Thursday 13 January 2022

भाजपा समझ ले उधार की बैसाखियों से लम्बा सफर तय नहीं किया जा सकता



उ.प्र में  दो मंत्रियों के त्यागपत्र देकर सपा में शामिल होने के संकेत के बाद भाजपा के महारथी भी हरकत में आये और कांग्रेस तथा सपा से कुछ नेताओं को तोड़कर ये साबित करने की कोशिश की कि वह भी जवाबी हमला  करने में सक्षम है | भाजपा द्वारा बड़ी संख्या में  विधायकों के टिकिट काटे जाने की अटकलों के कारण ही उसे छोड़ने वालों का सिलसिला जारी है | राजनीति में रूचि रखने वालों को याद होगा कि 2017 में भाजपा में आने वालों का तांता भी इसी तरह लगा हुआ था | श्री मौर्य उसी समय बसपा से निकलकर आये थे | भाजपा ने बीते पांच साल में दूसरी पार्टियों के दर्जनों नेताओ को अपने घर में जगह दी | उ.प्र से उसके जो लोकसभा सदस्य हैं उनमें भी दल बदलुओं की अच्छी खासी संख्या है | इसमें कोई शक नहीं है कि उ.प्र जैसे बड़े  राज्य में  सिक्का ज़माने के लिए अपने दरवाजे खोल  दिए जाने से पार्टी को जबरदस्त लाभ मिला किन्तु ये बात भी पूरी तरह सही है कि इस प्रक्रिया में तमाम ऐसे लोग भी  आ बैठे जिन्हें पार्टी की संस्कृति और संस्कारों से लेश मात्र भी लगाव नहीं था | श्री मौर्य ने अपने इस्तीफे में वैचारिक मतभिन्नता शब्द का इस्तेमाल भी किया है | दरअसल वे भाजपा के सदस्य  इसलिए बने थे क्योंकि  वे जिस बसपा में थे उसके सत्ता में आने की संभावनाएं शून्य हो चली थीं और तब  सपा उनको भाव देने तैयार न थी |  भाजपा का कहना है श्री मौर्य अपने बेटे सहित कुछ  नजदीकी लोगों की उम्मीदवारी चाह रहे थे  जो दो बार चुनाव हार चुका  था  | पार्टी छोड़ने वाले शेष नेताओं के साथ भी ऐसी ही बातें जुड़ी हुई हैं | भाजपा ने हाल ही के वर्षों में क्षेत्रीय और जातिगत संतुलन बनाने के लिए अनेक ऐसे चेहरों को  सत्ता तथा संगठन में हिस्सेदारी दी जिनके कारण उसके प्रतिबद्ध नेता और कार्यकर्ता स्वयं को उपेक्षित और असहज महसूस करने लगे |   जाहिर तौर पर भाजपा का दबदबा बनाने में डेढ़ दर्जन राज्यों में उसकी सरकारों का होना भी सहायक बना किन्तु इसका अप्रत्यक्ष नुकसान ये हुआ कि उसकी वैचारिक पहिचान धूमिल होने लगी | पांच साल तक  उसके साथ रहकर सत्ता की मलाई खाते रहने के बाद भी आयातित नेता  उसके रंग में नहीं रंग सके | प. बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने जिस बड़ी संख्या में दल बदलुओं को उम्मीदवारी दी उसकी वजह से उसके समर्पित कार्यकर्ता और नेताओं में नाराजगी फ़ैल गयी जिसकी वजह से उसका चुनाव अभियान अपेक्षित नतीजे न दे सका | ममता बैनर्जी ने तीसरी बार सत्ता हासिल करने के बाद जिस तरह की आक्रामकता दिखाई उसकी वजह से भाजपा में आये अनेक तृणमूल नेता वापिस लौट गये | उनमें कुछ जीते हुए कुछ विधायक भी हैं | पार्टी के राज्यसभा सदस्य और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय ने इस राज्य में भाजपा की जड़ें ज़माने में काफी योगदान दिया था लेकिन वे एक झटके में उसी ममता  के साथ चले गये जिससे उनका छत्तीस का आँकड़ा  था | इसी तरह केन्द्रीय मंत्री पद से हटाये जाते ही बाबुल सुप्रियो ने पार्टी को अलविदा कह दिया | मेघालय के राज्यपाल  सत्यपाल मलिक संवैधानिक पद पर बैठे हुए भी प्रधानमंत्री को घमंडी कहने का दुस्साहस करते हैं लेकिन पार्टी उनको बर्दाश्त कर रही है क्योंकि उ.प्र के चुनाव के पहले उन्हें छेड़ने से पश्चिमी उ.प्र के जाट समुदाय की नाराजगी और न बढ़ जाए | ये सब देखते हुए भाजपा को ये ध्यान  रखना होगा कि  कहीं आगे पाट पीछे सपाट वाली कहावत लागू न होने लगे | आज उसके नेता और प्रवक्ता श्री मौर्य  को अवसरवादी और दल बदलू कहकर उनका उपहास कर रहे हैं लेकिन पांच साल पूर्व जब इन जैसों की भीड़  भाजपा में आ रही थी तब भी अवसरवाद और सत्ता लोलुपता का दाग उनके दामन पर था | म.