Saturday 21 July 2018

मजाक और मनोरंजन में उलझा गंभीर मुद्दा

आखिरकार वही हुआ जो तय था लेकिन संख्याबल को लेकर सोनिया गांधी के आत्मविश्वासी दावे के बावजूद विपक्ष का एकजुट न होना कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता । कई क्षेत्रीय दलों ने इस दौरान बहस और मतदान दोनों से किनारा करते हुए भाजपा और कांग्रेस से दूरी बनाकर ये संकेत दे दिया कि 2019 में मोदी विरोधी महागठबन्धन की सम्भावना पर संशय के बादल अभी हटे नहीं हैं । अविश्वास प्रस्ताव को लेकर कांग्रेस की सोच ये थी कि शिवसेना की तरह एनडीए से जुड़े रहे कुछ अन्य दल इस दौरान टूटकर उसके साथ जुड़ जाएंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं और मोदी सरकार दो तिहाई बहुमत के साथ जीत गई । वैसे भी अविश्वास प्रस्ताव था तो तेलुगु देशम का जो आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग पर अड़ी हुई है । उसके सदस्यों के पूरे भाषण इसी विषय पर केंद्रित भी रहे । जाहिर है अविश्वास प्रस्ताव के जरिये तेलुगु देशम ने आन्ध्र प्रदेश की जनता को ये जताने की कोशिश की है कि आन्ध्र के विकास में केंद्र सरकार और भाजपा बाधक बन रहे हैं । वह अपने मकसद में कितनी सफल रही ये फिलहाल कहना कठिन है किंतु ये तो स्पष्ट हो गया कि तेलुगु देशम भविष्य में काँग्रेस के प्रति भी उदार नहीं रहने वाली। उस  दृष्टि से देखें तो अविश्वास प्रस्ताव का उपयोग सिर्फ  संसद में बोलने के लिए ही कांग्रेस कर पाई। राहुल गांधी ने यद्यपि सरकार पर अपने हमले की शुरुवात जोरदार ढंग से की लेकिन रफेल सौदे पर बिना प्रमाण आरोप लगाकर वे अपनी विश्वनीयता खो बैठे। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन और बाद में फ्रांस सरकार के अधिकृत स्पष्टीकरण की वजह से श्री गांधी सरकार को घेरने की जगह खुद ही सदन में गलत बयानी के कारण विशेषाधिकार हनन के मामले में घिरने की स्थिति में आ गए। भाषण के आखिरी भाग में दिखाई सौजन्यता के बाद प्रधानमंत्री के आसन तक पहुंचकर उन्हें उठने के इशारे करना और फिर गले से लिपट जाने के बाद अपनी सीट पर लौटकर बगल में बैठे ज्योतिरादित्य सिंधिया को आंख मारकर खुश होने जैसी हरकत ने कांग्रेस अध्यक्ष के सारे किये कराए पर पानी फेर दिया और अविश्वास प्रस्ताव जैसे गंभीर अवसर को मज़ाक और मनोरंजन का रूप देकर आलोचना के पात्र बन बैठे। प्रधानमंत्री ने अपने जवाबी भाषण में उस आचरण का जिस तरह उपहास किया उसने रही सही कसर भी पूरी कर दी। अमूमन ऐसे प्रस्ताव पर विपक्ष के पास सरकार को घेरने के लिए कुछ नए मुद्दे होते हैं लेकिन जैसी उम्मीद थी वही घिसे पिटे आरोप लगभग सभी वक्ताओं ने दोहराए जिनका जवाब भी उसी तरह मिला। