Tuesday 21 September 2021

काम न पूछो नेता का पूछ लीजिये जात



मोदी मंत्रीमंडल में हुए फेरबदल के बाद इस बात को जोरदारी से प्रचारित किया गया कि नए मंत्रियों में ज्यादातर पिछड़ी और अनु. जाति / जनजाति के हैं | शपथ ग्रहण के दौरान टीवी चैनलों के उद्घोषक  मंत्रियों की शिक्षा और प्रशासनिक अनुभव से ज्यादा उनकी जाति बताने पर जोर देते रहे | कहा गया कि प्रधानमन्त्री और भाजपा ने उ.प्र के आगामी विधानसभा  और 2024 के लोकसभा  चुनाव  हेतु अभी से जातीय समीकरण बिठाने  शुरू कर दिए हैं | कर्नाटक और गुजरात में मुख्यमंत्री बदलते समय भी ये बात योजनाबद्ध तरीके से बताई गई कि वे अमुक जाति के हैं | इसी तरह दो दिन पहले तक कम लोग ही जानते होंगे कि पंजाब के नए मुख्यमंत्री चरनजीत सिंह चन्नी दलित समुदाय से  हैं | जिस तरह गुजरात के  नये मुख्यमंत्री का नाम दौड़ में नहीं था ठीक वैसे ही श्री चन्नी के नाम की भनक किसी को नहीं थी | हालाँकि बाद में ये बात सामने आई कि सुखजिंदर सिंह रंधावा को कैप्टेन  अमरिंदर सिंह का उत्तराधिकारी बनाया जा रहा था लेकिन नवजोत सिंह सिद्धू ने टांग फंसा दी जिन्हें  इस बात का डर था कि वे उनके रास्ते का रोड़ा बन जायेंगे | उल्लेखनीय है उन्होंने सारा खेल स्वयं मुख्यमंत्री बनने के लिए रचा था लेकिन  पर्याप्त समर्थन नहीं मिला और तब उन्होंने जट सिख के बजाय दलित समुदाय के सिख के तौर पर श्री चन्नी को आगे कर दिया | वैसे पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ का नाम भी चर्चा में था किन्तु वे  सिख बहुल राज्य होने के नाम पर ठुकरा दिए गए | हालांकि  श्री सिद्धू कांग्रेस आलाकमान की पसंद थे लेकिन कैप्टेन ने जाते – जाते उनके पाकिस्तान प्रेम का बखेड़ा खड़ा कर होठों तक आया प्याला छीन  लिया | अब इस बात का ढोल पीटा जा रहा है कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने अकाली दल और बसपा द्वारा दलित उपमुख्यमंत्री बनाये जाने के वायदे की हवा निकालने के लिए ये दांव चला है और इसका फैसला वे काफी पहले कर चुके थे जिसे अमली जामा पहिनाने के लिए सिद्धू – अमरिंदर विवाद को हवा दी गई | लगे हाथ ये बात भी  सामने आ गई कि पंजाब की कुल आबादी में 32 प्रतिशत दलित हैं और तकरीबन 24 विधानसभा सीटों पर उनके मत निर्णायक हैं | श्री चन्नी को मुख्यमंत्री बनाये जाने के निर्णय को उ.प्र के आगामी चुनाव से जोड़कर भी देखा जा रहा है जहां दलितों की संख्या काफी है किन्तु  वे कांग्रेस के हाथ से छिटक गये हैं | उल्लेखनीय है बसपा के संस्थापक कांशीराम मूलतः पंजाब के थे और वहां से लोकसभा के लिए चुने भी गये | लेकिन ज्यों – ज्यों मायावती का प्रभाव बढ़ा त्यों – त्यों बसपा का कार्यक्षेत्र उ.प्र होता गया और कालान्तर में वहीं उसकी पहली  सरकार भी बनी | भाजपा से अलग होने के बाद अकाली दल को भी पंजाब में सहयोगी चाहिए था और जब बसपा ने हाथ बढ़ाया तो उसने उसे थामकर  बिना देर किये  दलित उपमुख्यमंत्री के  वायदे के साथ चुनाव का बिगुल फूंक दिया  | रही बात भाजपा की तो पंजाब में वह फिलहाल तो दयनीय स्थिति में है | उसके प्रतिबद्ध हिन्दू मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए चन्नी मंत्रीमंडल में एक हिन्दू उपमुख्यमंत्री भी बनाया गया है | कुल मिलाकर समूचे घटनाक्रम का अंत इस बात पर जाकर हुआ कि पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री मिल गया जो 32 फीसदी दलित समुदाय को एकमुश्त कांग्रेस के पाले में खींचकर चुनावी जीत में सहायक होगा | ये उम्मीद भी जताई जा रही है कि इसके प्रभावस्वरूप उ.