प्र में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से बगावत करते हुए कमलनाथ सरकार गिरवाने की कीमत राज्यसभा की सीट के साथ ही केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री के पद के साथ अपने तमाम अनुयायियों को प्रदेश सरकार में मंत्रीपद दिलवाकर वसूल कर ली | समय आ गया है जब भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के साथ उसके बौद्धिक अभिभावक के तौर पर रास्वसंघ को ये सोचना चाहिए कि विचारधारा के प्रसार के लिए किसी भी कीमत पर  सत्ता हथियाने की बजाय इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि पार्टी की जड़ें गहरी हों और जो लोग अन्य दलों से आयें उनको ज्यादा सिर पर न बिठाया जाए | किसी भी विचारधारा वाली पार्टी में बाहर से आने वाले को पूरी तरह परखे बिना  महत्वपूर्ण पद या दायित्व नहीं दिया जाता किन्तु भाजपा ने इस तरफ से आँखें मूँद रखी हैं | कई दिनों से सुनने में आ रहा था कि भाजपा आलाकमान श्री  मौर्य सहित अन्य नाराज नेताओं की मिजाजपुर्सी में जुटा रहा लेकिन सफलता नहीं मिली | सवाल ये है कि ऐसे नेताओं की चिरौरी करने की बजाय इनको खुद होकर बाहर कर देना चाहिए था जिससे उनकी  वजनदारी कम होती | वैसे भाजपा तमाम विसंगतियों के बाद भी अपनी वैचारिक पहिचान रखती है | निश्चित तौर पर राजनीतिक दलों का उद्देश्य सत्ता हासिल करना होता है जो कि गलत भी नहीं है | लेकिन ऐसा करने के लिए यदि वे अपने सिद्धांतों और नीतियों से  समझौता  करते हैं तब उनका  भविष्य असुरक्षित हो जाता है | इसके दो सबसे ज्वलंत उदाहरण हैं समाजवादी और साम्यवादी पार्टियाँ | समाजवादी आन्दोलन चंद परिवारवादी  नेताओं की निजी जागीर बनकर रह गया है , वहीं वामपंथी मोर्चा भी सुदूर केरल छोड़कर और कहीं नजर नहीं आता | इसके पीछे कारण सत्ता की राजनीति में उलझकर सिद्धांतों के साथ समझौता करना ही रहा | डा. लोहिया ने देश को गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था लेकिन उनकी विरासत के लगभग सभी दावेदारों ने समय – समय पर कांग्रेस की गोद में बैठने से परहेज नहीं किया | यही हाल हुआ वामपंथी मोर्चे का जिसने देश को आर्थिक उदारवाद के रास्ते पर ले जाने वाले डा.मनमोहन सिंह की सरकार को  टेका लगाकर अपनी छवि को पलीता लगा लिया | भाजपा ने बीते कुछ दशकों में राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जो पहिचान बनाई वह नीतिगत स्पष्टता और सैद्धांतिक दृढ़ता के कारण ही संभव हो सकी | राम मंदिर का निर्माण , धारा 370 को विलोपित करना , तीन तलाक पर रोक ,नागरिकता संशोधन कानून बनाने जैसे कामों ने जनमानस पर असर छोड़ा है परन्तु  राज्यों में सत्ता हासिल करने की आपाधापी में वह अपनी पुण्याई का ह्रास कर रही है | उ.प्र में जीत भाजपा के भविष्य के लिए बहुत जरूरी है | विधानसभा में सीटों की संख्या आगामी राष्ट्रपति चुनाव पर असर डालेगी | लेकिन सोचने वाली बात ये है कि पांच साल तक विशाल बहुमत वाली सरकार चलाने के बाद भी यदि वह आयाराम और गयाराम में उलझी है तो इससे उसका अपना समर्थक मतदाता भी भ्रमित और निराश होता है | राज्य सरकारें निश्चित रूप से पार्टी के लिए बड़ा सहारा होती हैं जिनके जरिये वह अपनी पकड मजबूत करती है | गुजरात में अच्छी सरकार चलाने के कारण ही नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय पहिचान मिली | उ.प्र में भी  योगी आदित्य नाथ ने कानून व्यवस्था के मोर्चे पर अच्छा काम किया और भ्रष्टाचार के आरोपों से भी वे मुक्त हैं | लेकिन उसके बाद भी पार्टी को जातीय समीकरण साधने की जरूरत पड़े तो ऐसा लगता है कि सत्ता चलाने की व्यस्तता में संगठन का काम प्रभावित हुआ है | ऐसा कहा जा रहा है कि योगी जी की सरकार लौटेगी तो जरूर लेकिन उसका बहुमत कम हो जाएगा | यदि ऐसा होता है और भाजपा 2017 वाला प्रदर्शन नहीं दोहरा पाती तब ये कहना गलत न होगा कि उधार की बैसाखियों के बल पर लम्बा सफर तय नहीं किया जा सकता | और उसके लिए अपने पांवों को ही मजबूत करना पड़ता है | उ.प्र में भाजपा छोड़कर जाने वालों के बदले जो बाहरी तबका आ रहा है वह भी भविष्य में ऐसा ही  करेगा क्योंकि उसकी भी पार्टी के सिद्धांतों की बजाय सत्ता में रूचि है |  

-रवीन्द्र वाजपेयी

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