Thursday 7 June 2018

मुफ्त और माफ की संस्कृति का विरोध जरूरी

परसों मप्र सरकार ने गरीबों को 200 रु. प्रतिमाह में बिजली देने का ऐलान किया। और कल राहुल गांधी ने मंदसौर में किसानों को आश्वस्त किया कि प्रदेश में काँग्रेस की सरकार बनने पर 10 दिनों में किसानों के कर्जे माफ  कर दिए जावेंगे। उन्होंने मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि उसने उद्योगपतियों के कर्जे माफ  कर दिए। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने उनके इस कथन का तत्काल प्रतिवाद  करते हुए जवाबी आरोप लगा दिया कि बैंकों को चूना लगाने वाले उद्योगपतियों को मनमोहन सरकार के समय कर्ज दिया गया था। जहां तक बात सस्ती बिजली और कर्ज माफी के ऐलान की है तो कल ही रिज़र्व बैंक ने महंगाई के मद्देनजऱ कर्ज पर ब्याज दरों में मामूली वृद्धि कर दी। मप्र सरकार, कांग्रेस अध्यक्ष और रिजर्व बैंक तीनों ने क्रमश: जो किया या कहा उसका सीधा सम्बन्ध अर्थव्यवस्था से है। फर्क इतना है कि शिवराज सिंह चौहान और श्री गांधी का उद्देश्य जहां मतदाताओं को लुभाना है वहीं रिजर्व बैंक की चिंता राजनीतिक निर्णयों के परिप्रेक्ष्य में देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर बनाए रखने की है। जो लोग आर्थिक मामलों की थोड़ी सी भी समझ रखते हैं उन्हें ये पता होगा कि भारत की अर्थव्यवस्था बहुत  सन्तोषजनक नहीं है। सरकार चाहे केंद्र की हो अथवा राज्यों की, सिर से पांव तक कर्ज में डूबी है। बजाय घटने के उसका बोझ बढ़ता ही जा रहा है। वित्तीय अनुशासन के नाम पर सरकार बजट घाटा कम करने की जो कोशिशें करती भी है वे मुफ्त और माफ  के सियासी मकडज़ाल में फंसकर बेअसर साबित हो जाती हैं। यही वजह है कि एक दिन जहां विकास दर कुलांचे भरती दिखाई देती है वहीं अगले दिन उसकी सांस फूलने की नौबत आ खड़ी होती है।  शिवराज सरकार द्वारा गरीब परिवारों को 200 रु. प्रतिमाह में बिजली देने की जो घोषणा की गई। उसके पीछे गरीबों के घर रोशन करने की भावना न होकर आगामी नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत को सुनिश्चित करना है। दूसरी तरफ  मंदसौर में किसानों का दुख बांटने आए राहुल को भी किसानों से किसी भी तरह की हमदर्दी नहीं है। यूपीए सरकार के 10 वर्षीय कार्यकाल में ही हजारों किसानों ने आत्महत्या की थी जो ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि अन्नदाता उनके राज में भी परेशान था। कल राहुल ने मंदसौर के कृषि उत्पादन लहसुन को शंघाई भेजने का लॉलीपॉप भी दे डाला। मप्र के इस इलाके में लहसुन तो दशकों से पैदा होता रहा है। तब यूपीए सरकार ने उसे शंघाई अथवा अन्य किसी विदेशी शहर में निर्यात करने की पहल क्यों नहीं की, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। ले- देकर बात वहीं खड़ी हो जाती है कि राजनेता जो दरियादिली दिखाते हैं उसके अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले विपरीत असर पर विचार करने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। अस्सी के दशक में स्व.अर्जुन सिंह  मप्र में झुग्गी-झोपड़ी वालों को एक बत्ती बिजली कनेक्शन देकर खुद तो गरीबों के मसीहा बन बैठे लेकिन देश के सबसे समृद्ध मप्र विद्युत मंडल को गरीब बना गए। उनकी देखा सीखी अन्य राज्यों ने भी उस फार्मूले को अपनाया और उन्हें भी वही सब झेलना पड़ा। फिर चला किसानों को मुफ्त और सस्ती बिजली देने का सिलसिला। उसने किसानों को कितना लाभ पहुंचाया ये तो कोई नहीं जानता लेकिन उसकी वजह से राज्य सरकारों का जो भट्टा बैठा वह सबके सामने है। किसी भी लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था से अपेक्षा की जाती है कि वह  