हैं उससे ये माना जा सकता है कि भाजपा अनुकूल अवसर मिलते ही दांव चलने में पीछे नहीं रहेगी। कमलनाथ ने अभी भी तकरीबन आधा दर्जन स्थान मंत्रीमंडल में रिक्त रखे हैं। लेकिन कुछ वरिष्ठ विधायकों की नाराजगी दूर करने के लिए उन्हें मंत्रीपद देना पड़ सकता है उस स्थिति में सपा-बसपा और बाकी निर्दलीयों का गुस्सा बना रहेगा। शायद मुख्यमंत्री को विभागों के लिए होने वाली रस्साकशी की उम्मीद नहीं रही होगी। यहां तक कि उनके अपने कोटे के मंत्री भी मनमाफिक विभाग के लिए बच्चों की तरह रूठे बैठे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया भले हुई मुख्यमंत्री की दौड़ में मात खा गए किन्तु वे अपने गुट से मंत्री बने विधायकों को महत्वपूर्ण महकमे दिलवाकर सत्ता का समानांतर केंद्र बनने की कोशिश में जुटे हैं। इस झगड़े का अंत कैसे और क्या होगा फिलहाल कह पाना कठिन है लेकिन इससे कमलनाथ के प्रति निर्विवाद निष्ठा की बात गलत साबित हो गई। चुनाव तक जिस एकता का प्रदर्शन कांग्रेस के विभिन्न गुटों द्वारा किया गया वह सत्ता मिलते ही विलुप्त हो गई। इस बारे में उल्लेखनीय बात ये है कि मुख्यमंत्री के अलावा दिग्विजय सिंह और श्री सिंधिया तीनों राहुल गांधी के बेहद करीब हैं। इस कारण हाईकमान को भी किसी नतीजे पर पहुंचने के पूर्व दसियों मर्तबा सोचना पड़ रहा है। ऐसी ही परेशानी राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी आ खड़ी हुई है। जाहिर तौर पर इससे पार्टी की छवि प्रभावित हो रही है। मंत्रियों का किसी विशेष विभाग के प्रति लगाव या जि़द का कोई कारण स्पष्ट नहीं है। लेकिन राजनीति के जानकार इसे अच्छी तरह से समझते हैं। मंत्रीमंडल का गठन और मंत्रियों के बीच विभागों का वितरण मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार होता है। इस कार्य के लिए वे केंद्रीय नेतृत्व से मार्गदर्शन ले लेते हैं जिससे कि प्रादेशिक स्तर पर भी दबाव बनाया जा सके लेकिन कमलनाथ ने राहुल गांधी से स्वीकृति लेकर मंत्रिमंडल तो बना लिया लेकिन विभागों के बंटवारे को लेकर जिस तरह से नखरेबाजी और टाँग खिचौवल दिख रही है वह शुभ संकेत नहीं है जिसका असर आगामी लोकसभा चुनाव में पड़ जाए तो अचंभा नहीं होगा। शुरुवात में ही पार्टी की गुटबाजी सामने आ जाने से उसके प्रति बनी सकारात्मक धारणा भी ध्वस्त हो सकती हैं। बेहतर तो यही होगा कि मुख्यमंत्री तत्काल इस गतिरोध को खत्म करने हेतु दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य के साथ बैठकर समन्वय बनाएं वरना पार्टी की जीत का जश्न फीका पड़ते देर नहीं लगेगी। लोकसभा चुनाव में भाजपा से दो-दो हाथ करने की तैयारी करने की बजाय अगर कांग्रेस सरकार के मंत्री विभागों के लिए इस तरह लड़ेंगे तो फिर विधानसभा चुनाव की सफलता को कुछ महीने बाद लोकसभा चुनाव में दोहरा पाना उसके लिए कठिन हो जाएगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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