Friday 21 January 2022

योग्यता किसी की बपौती नहीं लेकिन अयोग्य को अधिकार देना अनुचित



सर्वोच्च न्यायालय की ये टिप्पणी पूरी तरह सही है कि आरक्षण योग्यता का विरोधी नहीं है और ये भी कि किसी खुली प्रतियोगिता में प्रदर्शन उसका आधार नहीं बन सकता। मेडिकल कालेजों में प्रवेश हेतु होने वाली नीट परीक्षा में  27 फीसदी ओबीसी आरक्षण को सही ठहराते हुए न्यायालय ने आरक्षण संबंधी विभिन्न चर्चाओं का उत्तर देते हुए कहा कि आरक्षण प्राप्त व्यक्ति भले ही पिछड़ेपन को लेकर स्थापित मानदंडों के अंतर्गत न आता हो लेकिन उसे उससे वंचित नहीं किया जा सकता। अदालत ने साफ़ कहा कि पिछड़ेपन को व्यक्तिगत आधार पर नहीं अपितु व्यापक सामाजिक आधार पर आँका जाना चाहिए। दरअसल ये मुद्दा इसलिए उठता रहा है क्योंकि आरक्षित वर्ग के कतिपय हिस्से के आर्थिक, शैक्षणिक और काफी हद तक सामाजिक उत्थान के बावजूद उसकी भावी पीढ़ी को भी वही सुविधा मिलती है । सर्वोच्च न्यायालय भी अतीत में अनेक मर्तबा आरक्षित वर्ग में आर्थिक और सामाजिक विकास के स्तर को पार कर जाने वाले तबके को क्रीमी लेयर कह चुका है। इस विसंगति को दूर करने के लिए ही आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण की सुविधा दी गई। अपने ताजा फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतियोगी परीक्षाओं में आरक्षण के औचित्य को सामाजिक बराबरी के संदर्भ में सही ठहराया है। उसका स्पष्ट कहना है कि कुछ लोगों के उत्थान को पूरे समाज की स्थिति नहीं माना जा सकता और न ही सामाजिक असमानता हटाने में आरक्षण की भूमिका को नकारा जा सकता है। हालाँकि अदालत ने ये स्वीकार किया है कि आरक्षण की सुविधा प्राप्त कुछ लोग पिछड़ेपन की स्थिति से बाहर होते हैं वहीं उससे वंचित अनेक जन पिछड़ेपन का शिकार, परन्तु यह व्यवस्था व्यक्तिगत न होकर समुदाय को ध्यान में रखकर बनाई गई है इसलिए इस विसंगति को सहन करना ही होगा। आरक्षण को लेकर देश में बीते लगभग तीन दशक से राजनीति हो रही है। विशेष रूप से मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के लागू हो जाने के बाद अन्य पिछड़ा वर्ग नामक वह ताकतवर समूह उभरकर सामने आ गया जिसने सियासत की धारा ही बदल डाली। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकतम सीमा 50 फीसदी कर दी लेकिन अनेक राज्य उसके बाहर जाने का दुस्साहस कर रहे हैं। म.प्र के पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण को लेकर मचा बवाल सबके सामने है। उ.प्र विधानसभा का मौजूदा चुनावी मुकाबला जिस तरह जाति केन्द्रित बन गया उससे लगता है कि सामाजिक असमानता मिटाने के लिए की गई यह व्यवस्था सामाजिक समरसता को नुकसान पहुँचाने का कारण बनती जा रही है। अनेक राज्य जातिगत जनगणना करवाए जाने की तैयारी कर रहे हैं। म.प्र के पंचायत चुनाव हेतु सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर जातिगत आधार पर मतदाता सूची बनाई जा रही है जिससे आरक्षण की 50 फीसदी सीमा को लांघने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति ली जा सके। वैसे गत दिवस आये फैसले के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत से सवालों के जवाब दे दिए हैं। इस फैसले में एक तरह से क्रीमी लेयर को आरक्षण से वंचित करने की सलाह को दरकिनार कर उसे सामाजिक न्याय बताते हुए योग्यता में बाधक मानने से दो टूक इंकार कर दिया गया है। रोज-रोज