Friday 6 July 2018

सरकारी अनर्थशास्त्र : एक को छूट दूसरों से लूट


चुनावी वायदे के अनुसार कर्नाटक की नई सरकार ने किसानों के 2 लाख तक के फसल ऋण माफ  कर दिए। जिन किसानों ने ईमानदारी से कर्ज अदा किया उनके खाते में भी 25 हजार की राशि जमा की जाएगी। वित्त विभाग सम्भाल रहे मुख्यमंत्री कुमार स्वामी ने राज्य का बजट पेश करते हुए किसानों को उक्त सौगात दी जिसके कारण खजाने पर 34 हजार करोड़ रु. का बोझ आएगा। ये कोई पहला वाक्या नहीं है जब किसी सरकार द्वारा किसानों का कर्जा माफ  करने जैसा कदम उठाया गया हो। पंजाब की अमरिंदर सरकार भी ऐसा कर चुकी है। वहीं उप्र में भाजपा ने भी सत्ता में आने के बाद कर्ज माफी के जरिये किसानों को संतुष्ट करने की कोशिश की। मप्र सरकार ब्याज में राहत देकर किसानों की मिजाजपुर्सी में लगी है तो अन्य राज्य भी अपने अपने ढंग से अन्नदाता को नाराज होने से बचाने में जुटे हैं। परसों केंद्र की मोदी सरकार ने धान के साथ मूंग, ज्वार, मक्का आदि का न्यूनतम खरीद मूल्य अच्छा खासा बढ़ा दिया। कहा जा रहा है मप्र, छत्तीसगढ़  और राजस्थान के साथ महाराष्ट्र में भाजपा सरकार के प्रति किसानों की नाराजगी दूर करने के लिए केंद्र सरकार को उक्त निर्णय करना पड़ा। उल्लेखनीय है न्यूनतम खरीद मूल्य के अलावा भी कुछ राज्यों में अतिरिक्त बोनस देकर किसानों को प्रसन्न करने का दांव चला जाता है जिसका उदाहरण मप्र है जहां शिवराज सिंह चौहान की सरकार आये दिन कुछ न कुछ मेहरबानी किसानों पर किया करती है। लेकिन ये भी सही है कि केंद्र अथवा राज्य सरकार द्वारा दिखाई जाने वाली दरियादिली का अपेक्षित लाभ किसानों को नहीं मिल पाता क्योंकि भ्रष्ट नौकरशाही और लचर कार्यप्रणाली के कारण सरकारी खजाने से निकली राशि समय पर किसानों तक नहीं पहुंच पाती। फर्जीवाड़ा भी खूब होता है जिससे जरूरतमंद तो वंचित रह जाते हैं और अपात्र किसान सरकारी अमले से मिलकर बंदरबांट करने में कामयाब हो जाते हैं। यही वजह है कि तरह-तरह की राहत और सौगात दिए जाने पर भी किसान संतुष्ट नहीं होता जिसका लाभ लेकर राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेंकते हैं। कर्नाटक में कुमारस्वामी के सत्ता ग्रहण करते ही भाजपा नेता येदियुरप्पा ने धमकी दे डाली कि किसानों के कर्ज माफ नहीं किये जाने पर भाजपा प्रदेशव्यापी आंदोलन करेगी। कुमारस्वामी भी समझ रहे हैं कि उनकी सरकार स्थायी नहीं है इसलिए वे अभी से अगले चुनाव की तैयारी में जुट गए। लेकिन अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धांतों के अनुसार धन एक तरफ  से आकर ही दूसरी तरफ  जा सकता है। कर्नाटक सरकार ने इसीलिए पहले डीजल-पेट्रोल पर कर बढाया और फिर किसानों को उपकृत किया। मतलब ये निकला कि एक वर्ग की जेब से धन निकालते हुए दूसरे की जेब में डालकर खुद को दानदाता साबित किया जा रहा है। किसान भी ट्रैक्टर के अलावा अन्य वाहन का उपयोग करते हैं। इसलिए उन्हें भी डीजल-पेट्रोल खरीदना पड़ता है। कर्नाटक सरकार के निर्णय के बाद किसान की कर्ज माफी का भार आम उपभोक्ता के साथ किसान पर भी पड़ेगा। यही वजह है कि कांग्रेस पर ये आक्षेप लग रहा है कि वह भाजपा शासित राज्यों विशेष रूप से मप्र और महाराष्ट्र में तो डीजल-पेट्रोल की सरकारी मुनाफाखोरी पर आंदोलन करती है वही उसकी साझेदारी वाली कर्नाटक सरकार करने जा रही है, तब वह मौन है। किसानों की बेहतरी के लिए केंद्र और राज्य दोनों को हरसम्भव सहायता करनी चाहिए क्योंकि खेती और किसान हमारी अर्थव्यवस्था ही नहीं