Monday 9 July 2018

सामाजिक सुधार में बाधक न बन जाएं शरीयत अदालतें

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड देश भर के जिला केंद्रों पर शरीयत अदालतें खोलने का विचार कर रहा है। आगामी 15 जुलाई को इस बारे में अंतिम फैसला बोर्ड की बैठक में किया जावेगा। प्राप्त जानकारी के मुताबिक उप्र में ऐसी 40 अदालतें कार्यरत हैं। इनका उद्देश्य मुस्लिम समाज को शरीयत कानून के बारे में जागरूक करना है। वकीलों  और न्यायाधीशों तक को भी तत्सम्बन्धी प्रशिक्षण दिए जाने की कार्ययोजना बनाई जा रही है। बोर्ड की मंशा है कि मुस्लिम समुदाय के भीतर उठने वाले तमाम विवाद जिन पर शरीयत लागू होती है, उनका निपटारा बजाय न्यायपालिका से कराने के शरीयत अदालत में ही कर लिया जावे। बोर्ड का मानना है नियमित अदालतों में लंबित प्रकरणों का अंबार होने से मुस्लिम समाज के प्रकरण भी उलझे रहते हैं। शरीयत अदालतों के माध्यम से उनका शीघ्र निराकरण सम्भव हो सकेगा। सतही तौर पर देखने से लगता है कि बोर्ड की इच्छा मुस्लिम समुदाय के लोगों को त्वरित और सस्ता  न्याय दिलवाने की है। यूँ भी हमारे देश में जातिगत और धार्मिक पंचायतें निजी, पारिवारिक और सामाजिक विवादों पर फैसले करती रहीं हैं जिनके पालन की बाध्यता भी रही किन्तु आधुनिकता के प्रभाववश सामाजिक व्यवस्थाएं भी बदलती गईं जिससे परिवार, जाति और धर्म के बंधन कमजोर पड़ते गए। एक जमाना था जब जाति या समुदाय द्वारा निर्धारित परिपाटी का उल्लंघन करने वाले का हुक्का पानी बन्द कर दिया जाता था। अभी भी ग्रामीण परिवेश में कहीं-कहीं जातिगत पंचायतें ऐसे फैसले करती हैं जिनका पालन करना जरूरी होता है। लेकिन संयुक्त परिवार, मोहल्ले, गांव अब गुजरे जमाने की बात होकर रह गए हैं। मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर के दौर का समाज नहीं रहा। जातिगत पंचायतों का कोई कानूनी महत्व भी नहीं बचा। ऐसे में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ये कोशिश  चौंकाने वाली है क्योंकि दकियानूसी माने जाने वाले इस समुदाय में भी अब सामाजिक बदलाव आ रहे हैं। शिक्षा के प्रसार ने लोगों की सोच बदली है। ऐसा लगता है तीन तलाक, बहु विवाह और हलाला सरीखे मामलों में न्यायपालिका की दखलंदाजी और संसद में लंबित विधेयक से मुस्लिम महिलाओं में आई जागरूकता और बोलने की हिम्मत ने इस समुदाय के कट्टरपंथी लोगों को सतर्क कर दिया है। उन्हें ये लगने लगा है कि यदि मुस्लिम महिलाएं अथवा पुरुष सामाजिक और पारिवारिक मामलों को लेकर न्यायपालिका में जाते रहे तो फिर मुस्लिम धर्म के तथाकथित मुखिया अपना प्रभुत्व खो बैठेंगे। जिला स्तर पर शरीयत अदालतें खोलने से समुदाय को धर्म की सीमा में बांधकर रखने की व्यवस्था बनी रहेगी। यद्यपि अभी भी मुल्ला-मौलवी और काज़ी वगैरह ये काम करते हैं किंतु उनमें से कुछ का आचरण और छवि दिन ब दिन खराब होने से बोर्ड को लगा कि शरीयत अदालत के नाम पर मुसलमानों को धर्म के प्रावधानों से जोड़कर रखने में मदद मिलेगी और न्यायपालिका द्वारा शरीयत की अपने ढंग से की जाने वाली व्याख्या पर भी रोक लग सकेगी। ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज में आधुनिकता नहीं आ रही हो किन्तु वह निजी तौर पर कितनी भी हो लेकिन ज्योंही बात समुदाय के स्तर पर आती है लोग धर्मभीरु हो जाते हैं। तीन तलाक़ सम्बन्धी अदालती फैसले का मुस्लिम समाज की चंद महिलाओं ने भले स्वागत किया हो किन्तु पढ़े-लिखे लोग भी शरीयत के प्रावधानों के विरुद्ध बोलने से कतराते रहे। यहां तक कि परिवार और समुदाय के दबाव के कारण मुस्लिम महिलाएं भी अपने साथ होने वाले अन्याय और शोषण का वैसा विरोध नहीं कर सकीं जैसा अपेक्षित था। फिर भी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को ये खतरा तो लगने ही लगा कि उनके एकाधिकार के विरुद्ध न्यायपालिका और संसद में वातावरण बनने लगा है। मुस्लिम समुदाय में भले ही खुलकर आवाजें न उठ रही हों लेकिन दबी जुबान लोग कसमसाहट अनुभव करने लगे हैं। यद्यपि शिक्षा के अभाव के कारण आज भी आम तौर पर इस समाज में सामाजिक सुधार और प्रगतिशील सोच का अभाव है लेकिन छोटा सा ही सही एक वर्ग तो ऐसा है जो कुरीतियों के विरोध में सोचने लगा है। पर्सनल लॉ बोर्ड की चिंता का विषय यही वर्ग है। मुस्लिम कट्टरपंथी कभी नहीं चाहते कि उनके सामाजिक और धार्मिक मामलों में किसी भी भी प्रकार की दखलन्दाजी हो, फिर चाहे वह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हो या विधायिका के जरिये। जिला स्तर पर शरीयत अदालतें खोलने के पीछे भी यही सोच लगती है। इन अदालतों की वैधानिक स्थिति क्या होगी ये अलग विषय है किंतु इनके जरिए मुस्लिम समाज में सुधार की जो संभावनाएं बन रही हैं उनकी भू्रण हत्या न हो जाये ये मुस्लिम समाज के उन जिम्मेदार लोगों को सोचना चाहिए जो चाहते हैं कि देश की आबादी का बड़ा हिस्सा मुख्य धारा में शामिल होकर विकास के रास्ते पर चल सके। मुस्लिम समाज के अलावा भी कट्टरपंथी सोच अन्य धर्मों और जातियों में है। हरियाणा की खाप पंचायतों के तानाशाही भरे फैसलों की देश भर में आलोचना होती है। अन्य जातियों और समाजों द्वारा सदियों पुरानी रूढिय़ों को जबरन लादने के विरुद्ध भी जबरदस्त वातावरण दिखाई देता है किन्तु ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि मुस्लिम धर्मगुरु या प्रवक्ता शरीयत की आड़ में जो स्वेच्छाचारिता करते हैं उससे मुसलमानों की छवि और विकास दोनों पर विपरीत असर पड़ रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य के सम्बंध में मुस्लिम लड़कियों की स्थिति बेहद खराब है। परिवार नियोजन से परहेज के चलते अधिकांश विवाहित महिलाएं भी शारीरिक दृष्टि से कमजोर होती हैं। तलाकशुदा महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी दयनीय हो जाती है। बेहतर होता मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसा कोई निर्णय लेता जिससे देश भर में फैले मुसलमानों के शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक उत्थान की भूमिका तैयार होती। शरीयत अदालतों का उद्देश्य यदि मुस्लिम समुदाय को नेकी और तरक्की के रास्ते पर चलने हेतु मदद और मार्गदर्शन देना हो तब तो ठीक वरना कहीं ऐसा न हो कि वे फतवा जारी करने वाले केंद्र बनकर रह जाएँ। मुसलमानों को वोट बैंक बनाकर रखे नेताओं को भी सोचना चाहिए कि वे उनको तरक्की के रास्ते पर आगे बढऩे हेतु प्रेरित करें। बीते सत्तर सालों में मुस्लिम समुदाय विकास के दौड़ में पीछे रह गया तो उसके पीछे धार्मिक कट्टरता का भी बहुत बड़ा हाथ रहा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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