Friday 20 July 2018

अविश्वास प्रस्ताव : न उत्सुकता न उत्तेजना


अपने कार्यकाल के अंतिम दौर में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करने वाली मोदी सरकार को कोई खतरा नहीं है। सहयोगी साथ न दें तो भी अपने संख्याबल के बल पर सरकार जीत जाएगी। विपक्ष भी ये बात जानता है किन्तु उसका प्रयास इस बहाने उस महागठबंधन की जमीन तैयार करना है जिसके दम पर कांग्रेस 2019 में नरेंद्र मोदी को हराना चाह रही है। हांलांकि शिवसेना ने अभी तक अपने रुख को स्पष्ट नहीं किया है। लेकिन लगता है नखरे दिखाने के बाद अंतत: वह सरकार के साथ खड़ी रहेगी क्योंकि उसके एक सदस्य अनन्त गीते मोदी सरकार में भारी उद्योग मंत्री हैं। बीजू जनता दल भी हालांकि भाजपा विरोधी है किंतु उसका निर्णय भी कल रात तक सामने नहीं आया। अन्ना द्रमुक तो खुलकर सरकार के पक्ष में खड़ी हो गई है। इस तरह अविश्वास प्रस्ताव केवल बौद्धिक महत्व तक सीमित रह गया है। चूंकि सत्तारूढ़ भाजपा को उसकी सदस्य संख्या के मुताबिक आधे से ज्यादा समय दिया गया है इसलिए ये माना जा रहा है कि इस अवसर का लाभ उठाकर वह लोकसभा चुनाव के पूर्व होने जा रहे कुछ राज्यों के चुनाव के लिए अपने प्रचार का शुभारंभ भी कर देगी। लोकसभा में अब तक जितनी बार भी किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस हुई तब-तब प्रधानमंत्री अपनी भाषण शैली और आक्रामकता से विपक्ष खास तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को पूरी तरह घेरने में कामयाब रहे। पिछले सत्र में जिस अविश्वास प्रस्ताव को टालने में सरकार ने पूरी ताकत लगा दी थी उसे इस सत्र में आसानी से पेश होने देना दरअसल भाजपा नेतृत्व की सोची समझी चाल है जिसे विपक्ष अपने लिए एक अवसर भले मान रहा हो किन्तु बहस के लिए उपलब्ध समय और पर्याप्त संख्या बल के बल पर प्रधानमंत्री और भाजपा इस मौके में अपने लिए अनुकूलता देख रहे हैं और उनका सोचना गलत नहीं है। इसकी वजह विपक्ष के पास ऐसे किसी मुद्दे का अभाव है जो जनता के लिए नया हो। सरकार की जिन असफलताओं को वह गिनाने वाला है वे सर्वविदित हैं। कोई नया धमाका इस दौरान होने की भी कोई उम्मीद नहीं है। इसी तरह सत्ता पक्ष के पास भी बताने के लिए वही सब है जिसका प्रचार वह विज्ञापनों के जरिये आए दिन किया करता है। कुल मिलाकर देखें तो ये अविश्वास प्रस्ताव संसदीय दृष्टि से कम और राजनीतिक दृष्टि से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। जिन मुद्दों को विपक्ष आज उठाएगा वे पिछले सत्र में भी उठाए जा सकते थे यदि सदन को चलने दिया गया होता। कांग्रेस के पास आज बोलने के लिए एक घण्टे से भी कम का समय होगा जिसमें राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया और मल्लिकार्जुन खडग़े तीनों को बोलना है। बेहतर होगा काँग्रेस से कोई एक वक्ता ही सरकार पर हमले के किये खड़ा हो जिससे पार्टी की पूरी बात सदन और देश के सामने आ सके। वैसे मूल प्रस्ताव चूंकि तेलुगु देशम का है इसलिए बहस की शुरुवात और अंत उसी के सांसद द्वारा होगा। अन्य दलों का कोई खास महत्व इस अवसर पर नहीं रहेगा क्योंकि उनकी पहिचान और रुचि केवल उनके प्रांत तक ही सीमित है। तेलुगु देशम का झगड़ा भी केवल आन्ध्र को विशेष राज्य का दर्जा न मिलने को लेकर है वरना साल के शुरू तक तो वह खुद सरकार में हिस्सेदार रही अत: उसकी आलोचना पर स्वार्थ सिद्ध न होने का आरोप पहले से ही लगा हुआ है। असली बात ये होगी कि भाजपा और प्रधानमंत्री अविश्वास प्रस्ताव का सामना किस तरह करेंगे? रक्षात्मक होने का तो सवाल ही नहीं है किंतु आक्रामक होने के लिए भी सत्ता पक्ष को काफी परिश्रम करना होगा