Saturday 17 August 2019

घाटी के बाहर भी हैं देश को कमजोर करने वाले

ये देखकर आश्चर्य होता है कि जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को समाप्त करते हुए अनुच्छेद 370 और 35 ए को हटाने वाले फैसले का राज्य के बाहर रहने वाले अनेक लोग इस तरह विरोध कर रहे हैं जैसे उक्त फैसले से उनका कोई बड़ा नुकसान हो गया हो। जिन्होंने कभी कश्मीर घाटी में कदम तक नहीं रखा ऐसे तमाम लोग वहां फोन सेवा बहाल करने और निषेधाज्ञा हटाने की रट लगाये पड़े हैं। इस तबके की पूरी ताकत घाटी में स्थिति सामान्य होने के दावों को गलत साबित करने में लगी हुई है। गत रात्रि पकिस्तान की शिकायत पर चीन के कहने से संरासंघ सुरक्षा परिषद की अनौपचारिक बैठक हुई। उसके बाद संरासंघ में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने जानकारी दी कि परिषद में केवल चीन ही पाकिस्तान के साथ खड़ा रहा। लेकिन भारत में अनेक लोगों ने चीन के प्रवक्ता द्वारा दिए बयान के आधार पर भारत की कूटनीतिक विजय पर संदेह का वातावरण बना दिया। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी कूटनीतिक विफलता को लेकर बयान दे डाला। इस बारे में वस्तुस्थिति ये है की सुरक्षा परिषद की जिस बैठक में उक्त विचार विमर्श हुआ वह पूरी तरह से अनौपचारिक थी जिसकी कार्यवाही का कोई रिकार्ड नहीं रखा जावेगा और न ही सदस्य देशों ने जो कहा उसे सार्वजनिक किया जावेगा। रही बात बैठक होने की तो उसमें पाकिस्तान से ज्यादा चीन की भूमिका रही क्योंकि जम्मू कश्मीर को लेकर संसद में पारित विधेयक के जरिये भारत ने एक तीर से दो निशाने साधे। संसद में बोलते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने स्पष्ट कहा कि जब वे जम्मू-कश्मीर कहते हैं तब उसका अर्थ न सिर्फ  पाक अधिकृत कश्मीर का हिस्सा अपितु चीन द्वारा पकिस्तान से खैरात में लिया गया अक्साई चिन नामक इलाका भी आता है। अब जबकि भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर का विभाजन करते हुए लद्दाख को उससे अलग केंद्र शासित राज्य बनाकर वहां के प्रशासनिक अधिकार केंद्र के अंतर्गत ले लिए तो चीन का भनभनाना स्वाभाविक है। इसीलिए उसने लद्दाख पर अपने दावे को नए सिरे से उछालने की चाल चली। सही बात ये है कि लद्दाख के श्रीनगर से नियंत्रित होने के कारण भारत सरकार को अनेक व्यवहारिक दिक्कतें आती थीं। उल्लेखनीय है सियाचिन दर्रा भी लद्दाख में ही है। ऐसा ही कारगिल को लेकर है। लद्दाख के केंद्र शासित बन जाने के बाद वहां स्थानीय प्रशासन और सेना के बीच बेहतर समन्वय तो रहेगा ही विश्वास का वातावरण भी बना रहेगा। चीन को ये भय भी सताने लगा है कि मोदी सरकार ने अगर पाक अधिकृत कश्मीर में सैन्य कार्रवाई की तो उसके अपने हित भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे। चीन की महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड परियोजना का एक हिस्सा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से भी गुजरता है। भारत ने इस परियोजना से दूरी बनाकर चीन को बड़ा झटका दे दिया था। ऐसे में वह नहीं चाहता कि भारत का प्रभुत्व इस क्षेत्र में बढ़े। ये जानकारी भी मिल रही है कि उक्त परियोजना चीन के गले की हड्डी