प्र के दलित समुदाय में भी कांग्रेस अपनी पकड़ एक बार फिर स्थापित कर सकेगी | लेकिन इस सबके बीच नए मुख्यमंत्री की योग्यता , क्षमता , अनुभव और अब तक किये गये उल्लेखनीय कार्यों की ज्यादा  चर्चा नहीं हुई | हालाँकि इसके लिए केवल कांग्रेस को कसूरवार ठहराना पक्षपात होगा | सच्चाई ये है कि राष्ट्रीय और  क्षेत्रीय दोनों ही पार्टियां जातिगत राजनीति के शिकंजे में फंस चुकी  हैं | भाजपा एक ज़माने में इससे दूर रहा करती थी किन्तु बाबरी ढांचा गिरने के एक साल बाद उ.प्र विधानसभा चुनाव में प्रचंड रामलहर पर जब सपा – बसपा गठबंधन भारी पड़ा तबसे उसे  भी ये लगने लगा कि हिन्दू ध्रुवीकरण तभी  कारगर होगा  जब उसके साथ जातिगत समीकरण भी  जुड़े | उ.प्र में पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भाजपा की  अभूतपूर्व सफलता में नरेंद्र मोदी की छवि और हिंदुत्व के साथ ही जातीय संतुलन को बनाए रखना भी बड़ा कारण रहा | दरअसल आज की भारतीय राजनीति में सुशासन से ज्यादा महत्व जातिगत समीकरण  का हो गया है | पंजाब में दलित कार्ड खेलने के पीछे उस समुदाय का कल्याण करने से ज्यादा भावनात्मक दोहन कर उसके मतों को थोक में हासिल करना उद्देश्य है | उल्लेखनीय है श्री चन्नी मंत्री रहते हुए मीटू के मामले में बदनाम हो  चुके थे  | ये दावा भी किया जा रहा है कि वे दलित सिख न होकर ईसाई हैं | उनके विरुद्ध और भी अनेक बातें सामने लाई जा रही हैं | लेकिन फ़िलहाल तो दलित होने से उनकी लॉटरी खुल गई है | कांग्रेस और भाजपा दोनों सही मायने में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा प्राप्त हैं | ऐसे में जब वे  ही जाति नामक मकड़जाल में फंसकर राजनीति करेंगी  तब छोटे – छोटे दलों से कुछ अपेक्षा करना बेकार है | हाल ही में जिन राज्यों के मुख्यमंत्री बदले गए उनकी पेशेवर दक्षता से अधिक इस बात को उजागर किया कि वे फलां – फलां जाति  के हैं जिसके राज्य में इतने प्रतिशत मत हैं | सही मायनों में लोकतंत्र की सफलता तभी है  जब समाज के हर वर्ग को विकास के समान अवसर मिलें | लेकिन ये भी साबित हो चुका है कि कठपुतली शासक बनकर बैठा व्यक्ति चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता | मसलन पंजाब के मुख्यमंत्री को दलित चेहरा बताकर सत्ता पर तो बिठा दिया गया लेकिन उन्हें पार्टी का चेहरा बनाने लायक नहीं  समझा गया | इसीलिये उनकी ताजपोशी  के साथ ही ये ऐलान भी कर दिया गया कि आगामी चुनाव में पार्टी का चेहरा श्री सिद्धू ही होंगे | इस घोषणा का पहला विरोध तो पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने ही कर दिया | 21 वीं सदी में भारत का लोकतंत्र और उसे चलाने वाले राजनीतिक नेताओं की योग्यता का मापदंड यदि  शिक्षा  और अनुभव की बजाय उनकी जाति और समुदाय ही माने जाते रहे तब ये आशंका गलत नहीं है कि समाज को टुकड़े – टुकड़े करने का षडयंत्र रचा जा रहा है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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