Saturday 14 July 2018

कश्मीर : अलगाववाद को कुचलने का सर्वोत्तम अवसर

जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती अपने असली रंग में आ गईं। भाजपा को लगता था वे उसकी संगत में आकर प्रखर राष्ट्रवादी बन जायेंगीं और कश्मीर घाटी में सब जगह वंदे मातरम गूंजने लगेगा लेकिन भाजपा द्वारा पीडीपी को एक झटके में दिए गए तीन तलाक़ के कारण राज्यपाल शासन लगने के तकरीबन तीन सप्ताह बाद मेहबूबा ने साबित कर दिया कि कुत्ते की पूंछ सीधी नहीं हो सकती। पीडीपी के कुछ विधायकों को तोड़कर वहां भाजपा के वर्चस्व वाली सरकार के गठन की खबरों के बीच मेहबूबा का ये कहना कि उसका दुष्परिणाम सलाहुद्दीन और यासीन मलिक सदृश आतंक और अलगाववादी नए नेताओं के उभरने के तौर पर आयेगा, उनके खतरनाक इरादों को दर्शाता है। यद्यपि उनके मुंह से इस तरह की बातें सुनकर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ होगा लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को जरूर ये सोचना चाहिए कि आखिर बीते तीन साल में भी वे उनको रत्ती भर भी रष्ट्रभक्त क्यों नहीं बना पाए? ये तो सही है कि सरकार का हिस्सा बनने से शासन और प्रशासन की कई ऐसी बातें और महत्वपूर्ण जानकारियां उसके मंत्रियों के संज्ञान में आईं, जो अन्यथा नहीं आईं होतीं किन्तु ये भी सही है कि जिस तरह काँग्रेस कभी पीडीपी और कभी नेशनल कांफे्रंस के साथ मिलकर सरकार भले चलाती रही किन्तु घाटी के भीतर राष्ट्रवादी मानसिकता का विकास करने में वह असफल रही ठीक वैसे ही भाजपा ने सत्ता सुख तो लूटा किन्तु घाटी के भीतर का माहौल अब भी जस का तस है। देश उससे अपेक्षा करता था कि जम्मू कश्मीर की सरकार में उसकी हिस्सेदारी से धारा 370 जैसे प्रावधान को खत्म करने की दिशा में माहौल बनाकर अलगाववाद को जड़ से सफाया करने की इच्छाशक्ति दिखाई जावेगी। लेकिन अब ये कहा जा सकता है कि भाजपा भले ही गठबंधन धर्म निभाती रही हो लेकिन पीडीपी ने न तो अपनी नीति बदली और न ही नीयत। इसका पहला उदाहरण मेहबूबा के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने दिया जो गठबंधन सरकार के पहले मुख्यमंत्री बने। सता में आते ही उन्होनें मसर्रत आलम जैसे आतंकवादी को जेल से रिहा करवा दिया। भाजपा को जब इसकी जानकारी मिली और राष्ट्रव्यापी विरोध हुआ तब उसे दोबारा गिरफ्तार कर जेल में डलवा दिया गया किन्तु उस घटना ने भाजपा की जमकर किरकिरी करवाई। यदि पार्टी उसी वक्त पीडीपी से समर्थन वापिस लेकर बाहर बैठ जाती तो उसकी झोली में अपराधबोध और शर्मिंदगी नहीं आई होती। उसके बाद भी लगातार ऐसे अवसर जब भाजपा के अपने समर्थक न सिर्फ  जम्मू कश्मीर अपितु पूरे देश में ये अपेक्षा करते रहे कि पार्टी मेहबूबा सरकार से बाहर आ जाये किन्तु न जाने किस उम्मीद में उसका शीर्ष नेतृत्व उस निर्णय को टालता रहा। पत्थरबाजों को रिहा करने के निर्णय का भी वैसा विरोध भाजपा नहीं कर सकी जैसा उसके परंपरागत समर्थक उम्मीद करते थे। खैर, अब ये सब इतिहास बन चुका है। राज्यपाल शासन लगने से अब अप्रत्यक्ष रूप से राज्य का शासन और प्रशासन भाजपा के ही हाथों में आ गया है क्योंकि राज्यपाल केंद्र सरकार के निर्देशों पर चलते हैं। मेहबूबा के जाने के बाद घाटी में पुलिस और सुरक्षा बल पहले से ज्यादा आक्रामक हुए हैं जिसके सुखद परिणाम भी मिलने लगे हैं। पत्थरबाजों के विरुद्ध पैलेट गन का उपयोग शुरू होने से भी असर पड़ रहा है। सबसे बड़ी बात ये हुई कि राज्य सरकार की तरफ से कड़ी कार्रवाई में अड़ंगा लगाने वाली स्थिति नहीं रही। इसी बीच ये जानकारी भी आई कि पीडीपी के कुछ विधायक मेहबूबा को छोड़ भाजपा से हाथ मिलाकर दोबारा सरकार बनाने की जुगत में है। भाजपा को भी लग रहा है कि एक बार इस राज्य में अपना मुख्यमंत्री यदि वह बनवा सके तो उससे प्रशासन पर उसका दबदबा बढ़ेगा वहीं जम्मू और लद्दाख के गैर मुस्लिम प्रभाव वाले क्षेत्रों पर ज्यादा ध्यान देकर वह अपनी राजनीतिक जमीन और पुख्ता कर सकेगी। इस सम्भावना के पीछे पीडीपी के अधिकतर