बन गई है। शुरुवात में उसे दुनिया के तमाम देशों का सहयोग और समर्थन हासिल हुआ लेकिन धीरे-धीरे चीन के विस्तारवादी इरादों को भांपकर अनेक देशों ने उससे अपने हाथ खींच लिए। कहते हैं इस परियोजना को पूरा करने में उसे भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। इस वजह से पाकिस्तान का साथ देना उसकी मजबूरी बन गई है। भारत-पाकिस्तान के बीच विवादों को विश्व बिरादरी द्विपक्षीय मानकर उससे दूर रहती है। इसलिए चीन ने लद्दाख का मामला उठाकर बनने की कोशिश की लेकिन इमरान खान द्वारा अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से सुरक्षा परिषद की बंद कमरा बैठक के पहले 20 मिनिट तक बातचीत किये जाने का भी कोई असर नहीं हुआ और अमेरिका ने भी ये कहकर अपना पिंड छुड़ा लिया कि भारत-पाकिस्तान आपसी बातचीत से विवाद सुलझाएं। रूस सहित अन्य देशों का रवैया भी कमोबेश यही रहा कि पकिस्तान को भाव न दिया जाए। जैसी कि खबर है कश्मीर घाटी में बीते दिनों पूरी तरह शान्ति रही। बकरीद और स्वाधीनता दिवस पर किसी भी प्रकार का तनाव नहीं दिखाई दिया। इसी वजह से वहां कल से शासकीय कार्यालय खुल गये और आज से फोन सेवाएं बहाल करने की प्रक्रिया भी शुरू की जा रही है। सोमवार से शिक्षण संस्थाएं भी खोल दी जावेंगी। बाजार रोजाना छिटपुट खुलने ही लगे हैं। स्थिति सामान्य होने का संकेत तब मिला जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाकार अजीत डोभाल लगातार 11 दिन घाटी में रहने के बाद गत दिवस दिल्ली लौट आये। हालाँकि ये मान लेना ज्ल्दबाजी होगी कि स्थिति सामान्य होने के बाद घाटी पूरी तरह से शांत बनी रहेगी तथा अलगाववादी ठन्डे होकर बैठ जावेंगे किन्तु ये उम्मीद लगाई जा सकती है कि सैन्य बलों की जबर्दस्त मोर्चेबंदी के रहते पाकिस्तान समर्थक ताकतें खुलकर सिर नहीं उठा सकेंगी। संरासंघ की सुरक्षा परिषद द्वारा पाकिस्तान और चीन की जुगलबन्दी को बेअसर किये जाने के कारण वे अलगाववादी नेता निराश हुए होंगे जो ये सोचते थे कि भारत सरकार द्वारा कश्मीर घाटी में की जा रही कार्रवाई को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव पड़ेगा। लेकिन जैसा प्रारम्भ में कहा गया हमारे देश के भीतर एक वर्ग विशेष के पेट में पाकिस्तान से ज्यादा दर्द हो रहा है। उन्हें ये पच नहीं रहा कि घाटी में इतनी शान्ति क्यों है? भारत सरकार के दावों से ज्यादा उन्हें देश विरोधी ताकतों द्वारा फैलाई जा रही खबरों पर भरोसा होना इस बात का प्रमाण है कि देश को कमजोर करने वाले महज कश्मीर घाटी में ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में भी हैं। वैसे अधिकतर देशवासी जम्मू-कश्मीर के बारे में उठाये गये ऐतिहासिक कदम से संतुष्ट भी हैं और प्रसन्न भी। उन्हें ये विश्वास है कि केंद्र सरकार कश्मीर घाटी में अलगाववाद की कमर तोडऩे में कामयाब हो जायेगी। अब तक जो कुछ भी हुआ उससे ये आश्वासन तो मिल ही गया कि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही मोर्चों पर भारत पूरी तरह से प्रभावशाली साबित हुआ है जो निश्चित रूप से एक बड़ी उपलब्धि है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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