उठने वाले अनेक विवादों का पटाक्षेप भी उसके फैसले से हो गया है किन्तु जहां तक बात योग्यता की है तो भले ही आरक्षण को उसमें बाधक न माना जाए लेकिन योग्यता को महज इसलिए उपेक्षित भी नहीं किया जा सकता कि सम्बन्धित व्यक्ति सामाजिक तौर पर पिछड़े समुदाय से ताल्लुक रखता है। सबसे अधिक विवाद पदोन्नति में आरक्षण को लेकर हो रहा है। किसी व्यक्ति को आरक्षण का लाभ देकर अवसर दिया जाना पूर्णरूपेण उचित है। लेकिन उसके बाद यदि वह अपने आपको साबित करने में असफल रहता है तब उसे और रियायत देना उसे लापरवाह और निठल्ला बनाना है। मसलन आरक्षण प्राप्त एक व्यक्ति को कम अंकों के बाद भी परीक्षा उत्तीर्ण करने की सुविधा भले दी जाए लेकिन शिक्षक जैसे काम के लिए योग्यता में समझौता किये जाने से दूरगामी नुकसान होते हैं। मेडिकल और इंजीनियरिंग महाविद्यालयों के शिक्षक अथवा वैज्ञानिक शोध करने वाले संस्थान में चयन करते समय योग्यता ही आधार होना चाहिए। दुर्भाग्य से आरक्षण समरसता और अवसर की समानता की बजाय वोट बैंक का विषय बनकर रह गया है। जिन राज्यों की सत्ता पर अनु. जाति/जनजाति और ओबीसी के नेता लम्बे समय से काबिज हैं वहां इस वर्ग का कितना उत्थान हुआ ये अध्ययन का विषय है। मायावती की पार्टी का महासचिव पद काफी समय से सतीश चन्द्र मिश्र के पास होना बहुत कुछ कह जाता है। यही हाल सपा का भी है जो अनिल अम्बानी और जया बच्चन जैसों को राज्यसभा में भेजती रही है। इन सब कारणों से आरक्षण का असली उद्देश्य राजनीति के जाल में उलझकर रह गया है। सरकारी नौकरियां लगातार घटती जा रही हैं। उस वजह से बड़ी संख्या में आरक्षण प्राप्त नौजवान बिना काम के बैठे हैं। उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने की बजाय राजनीतिक नेता उनको सपने दिखाया करते हैं। उदारीकारण के बाद देश के आर्थिक ही नहीं वरन सामाजिक ढांचे में भी काफी बदलाव हुए जिससे लोगों की सोच और कार्यपद्धति बदली है। आईआईटी और आईआईएम से शिक्षित तमाम नौजावान लड़के और लड़कियों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नौकरी की बजाय अपना कारोबार जमाया और रोजगार प्रदाता बने। कोरोना काल में अनगिनत ऐसे स्टार्ट अप प्रारंभ हुए जिनका संचालन उच्च शिक्षित पेशेवर कर रहे हैं। आरक्षण को योग्यता में बाधक न मानने की अवधारणा यहाँ आकर सवालों के घेरे में आ जाती है। सर्वोच्च न्यायालय का संदर्भित फैसला सैद्धान्त्तिक रूप से तो सही है लेकिन वास्तविकता के धरातल पर देखें तो अयोग्यता या अल्प योग्यता व्यक्ति के विकास में बाधक बनती है वहीं उससे समाज का वातावरण भी प्रभावित होता है। राजनीति इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। समय आ गया है जब अवसर की समानता के सिद्धांत को पूरी ईमानदारी के साथ लागू किये जाने के बावजूद योग्यता को उपेक्षित करने की प्रवृत्ति को तिलांजलि दी जावे। जो भी लोग आरक्षण की आड़ में योग्यता की उपेक्षा करने का समर्थन करते हैं वे दरअसल वंचित समुदाय के हितचिन्तक न होकर उसका भावनात्मक शोषण करने के दोषी हैं। निश्चित रूप से योग्यता किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष की बपौती नहीं है किन्तु इसी के साथ ये भी उतना ही सही है कि अयोग्य को अधिकार देना किसी समाज और देश के लिए अच्छा नहीं होता।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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