अपितु सामाजिक ढांचे की भी रीढ़ हैं। ग्रामीण विकास के लिए भारी भरकम बजट के पीछे भी उद्देश्य कृषि और किसानों को संरक्षण देना ही है। लेकिन अब तक के अनुभव बताते हैं कि स्थायी इलाज करने की बजाय तदर्थवादी नीतियां और निर्णय लागू किये जाने से किसान समुदाय की समस्या यथावत बनी हुई है। दरअसल वोट बैंक की राजनीति के कारण अन्नदाता को भी मतदाता मान लिया गया है जिसे चुनाव के पहले खुश करने की घिसीपिटी चाल चली जाती है। कोई बिजली बिल माफ  कर रहा है तो कोई सस्ता खाद-बीज बाँटने में जुटा हुआ है। जब उनसे काम नहीं चला तब कर्ज माफी का फार्मूला निकालकर वोटों की फसल काटने का इंतज़ाम होने लगा। उप्र की कैराना लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा की पराजय के बाद योगी सरकार ने गन्ना किसानों की नाराजगी  दूर करने के लिए अरबों रु. जारी कर दिए। कहने का आशय मात्र इतना है कि सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो वह केवल दबाव में काम करती है। उसे सोते जागते केवल वोट दिखते हैं। एक वर्ग को खुश करने के लिए दूसरे की जेब काटने में सत्ताधारी लगे रहते हैं। गरीबों और किसानों को सस्ती या मुफ्त बिजली दी जाती है तो बाकी उपभोक्ताओं के बिल बढ़ जाते हैं। कुमारस्वामी ने किसानों के कर्ज माफ  करने के पहले ही कर्नाटक के आम उपभोक्ता पर डीजल-पेट्रोल की बड़ी हुई कीमतों का भार बढ़ाकर अपनी रोकड़-बही को तो संतुलित कर लिया किन्तु इसे अच्छा वित्तीय प्रबंधन नहीं कहा जा सकता। ये देखकर चिंता होती है कि  हमारे देश की राजनीति अब दबाव के वशीभूत चलती है। पहले केवल कर्मचारी संगठित होते थे लेकिन अब किसान भी एकजुट होकर सरकार की नींद उड़ा देते है। जातिगत आरक्षण के लिए विभिन्न प्रदेशों में हो रहे आंदोलन भी संगठित दबाव का परिणाम है जिसकी बड़ी कीमत देश चुका रहा है। किसानों की कर्जमाफी से किसी को परेशानी नहीं होती बशर्ते उसकी सजा औरों को न मिले। डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ाकर किसानों पर मेहरबानी की बारिश करना किस तरह का अर्थशास्त्र और लोक कल्याणकारी शासन है इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है। अपवादस्वरूप एक दो को छोड़कर सभी राजनीतिक पार्टियां वोटों की फसल काटने के लिये आम जनता की गर्दन दबोचने में जुटी हुई हैं। जबकि सही बात ये है कि किसानों को बदहाली से बचाने और खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने के लिए इस तरह के अस्थायी उपाय कारगर नहीं होंगे। उल्टे इनकी वजह से किसानों की उद्यमशीलता घट रही है और वे सरकार के सिर पर बोझ बनकर बैठ गये हैं । फसल बीमा जैसे उपाय आज भी ठीक तरह से लागू नहीं किये जा सके। ग्रामीण क्षेत्रों पर शहरीकरण की छाया पड़ जाने से भी किसान का अर्थप्रबन्धन गड़बड़ाया है। कुल मिलाकर जो हो रहा है वह आश्वस्त नहीं करता। जिस तरह मुसलमानों के वोट कबाडऩे के फेर में उनका तुष्टीकरण तो खूब किया जाता रहा किन्तु उनका सामाजिक, शैक्षणिक उत्थान नहीं हुआ वैसे ही किसानों के प्रति दिखावटी उदारता से न तो उनकी दशा सुधरने वाली है और न कृषि फायदे वाला व्यवसाय बन सकेगा। किसानों के कर्ज माफ  करने के फेर में सरकार खुद पर कर्ज का जो बोझ बढ़ा लेती है उसकी भरपाई आम जनता पर कर थोपकर करना आसमान से टपककर खाई में गिरने जैसा है। वोट बैंक और दबाव की राजनीति आखिर देश को कहाँ ले जाएगी?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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