विधायकों के मन में मध्यावाधि चुनाव का डर है। उल्लेखनीय है इस राज्य को मिले विशेष दर्जे के कारण यहाँ विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्ष का है , उस वजह से अभी मौजूदा सदन का तकरीबन 40 प्रतिशत कार्यकाल शेष है। उधर सरकार गिरने के बाद घाटी में अपना जनाधार समेटने में जुटी मेहबूबा को ये डर सताने लगा है कि भाजपा ने सत्ता का लालच देकर यदि उनकी पार्टी तोड़ दी तो उनका राजनीतिक भविष्य चौपट हो जाएगा। वैसे भी भाजपा के साथ रहने से घाटी के कट्टरपंथी मुसलमान अब मेहबूबा को भी सियासी तौर पर काफिर मानने लगे हैं। ऐसे में अब पार्टी में भी विभाजन हो गया तब मेहबूबा के लिए अगला चुनाव वाटरलू की लड़ाई जैसा होकर रह जायेगा। वैसे उन्हें उम्मीद थी कि काँग्रेस, भाजपा विरोध के नाम पर उनके साथ गठबंधन कर लेगी किन्तु वह उम्मीद भी पूरी नहीं होने से उनका हौसला कमजोर पडऩे लगा जिसका परिणाम उनका ताजा बयान है। एक तरह की धमकी या यूं कहें कि ब्लैकमेल करने का तरीका है जिसका माकूल जवाब दिया जाना चाहिए। कश्मीर घाटी की दोनों प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियां चाहे वह नेशनल कांफे्रंस हो या पीडीपी , सदैव केंद्र पर अनुचित दबाव डालने की नीति पर चलती रहीं हैं। यदि इन्हें सत्ता सुख मिलता रहे तो ये राष्ट्रवादी होने का चोला पहिनकर चुपचाप अलगाववाद के एजेंडे पर चलती हैं लेकिन सत्ता से अलग होते ही ये अपने असली रंग में आने में देर नहीं लगातीं। वाजपेयी सरकार में नेशनल कांफे्रंस भी शरीक थी और उमर अब्दुल्ला विदेश राज्यमंत्री थे। तब तक अब्दुल्ला परिवार को भाजपा में कोई बुराई नहीं दिखी। लेकिन वाजपेयी सरकार गिरते ही नेशनल कांफ्रेंस फिर कांग्रेस के साथ चली गई और केंद्र में फारुख और राज्य में उमर उसके संग सत्ता सुख भोगते रहे। पिछले विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु की स्थिति में भाजपा के बिना किसी की लिए सरकार बनाना सम्भव नहीं होने से पीडीपी के साथ उसका बेमेल गठबंधन बन तो गया किन्तु उसका भी  वही अन्त हुआ जो अपेक्षित था। मेहबूबा की ताजा धमकी को गंभीरता से लेते हुए केंद्र सरकार को घाटी के भीतर आतंक और अलगाववाद को पालने पोसने वाली ताकतों और मानसिकता के विरुद्ध आरपार की लड़ाई छेड़ देनी चाहिए। पीडीपी को तोड़कर भले ही भाजपा वहां फिर से सत्ता बना ले किन्तु वह सरकार भी पूरी तरह से उन नीतियों को लागू करने में सफल नहीं हो सकेगी जो भाजपा की पहिचान हैं। और राज्यपाल शासन को ज्यादा दिनों तक खींचना संवैधानिक लिहाज से सम्भव नहीं होगा। नया चुनाव होने पर भाजपा अपनी ताकत बढ़ाने भी तभी कामयाब हो सकेगी यदि वह घाटी को आतंकविहीन कर सके। यदि इस समय का समुचित उपयोग केंद्र सरकार ने नहीं किया तो मेहबूबा सरकार के पापों का दंड भी उसे ही भुगतना होगा क्योंकि घाटी के मुस्लिम बहुल इलाकों में तो उसे उम्मीदवार भी बड़ी मुश्किल से मिलेंगे वहीं जम्मू और लद्दाख के हिन्दू और बौद्ध बहुल अंचलों में भी उसके प्रति 2014 जैसा समर्थन शायद ही दिखाई दे। पार्टी हित से ऊपर उठकर देश के बारे में सोचने से यही लगता है कि केंद्र सरकार को कश्मीर घाटी में निर्णायक अभियान छेड़ देना चाहिए। सुरक्षा बलों को खुली छूट दिए बिना ऐसा करना सम्भव नहीं होगा। राज्यपाल शासन की वजह से स्थानीय प्रशासन और पुलिस न चाहते हुए भी सहयोग के लिए बाध्य है। बेहतर हो मेहबूबा और अब्दुल्ला जैसों की धमकियों से डरे बिना इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठा लिया जावे वरना समय निकलने के बाद फिर भाजपा कोई सफाई देने और बहाना बनाने लायक नहीं रह जायेगी। धारा 370 जब हटेगी तब हटेगी फिलहाल तो घाटी में अलगाववाद की गर्दन मरोडऩे का उपयुक्त समय है। यदि केंद्र सरकार इसका लाभ नहीं ले सकी तो फिर छप्पन इंची सीने की हवा निकलना तय है क्योंकि राम मंदिर अब घिसा-पिटा मुद्दा हो चुका है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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