Thursday 5 July 2018

दिल्ली : स्वच्छन्दता और अराजकता दोनों पर बंदिश


दिल्ली में उपराज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच अधिकारों को लेकर चल रहे द्वंद पर सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले का सहज अभिप्राय ये है कि इस केंद्र शासित राज्य की निर्वाचित सरकार को भी निर्णय और कार्य करने की वही स्वतंत्रता है जो पूर्ण कहे जाने वाले राज्यों को। उसको कुछ विषयों को छोड़कर बाकी पर कानून बनाने का भी अधिकार है। न्यायालय ने ये स्पष्ट कर दिया कि उप राज्यपाल दिल्ली सरकार के किसी भी निर्णय या कार्य में अड़ंगा नहीं लगा सकते जब तक वह संविधान विरुद्ध न हो लेकिन मतभेद की स्थिति आने पर विवाद सुलझाने के लिए प्रकरण राष्ट्रपति के पास भेजा जावेगा। दिल्ली सरकार के लिए भी ये बाध्यता रहेगी कि वह हर निर्णय से उपराज्यपाल को विधिवत अवगत करवाए। फैसले के बाद आम आदमी पार्टी को ये कहने का अवसर मिल गया कि उसकी सरकार को काम नहीं करने दिया गया। अदालत के निर्णय ने ये स्पष्ट कर दिया कि उपराज्यपाल दिल्ली के प्रशासक तो हैं किंतु शासक नहीं और असली शक्ति जनता द्वारा निर्वाचित सरकार के पास है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की जिस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं गया वह है स्वच्छन्दता के साथ-साथ अराजकता पर रोक। सतही तौर पर देखने में तो यही लगता है कि केंद्र सरकार ने पूर्ण राज्य नहीं होने का बहाना बनाकर केजरीवाल सरकार को काम नहीं करने दिया क्योंकि उसे भय था कि यदि आम आदमी पार्टी अपने एजेंडे को पूरी तरह लागू कर ले गई तब दिल्ली में भाजपा का भविष्य चौपट हो जावेगा जिसका प्रभाव पड़ोसी राज्यों पर पड़े बिना नहीं रहेगा। उपराज्यपाल के जरिये दिल्ली सरकार को बंधुआ बनाने की नीति को ही सम्भवत: सर्वोच्च न्यायालय ने स्वच्छन्दता की श्रेणी में रखा लेकिन उसने अराजकता पर रोक लगाकर सहमति से व्यवस्था बनाए रखने की जो समझाइश दी वह बिना नाम लिए अरविंद केजरीवाल के लिए है जिन्होंने जनादेश को मनमर्जी से काम करने की छूट मानते हुए तमाम ऐसे फैसले किये जिनका पार्टी के घोषणापत्र में कोई उल्लेख नहीं था। सादगी का ढिंढोरा पीटकर सत्ता में आए श्री केजरीवाल ने धीरे-धीरे सभी सुख-सुविधाएं हासिल कर लीं। दिल्ली में विधायकों का वेतन-भत्ता भी देश भर में सबसे ज्यादा कर दिया। उसके अलावा दो दर्जन विधायकों को अप्रत्यक्ष रूप से मंत्री बनाकर सत्ता के फायदे पहुंचाने का खेल रचा गया जिसकी वजह से उनकी सदस्यता पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। इसमें दो मत नहीं हैं कि केजरीवाल सरकार ने गरीबों सहित मध्यमवर्गीय जनता के लिए अनेक कल्याणकारी कार्य किये जिनमें सबसे अच्छा सरकारी शालाओं का कायाकल्प है। उसकी वजह से निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों की लूटखसोट से आम जनता को राहत मिली। मोहल्ला क्लीनिक योजना भी स्वास्थ्य सेवाओं को सस्ता और सुलभ बनाने में सहायक बना लेकिन हाल ही में आई टीवी रिपोर्ट के मुताबिक ये प्रयोग अपेक्षाओं पर उतना खरा नहीं उतरा। बिजली और पानी के अनाप-शनाप बिलों से राहत का वायदा भी जिस तरह किया गया, उस तरह पूरा नहीं हो सका। सबसे बढ़कर बात ये रही कि आम आदमी पार्टी सरकार की छवि झगड़ालू की बन गई। हर बात में अडिय़लपन के कारण ये लगने लगा कि जो ऐतिहासिक सफलता विधानसभा चुनाव में उसे मिली उसने श्री केजरीवाल सहित उनके साथियों में अहंकार भर दिया जिसके चलते पार्टी में भी टूटन आ गई। ढेर सारे मंत्री और विधायक अपराधिक मामलों में फंसे हुए हैं। बतौर मुख्यमंत्री श्री केजरीवाल विधानसभा जाने से भी परहेज करते हैं। राज्यसभा में पार्टी के तपे-तपाए नेताओं को किनारे धकेलते हुए दो धनकुबेरों को उपकृत किया गया। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मोदी सरकार और भाजपा के मुंह पर तमाचा बताया गया लेकिन कांग्रेस भी तो केजरीवाल सरकार की नीतियों और निर्णयों का विरोध करती रही है। कल के जिस फैसले को आम आदमी पार्टी की इकतरफा जीत कहकर प्रचारित किया जा रहा है उसी में बिना लागलपेट के कह दिया गया कि दिल्ली केंद्र शासित राज्य ही रहेगा जिसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता जिसके लिए श्री केजरीवाल व्यापक आंदोलन करने की योजना बना रहे थे। कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विगत दिवस दिए निर्णय से एक तरफ  जहां निर्वाचित सरकार के कार्यों में व्यवधान उपस्थित करने से उपराज्यपाल और केंद्र सरकार को रोका गया है वहीं मुख्यमंत्री को भी अप्रत्यक्ष रूप से नसीहत दी गई है कि वे भी बचकानी हरकतें छोड़कर मर्यादा में रहा करें। सरकार के हर निर्णय की जानकारी उपराज्यपाल को दिए जाने की अनिवार्यता इस बात को स्पष्ट करती है कि संवैधानिक प्रमुख की उपेक्षा सम्भव नहीं होगी। किसी मतभेद की स्थिति में राष्ट्रपति का मार्गदर्शन लेने संबंधी व्यवस्था भी चुनी हुई सरकार के लिए लक्ष्मण रेखा खींचने जैसा है। कुल मिलाकर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और उपराज्यपाल के साथ ही अरविंद केजरीवाल को भी आईना दिखा दिया है। संसदीय प्रजातंत्र में कार्यपालिका और विधायिका के मध्य नियंत्रण और संतुलन की जो आदर्श स्थिति होनी चाहिए, सर्वोच्च न्यायालय ने उसे ही रेखांकित किया है। फैसले की बारीकी से व्याख्या करने पर तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय वाली स्थिति समझ में आती है। मुख्य सचिव को पीटने जैसी घटनाओं का संज्ञान लेते हुए ही न्यायालय ने अराजकता जैसा शब्द इस्तेमाल किया। इस निर्णय के बाद भी  विवाद को खत्म मान लेना गलत होगा क्योंकि दोनों पक्ष राजनीति करने वाले हैं और केजरीवाल सरकार सदैव आंदोलन करने के बहाने ढूंढा करती है। पूर्ण राज्य के अध्याय को सर्वोच्च न्यायालय ने पूरी तरह से बन्द कर दिया और चुनी हुई सरकार को शक्तिसम्पन्न मानते हुए कुछ क्षेत्रों को छोड़कर शेष में कानून बनाने एवं फैसले करने का अधिकार भी दे दिया किन्तु लगे हाथ ये नसीहत भी दे दी कि वह उपराज्यपाल को मिट्टी का माधो न मानें। दरअसल आम आदमी पार्टी  की नजर 2019 के लोकसभा चुनाव पर है। वह चाहेगी कि दिल्ली की सातों सीटें जीतकर भाजपा और कांग्रेस को 2020 में होने वाले विधानसभा चुनाव के पहले ही  हतोत्साहित कर दे। इसलिये ये मान लेना सही नहीं होगा कि केजरीवाल सरकार सर्वोच्च न्यायालय के बताए अनुसार सीधे रास्ते पर चलेगी। आंदोलन के जरिये सत्ता तक पहुंचे श्री केजरीवाल अभी भी वैसे ही तेवर दिखाते रहे तो वे कुछ भी नहीं कर सकेंगे और अब उनके पास उपराज्यपाल नामक बहाना भी नहीं रहेगा। इस बारे में एक बात याद रखनी होगी कि सर्वोच्च न्यायालय का सन्दर्भित फैसला सैद्धांतिक ज्यादा है। अभी उसके समक्ष कई ऐसे मामले लम्बित हैं जो दिल्ली की निर्वाचित सरकार के अधिकारों को और स्पष्ट करेंगे। फिलहाल तो आम आदमी पार्टी को जश्न मनाने का अवसर मिल गया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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