क्योंकि लोकसभा चुनाव के लगभग सात-आठ महीने पहले अब वह आश्वासन और सपनों का सहारा नहीं ले सकेगा। सरकार के पास बताने को तो आंकड़ों की लंबी कतार है किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसके जरिये वह देश  को  बता सके कि उसने जो कहा वह किया भी है। आज ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने गंगा सफाई अभियान की समीक्षा में जो निराशाजनक चित्र प्रस्तुत किया वह कमोबेश उन सभी वायदों के साथ है जो सत्ता में आने के पहले और बाद में इस सरकार ने देश से किये थे। यद्यपि काम करने के मामले में नरेंद्र मोदी अपने पूर्ववर्ती की तुलना में बेहद सफल और सक्षम साबित हुए हैं किंतु उनमें से कुछ को छोड़कर अंजाम तक पहुंचने वाले इक्का-दुक्का ही हैं। सरकारी पक्ष के लिए यही मुसीबत का कारण है कि भले ही श्री मोदी की छवि एक परिश्रमी और ईमानदार प्रधानमन्त्री के तौर पर बनी हो और उनकी लोकप्रियता भी अपने प्रतिद्वंदियों की तुलना में अभी भी ऊपर हो किन्तु अच्छे दिन और सबका साथ सबका विकास जैसे नारे अपना आकर्षण खो चुके हैं। भाजपा का ये दावा अपनी जगह सही हो सकता है कि मोदी जी की नीतियां दूरगामी लक्ष्यों पर केंद्रित होने से तत्काल उनके परिणाम दिखाई देना कठिन है किंतु दूसरी तरफ  ये बात भी सही है कि जनता का वह बड़ा वर्ग तब तक इंतज़ार करने की स्थिति में नहीं है जिसकी जि़ंदगी रोटी कमाने में ही उलझी हुई है और जिसके लिए नोटबन्दी, जीएसटी, मेक इन इंडिया, मुद्रा योजना, स्टार्ट अप और जनधन योजना जैसे बातें अर्थहीन हैं। शेष जिन संवेदनशील और विवादास्पद विषयों पर विपक्ष सरकार को घेरने की कोशिश करेगा उन पर तो सोशल मीडिया में सुबह से लेकर रात तक अंतहीन बहस चला करती है, इसलिए देश को उनमें कोई रुचि नहीं है। इस अविश्वास प्रस्ताव की जो सबसे बड़ी विशेषता होगी वह यह कि सदन लम्बे समय बाद न सिर्फ  चलेगा बल्कि सत्ता और विपक्ष दोनों के सदस्य सब काम छोड़कर सदन में चेहरा दिखाएंगे। प्रश्न ये उठता है कि सांसद ऐसी ही सक्रियता और कर्तव्यपरायणता सामान्य तौर पर क्यों नहीं दिखाते जो उनसे अपेक्षित भी है और आवश्यक सत्ता भी। अविश्वास प्रस्ताव चूंकि गिरना तय है इसलिए उत्सुकता केवल इस बात को लेकर रहेगी कि विपक्ष अपनी ताकत बढ़ाने में कामयाब हो सका या सत्ता पक्ष ने अपने किले में सेंध नहीं लगने दी। रही बात दोनों तरफ  से होने वाले आक्रमण और बचाव की तो उसमें ऐसा कुछ भी नहीं होगा जो देश न जानता हो। टीवी चैनलों में रोजाना होने वाली दिशाहीन चर्चा और निरर्थक बहस भी दरअसल संसद का लघु रूप बनती जा रही है जिसमें हाथापाई और अपशब्दों का इस्तेमाल होने से वाकई संसद का एहसास होने लगा है। इसके अलावा सोशल मीडिया कहे जाने वाले माध्यम के जरिये ज्वलन्त मुद्दों और देश के समक्ष मौजूद समस्याओं पर समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों के बीच जिस तरह जीवंत बहस हुआ करती है उसने भी संसद और सांसदों का महत्व घटा दिया है। इस आधार पर ये कहना गलत नहीं होगा कि इस अविश्वास प्रस्ताव को लेकर जनसाधारण में न तो किसी तरह की उत्तेजना है और न ही उत्सुकता क्योंकि लगभग छह घण्टे चलने वाली बहस का परिणाम सभी को पता है और ये भी कि इससे होना जाना कुछ भी नहीं है क्योंकि जिस दायित्वबोध की अनिवार्यता संसदीय प्रजातन्त्र में होनी चाहिए वह दूरदराज तक नजर नहीं आता और प्रत्येक राजनीतिक दल और नेता केवल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति में देश हित की उपेक्षा में लगा हुआ है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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