Thursday 1 August 2019

आलू ,प्याज जैसी स्थिति हो गई इंजीनियरों की

देश में तकनीकी शिक्षा के प्रतिष्ठित संस्थानों में शुमार एनआईटी और ट्रिपल आईटी में इस वर्ष प्रवेश की मारामारी की बजाय तकरीबन सात हजार सीटों का खाली रह जाना चौंकाने वाला संकेत है। यही नहीं तो आईआईटी सदृश विश्वस्तरीय संस्थानों की प्रवेश परीक्षा में बैठने वाले छात्रों की संख्या में भी बीते कुछ वर्षों में लगातार कमी आती जा रही है। इसी सिलसिले में आज मप्र के बारे में अधिकृत जानकारी मिली कि प्रदेश भर में सरकारी और निजी मिलाकर कुल 151 इंजीनियरिंग महाविद्यालय हैं जिनमें से कल रात तक पहले दौर में 37 निजी महाविद्यलाय ऐसे थे जिनमें एक भी प्रवेश नहीं हुआ था। वहीं दर्जनों ऐसे भी हैं जिनमें इक्का-दुक्का या अधिकतम दस छात्रों ने ही प्रवेश लिया है। दूसरे चरण की प्रवेश प्रक्रिया में प्रदेश के बाहर के छात्रों से सीटें भरी जाने का प्रयास किया जावेगा लेकिन जैसे संकेत मिल रहे हैं उनके मुताबिक आधी सीटें भी भर जाएं तो बहुत बड़ी बात होगी। निजी क्षेत्र में तकनीकी शिक्षा का कारोबार संभवत: महाराष्ट्र और कर्नाटक से निकलकर पूरे देश में फैला। प्रारम्भ में कुछ धन्ना सेठों और राजनेताओं ने मिलकर इसे कमाई का जरिया बनाया। सरकारी इंजीनियरिंग महाविद्यालयों की सीमित संख्या के कारण बड़ी संख्या में विद्यार्थी इन निजी संस्थानों में मोटी फीस देकर पढऩे जाने लगे। अभिभावकों को भी लगा कि दो चार अंकों की कमी की वजह से उनके बच्चे का इंजीनियर बनने का सपना अधूरा न रह जाए इसलिए उन्होंने भी आर्थिक बोझ सहते हुए इन संस्थानों का रुख किया। देखा-सीखी तकनीकी शिक्षा के दूकाननुमा निजी संस्थान कुकुरमुत्तों की तरह से जहां देखो वहां उग आये। इनमें कुछ का संचालन तो पेशेवर हाथों में होने से उनमें शिक्षण का स्तर संतोषजनक रहा लेकिन ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि अधिकतर केवल पैसा कमाने के मकसद से खोले गये और शासन द्वारा ओबीसी एवं अनु. जाति/जनजाति वर्ग के छात्रों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति में जमकर भ्रष्टाचार भी किया गया। इन स्तरहीन महाविद्यालयों से निकले छात्रों के हाथ में इंजीनियरिंग की डिग्री तो आ गई लेकिन उनकी योग्यता मानकों पर खरी नहीं उतरने से उन्हें समुचित रोजगार नहीं मिल सका। इंजीनियरिंग की पढ़ाई हेतु पहले पीएमटी जैसी प्रवेश परीक्षा होती थी लेकिन जब निजी महाविद्यालयों की बाढ़ आई तो सरकार ने भी उस परीक्षा को बंद कर दिया। इसका दुष्परिणाम ये हुआ कि जिसे देखो इंजीनियर बनने की तरफ  भागने लगा और इसके कारण तकनीकी शिक्षा भी रस्ते का माल सस्ते में वाली स्थिति में उलझकर रह गई। मानव संसाधन एवं विकास विभाग का ये दायित्व था कि वह नीति आयोग से समन्वय स्थापित करते हुए देश में इंजीनियरों की वास्तविक जरूरत का अनुमान पेश करती लेकिन ऐसा नहीं हुआ जिसका परिणाम वही हुआ जो आलू और प्याज जैसी चीजों के बेतहाशा उत्पादन के बाद होता है। बीते एक दो वर्ष से उद्योग-व्यापार जगत मंदी से गुजर रहा है जिसका परिणाम इंजीनियरों की घटती मांग और कहीं-कहीं तो छटनी के रूप में भी सामने आने लगा। लेकिन इसका एक सुखद परिणाम भी ये हुआ कि कला, वाणिज्य, विज्ञान, मार्केटिंग और कानून जैसे विषयों के प्रति नई पीढ़ी में रुझान बढऩे लगा। हाल ही में डिजिटल मार्केटिंग और सोशल मीडिया एनालिस्ट जैसे विषयों में भी युवा पीढ़ी को अच्छा भविष्य नजर आने से उस तरफ भी झुकाव बढ़ा है। अपनी विदेश यात्राओं के दौरान प्रधानमंत्री भारत में उपलब्ध तकनीकी मानव संसाधन का उल्लेख करते हुए उद्योग लगाने वालों को आमंत्रित करते रहे लेकिन ऐसा लगता है इंजीनियरिंग शिक्षा का बाजारीकरण कारगर नहीं रहा। ये भी कह सकते हैं कि मांग और आपूर्ति के बीच जबरदस्त असंतुलन होने से भी स्थिति बिगड़ गयी। ये बात भी काबिले गौर है कि आजकल विदेशों में भी रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं लेकिन वहां केवल डिग्री नहीं अपितु गुणवत्ता भी देखी जाती है। यही स्थिति तकरीबन हमारे देश में भी है। कुल मिलाकर इंजीनियरिंग शिक्षण संस्थानों की मौजूदा दुरावस्था के लिए सरकार के साथ ही शिक्षा माफिया भी कम जिम्मेदार नहीं है जिसने एक पवित्र पेशे का व्यापारीकरण कर दिया। उनके धंधे में जो मंदी आई उससे भी कहीं ज्यादा दुखद ये है कि देश में लाखों ऐसे युवक-युवतियां बेरोजगार घूम रहे हैं जो अधकचरी योग्यता के शिकार है और जिनके पास इंजीनियरिंग की डिग्री होना न होना बराबर है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment