Thursday 12 July 2018

समलैंगिकता : केंद्र सरकार की निर्लिप्तता ठीक नहीं


समलैंगिकता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन याचिका पर केंद्र सरकार द्वारा सब कुछ न्यायालय पर छोडऩे का निर्णय पलायन की श्रेणी में आता है। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा वैध ठहराए जाने के बाद उसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। भारतीय दंड विधान संहिता में समलैंगिक  शारीरिक संबंधों को अप्राकृतिक मानते हुए अपराध माना गया है। पहले समाज में ऐसे रिश्ते रखने वाले इसे छिपाते थे और पता लगने पर ऐसे लोगों को घृणित समझा जाता था। लेकिन बीते कुछ वर्षों में इसे लेकर खुलकर चर्चा होने लगी है। पश्चिमी देशों की नकल करते हुए समलैंगिक लोगों के संगठन बन गए और वे खुलकर सड़कों पर उतरकर इसे बतौर अधिकार स्वीकृति देने की मांग करने लगे। मामले अदालत में गए और अन्तत: सर्वोच्च न्यायालय के जिम्मे ये काम आ गया कि वह समलैंगिक संबंधों को वैध अथवा अवैध करने संबंधी निर्णय दे। प्रचलित कानून से बेपरवाह कई युवक और युवतियों ने विवाह की तर्ज पर साथ रहते हुए बाकायदा ये स्वीकार किया कि वे समलैंगिक हैं। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य विचाराधीन मुद्दा यही है कि क्या दो वयस्क समलैंगिकों को आपसी सहमति के आधार पर सम्बन्ध बनाने की अनुमति दी जाए अथवा नहीं? विषय चूंकि कानून में संशोधन का है अत: केंद्र सरकार को खुलकर अपनी बात कहनी चाहिये जैसा वह अन्य मामलों में करती है किन्तु इस याचिका पर उसने सर्वोच्च न्यायालय को पूरी छूट देकर अपना पल्ला झाड़ लिया। इसकी वजह समलैंगिकों के वोट ही हो सकते हैं या फिर इस तरह के मुद्दे पर सरकार खुद किसी विवाद में नहीं पडऩा चाहती किन्तु समलैंगिक संबंधों की वैधता सम्बन्धी विचार केवल कानूनी तथा राजनीतिक न होकर सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा ऐसा विषय है जो नैतिक और प्राकृतिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण और गंभीर है। निश्चित रूप से भारतीय संस्कार ऐसे विषयों पर सार्वजनिक चर्चा से बचने के रहे हैं। हो सकता है सरकार भी उसी लिहाज से खुद को दूर रख रही हो लेकिन ये ठीक नहीं है। समलैंगिक संबधों को केवल भावनात्मक आधार पर सामाजिक स्वीकृति एवं वैधानिक मान्यता नहीं दी जा सकती क्योंकि इसके परिणाम किसी भी दृष्टि से सुखद नहीं होंगे। विशेष रूप से भारत में जहां विवाह जैसी संस्था भी केवल यौन सुख के लिए नहीं बनी अपितु इसके जरिये परिवार नामक एक व्यवस्था संचालित होती है जो समाज के अस्तित्व को सहेजकर चलती है। पश्चिम के जिन देशों में यौन स्वच्छन्दता, समलैंगिक संबंध और लिव इन रिलेशनशिप जैसी बातें पनपीं वहां परिवार रूपी इकाई भी कमजोर होती गई। विवाह पूर्व यौन संबंध और बिन ब्याही माँ बनने जैसी बातें वहाँ जिस तरह आम हुईं उसके पीछे मुख्य वजह परिवार नामक इकाई के प्रति  उपेक्षा भाव ही था। भौतिक प्रगति के चर्मोत्कर्ष को छूने के बावजूद उन देशों में सामाजिक विघटन भी उतनी ही तेजी से बढ़ रहा है। दुर्भाग्यवश हमारे देश में भी एक वर्ग ऐसा है जो यौन विषयों को स्वच्छन्दता में तब्दील करने पर आमादा है। अभिजात्य वर्ग में वर्जनाहीन समाज के प्रति जो रुझान है पहले हमारे यहां उसे व्यभिचार माना जाता था। इसके पीछे परिवार के स्थायित्व और रिश्तों की पवित्रता का भाव ही प्रमुख कारण रहा। संयुक्त परिवार प्रथा के रहते तक तो यौन स्वच्छन्दता की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। लेकिन तथाकथित आधुनिकता के फेर में नैतिक बंधन ढीले होने से मानसिक विकृति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सामने आने लगी जिसे भारतीयता को पिछड़ापन मानने वाले अंग्रेजों के मानसपुत्रों ने समर्थन और प्रोत्साहन देकर सार्वजनिक बहस का विषय बना दिया। जहां तक समलैंगिक संबंधों का प्रश्न है तो न उनमें स्वाभाविकता हो सकती है न ही वे नैसर्गिक हैं। नास्तिक व्यक्ति भले ये मानते हों कि ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं है और ब्रह्नमाण्ड की रचना वैज्ञानिक कारणों से क्रमिक विकास के जरिये हुई किन्तु आदिम अवस्था से बढ़ते हुए मनुष्य ने जब परिवार और समाज बनाया तब से यौन सम्बन्धों की मर्यादा भी तय हो गई। प्रकृति ने स्त्री-पुरुष के तौर पर जो अलग-अलग रचनाएं कीं उनमें केवल लैंगिक भिन्नता नहीं अपितु स्वभाव और भूमिका भी अलग है। सृष्टि की निरंतरता भी उन दोनों के संसर्ग पर निर्भर है । विवाह नामक संस्था बनाने के पीछे का उद्देश्य भी समाज को एक व्यवस्थित और नैतिक आधार देना था जिसकी सफलता के लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। लेकिन विपरीत संस्कृति और सामाजिक परिस्थिति वाले देशों के अंधानुकरण की वजह से हमारे देश में भी ऐसा वर्ग तैयार हो गया है जो प्रचलित समाजिक मान्यताओं को तोडऩे में ही खुद को प्रगतिशील मानता है। सरकार को चाहिए वह सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे प्रकरण में बजाय निर्लिप्त रहने के मुस्तैदी से अपना पक्ष रखे। समलैंगिकता ऐसा विषय है जिस पर सरकार को अपनी राय खुलकर रखनी चाहिए क्योंकि वह देश का प्रतिनिधित्व करती है। समलैंगिकता को यदि कानूनी मान्यता दे दी गई तो उससे उत्पन्न होने वाली सामाजिक और कानूनी समस्याओं से भी अंततोगत्वा सरकार को ही निपटना पड़ेगा इसलिये बेहतर यही होगा कि वह सर्वोच्च न्यायालय में अपना पक्ष रखे। जब वह ऐसे ही दूसरे मुद्दों पर विचाराधीन याचिकाओं पर विस्तार से अपना पक्ष रख रही है तब जनअपेक्षा है कि वह समलैंगिक संबंधों पर भी अपना वैधानिक पक्ष भारत की सामाजिक परिस्थितियों और परम्पराओं को दृष्टिगत रखते हुए सबसे बड़ी अदालत के सामने रखे। यदि वह ऐसा नहीं करती तब इसका अभिप्राय यही निकलेगा कि दबी जुबान वह भी समलैंगिक सम्बन्धों को मान्य किये जाने की पक्षधर है। भले ही ऐसे मुद्दे अभी तक चुनावी राजनीति का विषय नहीं बने लेकिन केंद्र सरकार ने अदालत में अपनी बात नहीं कही तब जरूर उस पर तरह-तरह के आरोप लगेंगे जिन्हें अस्वभाविक अथवा राजनीतिक कहकर हवा में उड़ा देना आसान नहीं होगा।

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