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भले ही विस्तार से सरकार का पक्ष लेते हुए विपक्ष को करारा जवाब दिया लेकिन एक भी ऐसा भाषण कल नहीं हुआ जिसे ऐतिहासिक मानकर लंबे समय तक याद रखा जा सके। यदि राहुल, नरेंद्र मोदी के गले न लगते और उसके बाद उन्होंने आंख मारने जैसी बचकानी हरकत न की हुई होती तब शायद समाचार माध्यमों के पास कल की बहस में मसालेदार कुछ भी नहीं रहता। इसमें कोई शक नहीं है कि सरकार ने विपक्ष की उम्मीदें और मोर्चेबन्दी दोनों ध्वस्त कर दीं लेकिन यदि भाजपा और एनडीए इस मुगालते में हों कि संसद में बहुमत का जुगाड़ करने मात्र से आगामी विधनसभा  और लोकसभा चुनाव में मोदी  लहर 2014 जैसी ही चलेगी तो ये भ्रम है क्योंकि सूचना क्रांति के इस युग में जनमत भी अस्थायी होता है और किसी भी तात्कालिक कारण से उसमें बदलाव की सम्भावना सदैव बनी रहती है। राहुल के भाषण से उनके पक्ष में जनता का रुझान बढ़ता उसके पहले ही उनकी जरा सी गलती ने मामला बिगाड़ दिया। ऐसे ही श्री मोदी द्वारा दिये लम्बे जवाब से उनके समर्थन में बना माहौल लंबे समय तक कायम रहेगा ये नहीं कहा जा सकता। मोदी सरकार जिन उपलब्धियों का ढिंढोरा पीट रही है वे ज़मीन पर कितनी उतरीं ये महत्वपूर्ण है न कि उन पर किये गए भाषण। प्रधानमंत्री ने कल रात रोजगार बढ़ाने सम्बन्धी जो आंकड़े दिए उनका सत्यापन करना तो कठिन है किंतु व्यवहारिक तौर पर देखें तो उनका श्रेय अपने खाते में लेना सही नहीं है। ये ठीक है कि विपक्ष एक नहीं है और उसके पास श्री मोदी जैसा कोई करिश्माई और मेहनती नेता नहीं है लेकिन इस आधार पर कोई मुगालता पाल लेना भी भाजपा और खुद प्रधानमंत्री के लिए नुकसानदेह हो सकता है। संक्षेप में कहें तो कल अविश्वास प्रस्ताव के बाद भी राजनीतिक स्थिति पूरी तरह अनिश्चितता के भंवर में फंसी हुई है। सत्ता पक्ष के सहयोगी भले ही सदन में सरकार के साथ खड़े दिखें लेकिन ज्यों ज्यों चुनाव करीब आते जायेंगे उनकी सौदेबाजी और  दबाव बढ़ेगा। जिन दलों ने मतदान से दूरी बनाकर अविश्वास प्रस्ताव की हवा निकाल दी वे भी किस तरफ  लुढकेंगे कहना कठिन है। विपक्ष के जिन गैर कांग्रेसी दलों ने गत दिवस लोकसभा में सरकार के विरोध में मतदान किया उनमें सभी कांग्रेस के नेतृत्व वाले प्रस्तावित महागठबंधन के सदस्य होंगे ये भी कोई नहीं बता पा रहा। उस आधार पर अविश्वास प्रस्ताव के बाद बड़े राजनीतिक बदलाव या जिसे राहुल गांधी मार्का भूकंप कहा जा रहा था उसका कोई भी अंदेशा नहीं दिखाई दे रहा। रही बात फ्लोर मैनेजमेंट की तो उसमें जरूर सरकारी पक्ष का हाथ ऊपर रहा जबकि काँग्रेस अपने अध्यक्ष के भाषण और अन्य गतिविधियों की वजह से उत्पन्न आत्ममुग्धता में उलझकर रह गई। इस सत्र के बाद मप्र , राजस्थान और छत्तीसगढ़  विधानसभा के होने वाले चुनाव की सरगर्मियाँ तेज हो जाएंगी। कल हुई बहस में कई वक्ताओं ने उसके संकेत भी अपने उद्बोधन में दिये। राहुल और प्रधानमंत्री के संसद के भाषणों का निशाना भी उसी तरफ  ज्यादा रहा लेकिन उनको और उनकी पार्टियों को ये याद रखना चाहिए कि इन राज्यों के मुद्दे अलग होंगे। राजनीत किस करवट घूमेगी और जनता का मूड आगामी महीनों में कैसा रहेगा ये अच्छे-अच्छे सियासी पंडित भी नहीं बता पाएंगे। इसलिये कांग्रेस और भाजपा दोनों को जनता से सीधे संवाद करते हुये अपनी बात कहनी पड़ेगी क्योंकि संसद में हुई बहस रात गई बात गई की तरह दो चार दिन में भुला दी जायेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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