Friday 7 January 2022

नोटतंत्र में बदलता लोकतंत्र : चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाना समझ से परे



चुनाव खर्च कम करने के तमाम सुझाव और प्रयास एक बार फिर धरे  के धरे रह गये | चुनाव आयोग द्वारा गत दिवस  छोटे राज्यों के  विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी द्वारा  किये जाने वाले खर्च की राशि 20 से बढ़ाकर 28 और बड़े राज्यों  में 28 से बढाकर 40 लाख कर दी गई | इसी तरह लोकसभा  चुनाव में छोटे राज्यों में खर्च की सीमा 54 की बजाय 75 और बड़ों में 70 से बढाकर 95 लाख हो गई | जाहिर है ऐसा करने के पीछे राजनीतिक दलों का दबाव रहा होगा | महंगाई  के कारण इस  वृद्धि को सामान्य कहा जा सकता है  लेकिन जब चुनाव आयोग ही मान बैठा है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में इतनी  मोटी रकम खर्च की जा सकती है तब अघोषित खर्च कितना होता होगा ये अंदाज लगाना कठिन नहीं है |  विचारणीय बात ये है कि चुनावों को कम खर्चीला बनाने की बजाय उनमें धन के उपयोग को और बढ़ाने की छूट दी जा रही है | इस वजह से बड़े राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों को तो सहूलियत रहती है किन्तु छोटी पार्टी के साथ ही निर्दलीय उम्मीदवारों का  चुनाव मैदान में उतरना टेढ़ी खीर होता जा रहा है | कुछ क्षेत्रीय पार्टियाँ भी धन बटोरने में सक्षम हो जाती हैं लेकिन साधारण हैसियत वाला कोई व्यक्ति स्वतंत्र उम्मीदवार बनकर चुनाव लड़ना चाहे तो उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ती और दुस्साहस कर भी ले तो जगहंसाई का पात्र बनता है | इस बात की पुष्टि केवल इस बात से हो जाती है कि 1952 के प्रथम आम चुनाव में जहाँ 36 निर्दलीय सांसद लोकसभा के लिए चुने गए वहीं 2019 में ये संख्या घटकर महज 4 रह गई | राजनीति में रूचि रखने वालों को याद होगा कि आजादी के बाद के तीन - चार चुनावों तक आचार्य जे. बी . कृपालानी और प्रकाशवीर शास्त्री जैसे अनेक नेता भी निर्दलीय जीतकर आते थे | लोकसभा में उनकी उपस्थिति से सदन की गरिमा बढ़ती थी | विभिन्न विषयों पर उनके भाषण आज भी संदर्भ के रूप में नए सांसदों के लिए किसी पाठ से कम नहीं हैं | उन जैसों के  चुनाव में खड़े होने पर राजनीतिक पार्टियाँ अपने उम्मीदवार हटा लेती थीं | साठ के दशक में आचार्य नरेंद्र देव समाजवादी विचारधारा के बड़े नेता हुआ करते थे | एक बार लोकसभा चुनाव में उनके विरुद्ध कांग्रेस ने  प्रत्याशी खड़ा कर दिया लेकिन जब पंडित नेहरु को ये पता चला तो वे काफी  नाराज हुए | धीरे – धीरे चुनाव महंगे होते जाने से निर्दलीय बनकर  चुनाव जीतना उन लोगों के लिए कठिन होता गया जो पेशेवर योग्यता और बौद्धिक संपदा से तो सम्पन्न थे लेकिन उनके पास चुनाव लड़ने और जीतने के लायक धन नहीं था | ऐसे लोग चूंकि लोगों के निजी हितों की पूर्ति नहीं कर पाते इसलिए उनको चंदा भी नहीं मिलता | लेकिन उनका स्थान लेने के लिए धीरे – धीरे अपराधी प्रवृत्ति के माफिया सामने आने लगे  जिन्होंने धन और आतंक  के बल पर चुनाव जीतने में सफलता हसिल कर ली | कुछ तो राजनीतिक सौदेबाजी का लाभ उठाकर मंत्री भी बन बैठे | पराकाष्ठा तो तब हो गई जब जेल में रहने वाले कतिपय अपराधी तत्व बतौर निर्दलीय लोकसभा का चुनाव जीतने लगे  | ऐसे ही एक सदस्य को राष्ट्रपति चुनाव में मतदान हेतु पुलिस के पहरे में जब संसद भवन लाया गया तब निश्चित रूप से लोकतंत्र के इस मंदिर को प्रतिष्ठित करने वाले महान नेताओं की आत्मा को ठेस पहुंची होगी | हमारे देश में अनु. जाति और जनजाति के लिए भी विधानसभा और लोकसभा सीटें सुरक्षित हैं लेकिन इस वर्ग का  साधारण आर्थिक हैसियत वाला कोई व्यक्ति बिना राजनीतिक दल की टिकिट पाए निर्दलीय लड़ने की हिम्मत भले कर ले किन्तु उसके जीतने की  उम्मीद न के बराबर होती है | चुनाव आयोग ही नहीं अपितु चुनाव सुधार हेतु बनी तमाम समितियां चुनाव खर्च कम करने की बातें करती रही हैं | टी .