Wednesday 4 July 2018

एक देश-एक चुनाव : जनता की राय भी ली जाए


विधि आयोग द्वारा आगामी 7 जुलाई को पूरे देश में एक साथ चुनाव करवाने हेतु जो सर्वदलीय बैठक बुलाई जा रही है उसमें सर्वसम्मति बनने की सम्भावना नजऱ नहीं आ रही क्योंकि कांग्रेस ने अभी से ये कहना शुरू कर दिया है कि इसी वर्ष होने वाले मप्र., छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में भाजपा की खस्ता हालत के कारण केंद्र सरकार ये दांव खेलना चाह रही है। वैसे चुनाव आयोग भी समय-समय पर इसकी पहल कर चुका है किन्तु देश का राजनीतिक माहौल इतना बिगड़ चुका है कि अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए राजनेता और उनकी पार्टियां राष्ट्रीय हित को दरकिनार करने में जरा भी नहीं हिचकतीं। 1967 तक देश में सभी विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ ही हो जाया करते थे। लेकिन फिर संविद सरकारों के उदय से उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता ने एक देश-एक चुनाव की व्यवस्था को संकट में डालना शुरू किया। 1969 में कांग्रेस के ऐतिहासिक विभाजन के उपरांत इंदिरा गांधी ने अपने आपको मजबूत करने हेतु लोकसभा का मध्यावधि चुनाव करवा दिया। तभी से चुनाव की पूरी व्यवस्था गड़बड़ा गई। जिस चुनाव आयोग का नाम कभी-कभार सुनाई देता था उसे भी हर समय सक्रिय रहना पड़ गया। विभिन्न राज्यों के चुनाव अलग-अलग समय पर होने के कारण देश में सदैव चुनावी माहौल बना रहता है। एक चुनाव सम्पन्न होते ही दूसरे का ऐलान हो जाता है। ये कहने में भी कोई बुराई नहीं है कि राजनीति और चुनाव एक तरह का ऐसा राष्ट्रीय उद्योग है जो देश के लिये जबरदस्त घाटे का सौदा साबित हुआ है। इसकी वजह से केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी नीतिगत अनिश्चितता में उलझकर रह जाती है। भारत में भौगोलिक स्थिति के साथ ही भाषा, संस्कृति और उससे जुड़ी तमाम चीजें बदल जाती हैं। क्षेत्रीय भावनाएं और हित राजनीति पर इस कदर हावी होते हैं कि राष्ट्रीय नेता भी उनके सामने झुकने बाध्य हो जाते हैं। इसके चलते राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ा निर्णय लेने के पहले ये ध्यान रखने की बाध्यता बन जाती है कि उससे कौन राज्य खुश और कौन नाराज हो सकता है। अलग-अलग चुनाव होने की वजह से क्षेत्रीयता की भावना भी मजबूत होने लगी है। केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी राज्यों के तुष्टीकरण के लिए मजबूर हो जाती है। वर्तमान सरकार को ही लें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लगभग हर समय किसी न किसी राज्य के चुनाव की चिंता सताती रहती है। एक भी वर्ष ऐसा नहीं गुजरा जब उन्हें चुनाव प्रचार नहीं करना पड़ा हो। समाचार माध्यम भी हर मुकाबले को महा-मुकाबला बताकऱ सनसनी पैदा कर देते हैं। उस दृष्टि से सभी विधानसभाओं और लोकसभा का चुनाव एक साथ करवाने का विचार हर दृष्टि से देश हित में है लेकिन कांग्रेस खुद तो इसके विरोध में है ही, अन्य दलों को भी वह इस मुद्दे पर अपने साथ आने हेतु राजी करने प्रयासरत हैं। चूंकि भाजपा और नरेंद्र मोदी विपक्ष के साझा शत्रु बन चुके हैं इसलिए एक देश -एक चुनाव के प्रस्ताव को देश के दूरगामी हितों के बजाय इस नजरिये से देखा जा रहा है कि वैसा होने पर अपना फायदा है या नुकसान? कोई दल या नेता अपने राजनीतिक लाभ की बात सोचे ये कोई अपराध नहीं लेकिन जब निजी स्वार्थ देश के लिए हानिप्रद हों तब उनको छोडऩा कालांतर में फायदेमंद ही होता है। अतीत में ऐसे अनेक अवसर आए जब देशहित में मतभिन्नता के बाद भी तमाम राजनीतिक दलों ने एकजुटता का प्रदर्शन किया। संसद में जबरदस्त खेमेबाजी के चलते भी कुछ मुद्दों पर सर्वसम्मति देखी गई है। एक देश-एक चुनाव भी ऐसा ही विषय है जिस पर दलीय हितों से ऊपर उठकर सोचा जाना चाहिए। चुनाव की समयसारिणी को अस्त व्यस्त करने के लिए किसी एक दल को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। कमोबेश सभी ने अपने-अपने स्तर पर मध्यावधि चुनाव के हालात पैदा किये हैं। हाल ही में भाजपा द्वारा किनारा कर लेने से जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गईं जिससे मध्यावधि चुनाव की संभावनाएं बन रही हैं। कुछ और भी छोटे-छोटे राज्य हैं जहां जोड़तोड़ वाली सरकारें होने से कब विधानसभा भंग करना पड़े कहा नहीं जा सकता। गठबंधन राजनीति की वजह से क्षेत्रीय दलों का महत्व केंद्रीय राजनीति में बढ़ता जा रहा है। भाजपा लोकसभा में स्पष्ट बहुमत होने पर भी छोटे-छोटे सहयोगी दलों के साथ चलने मज़बूर है तो कांग्रेस अपनी वापिसी की उम्मीद में क्षेत्रीय दलों के समक्ष समर्पण करने में शर्म और संकोच को पूरी तरह छोड़ चुकी है। लेकिन इस सबसे हटकर सबसे महत्वपूर्ण बात है देश में राजनीतिक स्थिरता लाने की। विधि आयोग यदि राजनीतिक दलों की बैठक के अलावा रायशुमारी करवा ले तो उसे पता चल जावेगा कि देश की जनता हर समय चुनाव होते रहने से ऊब चुकी है। राजनीतिक दल भी प्रत्याशी चयन और अपनी स्थिति जानने के लिए पेशेवर एजेंसियों से सर्वेक्षण करवाते हैं। उन्हें चाहिए कि इस विषय पर भी जरा जनमत का जायजा लें। कहने का आशय ये है कि विपक्ष भाजपा को फायदा उठाने से तो जरूर रोके किन्तु देश के नुकसान को भी नजरंदाज नहीं करे। एक देश-एक चुनाव की व्यवस्था को पुन: शुरू करना काँग्रेस के लिए भी फायदेमंद हो सकता है क्योंकि तब उसे क्षेत्रीय दबावों से मुक्ति मिल जावेगी। इसका उदाहरण बंगाल और केरल के पिछले विधानसभा चुनाव में देखने मिला जब कांग्रेस ने बंगाल में ममता बैनर्जी के विरुद्ध वामपंथी मोर्चे के साथ गठबंधन किया लेकिन केरल में वह वाममोर्चे के विरुद्ध लड़ी। उप्र में राहुल गांधी को अखिलेश यादव के सामने समर्पण करना पड़ गया तो बिहार में वे लालू प्रसाद यादव के पिछलग्गू बनने बाध्य हैं। यही स्थिति भाजपा को भी झेलनी पड़ रही है। विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ होने से राष्ट्रीय मुद्दे प्राथमिक हो जाएंगे। सार्वजनिक धन की बचत के अलावा चंदे के धंधे के रूप में चलने वाले कालेधन के कारोबार पर भी कुछ तो रोक लगेगी। मोदी सरकार इस बारे में सैद्धांतिक तौर पर सहमत है। प्रधानमन्त्री तो कई बार इस बारे में आह्वान भी कर चुके हैं। चुनाव आयोग भी अपनी मंशा जाहिर कर चुका है। ये सब देखते हुए काँग्रेस को विधि आयोग में एक देश-एक चुनाव के प्रस्ताव को सिरे से ठुकराने की जगह अपने व्यवहारिक सुझाव प्रस्तुत करना चाहिए। विपक्षी दल के नाते भाजपा का विरोध उसका स्वाभाविक कर्म है किंतु जब सवाल देश का हो तब राजनीति से परे हटकर सोचना जरूरी हो जाता है। क्षेत्रीय दलों से तो उम्मीद कम है किंतु कांग्रेस को इस बारे में राष्ट्रीय पार्टी की तरह पेश आना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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