जनता की मदद हेतु आगे आये। शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं को शासकीय संरक्षण दिया जाना अत्यावश्यक होता है। गरीबों के जीवन को सुविधाजनक बनाने में भी कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए। कृषि प्रधान देश में कृषि और किसानों की बेहतरी के लिए भी सरकार का संवेदनशील होना प्रशंसा योग्य है लेकिन हमारे देश में सत्ता प्राप्त करने और उसमें चिपके रहने के लिए राजनेता सरकारी खजाने के दम पर जिस तरह की रईसी दिखाते हैं उसका सौवां हिस्सा भी वे अपनी जेब से किसी निर्धन की मदद के लिए नहीं देते। शिवराज सिंह चौहान और राहुल गांधी दोनों लंबे समय तक सत्ता के संचालन से जुड़े रहे हैं। ऐसे में उन्हें ठीक चुनाव के समय ऐसे निर्णय और आश्वासन देने की जरूरत पडऩा ये दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि सत्ता में रहते हुए वे ऐसा कुछ नहीं कर सके जिससे चुनाव के पूर्व उन्हें लालच देने के लिए मजबूर न होना पड़े। सबसे बड़ी बात ये है कि इस तरह की राजनीतिक घूस का सीधा असर सरकारी खजाने पर पड़ता है। मप्र में बिजली की दरें काफी हैं। विद्युत मंडल को विखंडन कर बनाई गई कंपनियों ने मुनाफाखोरी की हदें तोड़ दी हैं। शिवराज सरकार ने चुनाव के मद्देनजर गरीबों को 200 रु. में महीने भर बिजली देने का जो फैसला किया उसका बोझ चुनाव के बाद अंतत: शेष उपभोक्ताओं के कंधों पर पडऩा अवश्यम्भावी है। इसी तरह राहुल गांधी ने 10 दिनों में किसानों के कर्जे माफ  करने का जो झुनझुना बजा दिया उसकी भरपाई प्रदेश की जनता पर नए कर या  अधिभार लगाकर ही की जा सकेगी। कुल मिलाकर ये कहना गलत नहीं होगा कि 21 वीं सदी में भी राजनीति का वही ढर्रा देखने मिल रहा है जिसके कारण देश आज़ादी के सात दशक बीतने पर भी विकासशील ही बना हुआ है। एशिया के तमाम छोटे-छोटे देश भारत को पीछे छोड़ते हुए जिस तरह आगे निकलते जा रहे हैं वह केवल देखने की नहीं अपितु अनुकरणीय चीज है। इसके लिए जरूरत है सियासत की संस्कृति बदलने की। आज की युवा पीढ़ी में राजनेताओं के विरुद्ध जो गुस्सा बढ़ रहा है उसकी एक वजह मुफ्त और माफ  की नीतियां भी हैं। सत्ता पाने के लिये मंगल सूत्र और मिक्सर ग्राइंडर बाँटने जैसे कदम राजनेताओं के मानसिक दिवालियेपन को ही उजागर करते हैं। शिवराज और राहुल के पास इस प्रश्न का कोई समुचित उत्तर नहीं होगा कि उन्होंने जो उदारता दिखाई उसके लिए धन कहां से आएगा? अगले चुनाव के बाद सरकार भाजपा या कांग्रेस किसकी बनेगी ये तो मतदाता तय करेंगे किन्तु इन दोनों के फैसलों और वायदों से प्रदेश की जनता पर करों का बोझ बढऩा तय है। मप्र पर कई लाख करोड़ का कर्ज है। यहां तक कि कई मर्तबा सरकारी कर्मियों का वेतन तक समय पर नहीं बंट पाता। बावजूद उसके आय बढ़ाने की जगह कर्ज बढ़ाने के रास्ते खोजना अव्यवस्था और अराजकता को आमंत्रण देने जैसा ही होगा। इस सम्बंध में उल्लेखनीय है कि एक बत्ती कनेक्शन, मुफ्त पट्टे, किसानों को मुफ्त अथवा रियायती बिजली,  मनरेगा और उस जैसे तमाम कार्यक्रमों के बाद भी सत्ता परिवर्तन होने को नहीं रोका जा सका। पंजाब में अमरिंदर सरकार ने किसानों के कर्ज माफ  करने का वायदा पूरा कर दिया लेकिन फिर भी वहां के किसान आंदोलित हैं। इससे साबित होता है कि मुफ्त में मिली चीज की कोई कद्र नहीं होती। समय आ गया है जब राजनेताओं द्वारा कर चुकाने वाली जनता से गला दबाकर वसूली गई राशि को अपने लाभ के लिए लुटाने वाली राजनीतिक संस्कृति का विरोध किया जाए क्योंकि ये देश किसी व्यक्ति, दल अथवा परिवार का न होकर जनता का है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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