एन शेषन ने चुनाव आयोग की कमान सँभालने के बाद इस दिशा में बहुत ही जोरदार काम किया था | जिसकी वजह से शोर - शराबा  , बैनर – पोस्टर , दीवारों की  रंगाई – पुताई आदि पर तो काफी रोक लगी , देर रात तक चलने वाली सभाएं और जुलूस आदि भी नियंत्रित हुए | आचार संहिता लगने के बाद शासन में बैठे लोगों की सुविधाएँ कम करने जैसी वयवस्था भी हुई | इस सबका असर निश्चित तौर पर दिखाई देने लगा लेकिन ये बात अकाट्य सत्य है कि चुनाव आयोग कितनी भी सख्ती कर ले लेकिन चुनावों में काले धन की जो नदियाँ बहती हैं उस पर रोक लगाने की कोशिशें नाकाम ही रही हैं | हर चुनाव में काले धन की जप्ती होती है परन्तु  चुनाव खत्म होते ही रात गई बात गई की तर्ज पर सब भुला दिया जाता है | चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों को अपने खर्च का विवरण चुनाव आयोग के पास देना होता है | निर्धारित सीमा से ज्यादा खर्च करने पर  चुनाव रद्द किया जा सकता है अथवा आगे लड़ने पर रोक लगाई जा सकती है | कुछ और भी दंड  प्रावधान हैं किन्तु प्रत्याशियों द्वारा खर्च का जो हिसाब शपथ पत्र के तौर पर दिया जाता है उससे बड़ा झूठ शायद ही और कोई होगा क्योंकि अब तक जो सीमा खर्च की थी या जो गत दिवस तय की गई है उसमें कम से कम बड़ी राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवार तो चुनाव नहीं लड़ते | इसीलिए पार्टियों की टिकिट हासिल करने के लिए की जाने वाली उठापटक का कारण ये होता है कि एक तो उनके प्रतिबद्ध मत मिल जाते हैं वहीं वे मोटी रकम भी देती हैं | आजकल स्टार प्रचारक जिस तरह हेलीकाप्टरों का उपयोग करते हैं उसे देखकर लगता ही नहीं कि ये वह देश है जहां 80 करोड़ लोग मुफ्त अनाज के मोहताज हैं और करोड़ों लोगों के पास रहने के लिए घर और पीने के लिए साफ़ पानी नहीं है , शिक्षा और स्वास्थ्य तो बहुत बड़ी बात है | कोरोना काल में न सिर्फ जनता वरन सरकार ने भी अपने खर्च कम किये हैं | उद्योग – व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ  है | रोजगार और प्रति व्यक्ति आय में भी जबरदस्त कमी आई है | ऐसे में विधानसभा और लोकसभा चुनाव के लिए खर्च की सीमा में कमी किये जाने की जगह उसे और बढ़ा देने का औचित्य समझ से परे है | कोरोना की तीसरी लहर पूरे जोर के साथ आ चुकी है | विभिन्न राज्यों में तरह – तरह के प्रतिबंध लगना भी शुरू हो गया है | चुनाव प्रचार के तौर - तरीके बदले जाने की बातें  नेताओं को छोड़ बाकी सभी कर रहे हैं | बेहतर होता चुनाव आयोग बजाय खर्च की सीमा में वृद्धि के चुनाव को सस्ता बनाने के उपाय सुझाता किन्तु  उसने तो उल्टा काम किया | संचार क्रांति के इस दौर में भारत सरीखे विकासशील देश में गरीबी की रेखा से  भी नीचे जीवन बसर कर रहे करोड़ों लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले को चुनाव में इतनी भारी – भरकम  राशि खर्च करने की छूट देना क्रूर मजाक से कम नहीं है | राजनीति में आती जा रही गंदगी के मद्देनजर हर किसी की अपेक्षा है कि अच्छे और साफ सुथरे लोग इसमें आयें किन्तु चुनावी खर्च सुनकर शायद ही बिना पार्टी टिकिट के अच्छे कहे जाने किसी व्यक्ति की हिम्मत मैदान में उतरने की होगी | प्रकाशवीर शास्त्री और आचार्य कृपालानी जैसे नेता इसीलिये किसी के आदर्श नहीं रहे | मौजूदा लोकसभा में जीतकर आये चार निर्दलीय सांसदों के बारे में सामान्य ज्ञान के विद्यार्थी भी शायद ही जानते होंगे क्योंकि चर्चा का विषय तो ये है कि मुख्तार अंसारी जेल में रहते हुए भी कितने मतों से जीतेगा ? 

-रवीन्द्र वाजपेयी

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