Wednesday 11 July 2018

गुफा हादसा : संकल्प , संघर्ष और सफलता का नया अध्याय


थाईलैंड में गत 23 जून से एक गुफा में फंसे फुटबाल टीम के 12 किशोर खिलाड़ी और उनके प्रशिक्षक को सुरक्षित निकाल लिया गया। पिकनिक मनाने गई उक्त टीम एक लंबी सी गुफा देखने घुसी थी कि तेज बरसात होने लगी जिससे भीतर पानी भर गया और वे सभी उसमें फंस गए। पानी का स्तर बढऩे से वे बचाव हेतु और अंदर चलते गए और एक ऊंची जगह देखकर उस पर जा बैठे। लेकिन पानी बढ़ता गया और वे वहीं फंसकर रह गए। किसी तरह उनके वहाँ होने की जानकारी मिली और उसके बाद शुरू हुआ बचाव अभियान जो प्रारम्भ में तो एक बेकार कोशिश लग रहा था लेकिन थाईलैंड की अपील पर 12 बच्चों और उनके प्रशिक्षक को बचाने के लिए पूरी दुनिया ने जिस तरह की सम्वेदनशीलता दिखाई वह इस रोमांचक घटना का सकारात्मक पहलू है। अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, ऑस्ट्रेलिया सभी ने इस बचाव अभियान में सक्रिय हिस्सेदारी देकर जो मानवीयता प्रदर्शित की वह एक विलक्षण अनुभव है। थाईलैंड की सरकार ने जिस तत्परता से विश्व समुदाय से सहयोग मांगकर अपने 13 लोगों की जान बचाई उसके लिए वह भी प्रशंसा की पात्र है वरना जितनी देर होती गुफा में फंसे लोगों से संपर्क उतना ही मुश्किल होता जाता। तीन किश्तों में सभी लोगों को जीवित निकाल लेना वाकई बहुत बड़ी बात थी लेकिन इस कोशिश में एक विदेशी गोताखोर अपनी जान गंवा बैठा। इस समूचे अभियान से साबित हो गया कि तमाम मतभेदों और शत्रुता के बाद भी दुनिया में मानवता के अंश विद्यमान हैं वरना किसी दूसरे देश के दर्जन भर साधारण लोगों की जान बचाने के लिए इतना तामझाम करने और अपनी जान जोखिम में डालने की जरूरत क्या थी? ये पहला अवसर नहीं है जब मुसीबत में फंसे कुछ लोगों को बचाने के लिए उससे ज्यादा ने अपनी जान जोखिम में डालने जैसा नेक कार्य किया लेकिन थाईलैंड का ये बचाव अभियान अपने आप में अनूठा रहा। बच्चों के साहस और उनके प्रशिक्षक के धैर्य ने जीवन के लिए किए जाने संघर्ष की एक नई दास्ताँ मानों लिख दी हो। प्रकृति और जीव के बीच का संबंध शक्तिशाली की विजय पर आधारित है। लेकिन गुफा में फंसे 13 लोगों की जान बचने के पीछे उन लोगों की  बुद्धिमत्ता भी बड़ा कारण बना। चारों तरफ  पानी और कीचड़ के बीच घिरे होने के बाद भी वे लोग घबराए नहीं । गुफा में घना अंधेरा, आक्सीजन की कमी के अलावा भोजन - पेयजल का अभाव और सबसे बड़ी मुसीबत बाहरी दुनिया से संपर्क टूट जाने के बाद पूरी तरह असहनीय और विपरीत स्थितियों में भी हिम्मत और हौसला बनाये रखने में बच्चों के फुटबाल प्रशिक्षक ने जिस शानदार भूमिका का निर्वहन किया वह भविष्य के लिए एक किंवदंती बन गई है। फुटबॉल विश्वकप के रोमांच तक को इस हादसे ने फीका कर दिया। दुनिया के हर सम्वेदनशील व्यक्ति ने आपदा में फंसे 13 लोगों की सलामती हेतु अपने-अपने इष्ट देव से प्रार्थना कर ये साबित किया कि मानव धर्म सबसे बड़ा है। भारत में भी थाईलैंड की उस घटना को लेकर बहुत उत्सुकता और चिंता रही। अनेक लोगों ने ये सवाल भी उठाया कि भारत में ऐसा होने पर क्या इस तरह का बचाव कार्य संभव हो पाता? कुछ लोगों ने टीवी चैनलों पर ये कटाक्ष किया कि ऐसी किसी भी घटना को लेकर वे रोज शाम को कुछ लोगों को बिठाकर चों-चों करवाते तथा सरकार और आपदा प्रबंधन में जुटे लोगों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाकर उनके काम में व्यवधान डालते। वैसे उनकी बात गलत नहीं है। थाईलैंड में कहीं से भी इस दौरान शासन-प्रशासन के विरोध में कोई आवाज नहीं उठी। जो बच्चे जीवन और मौत के बीच फंसे रहे उनके माता-पिता या अन्य परिवारजनों ने किसी नेता या अधिकारी के घर के सामने धरना प्रदर्शन नहीं किया और न ही टीवी चैनलों ने इस घटना को टीआरपी बढ़ाने का जरिया बनाया। हमारे देश में इसके विपरीत सब कुछ हुआ होता। ऐसा नहीं है कि आपदा के दौरान भारत में शासन-प्रशासन कुछ नहीं करते। सेना भी अपनी भूमिका के साथ सक्रिय रहती है लेकिन कहीं न कहीं कुछ तो ऐसा है जिसकी वजह से हमें लगता है कि हमारे देश में शायद बचाव कार्य इतने बेहतर तरीके और सफलता के साथ नहीं हो पाता। उसका कारण है दायित्वबोध का अभाव। अमेरिका में वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारत में जब 9/11 नामक हादसा हुआ तब वहां के समाचार माध्यमों ने न तो एक भी लाश दिखाई और न ही घटना स्थल पर फैले मलबे के चित्र ही प्रदर्शित किए। अमेरिका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में बहुत स्वतंत्र है लेकिन वहां के पत्रकारों ने संकट की घड़ी में जिस संयम का परिचय दिया उसकी वजह से उतनी बड़ी घटना को लेकर सरकार और व्यवस्था के विरोध में एक आवाज भी नहीं उठी जबकि अमेरिका जैसे विकसित देश के सबसे प्रमुख शहर की सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लग जाने की वजह से विपक्ष सरकार की धज्जियाँ उड़ा सकता था। भारत के यात्री विमान को अपहरण कर कंधार ले जाने के समय जो लोग उस विमान में थे उनके परिवारजन प्रधानमंत्री आवास पर धरना देकर बैठ गये थे। थाईलैंड की उक्त घटना आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में एक बड़ा मील का पत्थर बन गई है जिस पर देर सवेर हॉलीवुड के फिल्मकार फिल्म बना डालें तो आश्चर्य नहीं होगा और बनना भी चाहिये जिससे मानव जाति की अपार संघर्ष क्षमता और जिजीविषा का गौरव गान हो सके। प्राकृतिक विपदाओं से पूरी दुनिया जूझ रही है। अमेरिका और चीन भी उससे अछूते नहीं हैं। मानवीय व्यवस्थाएं और ज्ञान-विज्ञान भी ऐसे अवसरों पर असहाय होकर रह जाते हैं। देश की व्यवसायिक राजधानी मुंबई में इन दिनों बरसात ने जो हालात उत्पन्न कर दिए हैं वे इसका ताजा-तरीन उदाहरण हैं लेकिन थाईलैंड की घटना मानवीय चूक और प्राकृतिक विपदा दोनों का मिला जुला परिणाम थी जिसमें अंतत: मानवीय संकल्प और प्रयासों की पराकाष्ठा को विजय हासिल हुई। कहावत है अंत भला तो सब भला। जिन पेशेवर गोताखोरों ने अपनी जान जोखिम में डालकर असम्भव को सम्भव कर दिखाया उनके साहस और जीवटता को हजारों सलाम क्योंकि वे हाथ खड़े कर देते तो एक भी व्यक्ति जीवित न बच पाता। जबसे मानव जाति अस्तित्व में आई है तभी से जीवन हेतु उसे सहर्ष करना पड़ा है। थाईलैंड का गुफा हादसा उसकी नई कड़ी है जो आने वाले समय में संघर्ष और सफलता के नए अध्याय लिखे जाने का आधार बने बिना नहीं रहेगी। लेकिन इस सबके बावजूद उस ईश्वर के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त की जानी चाहिये जिन्होंने मौत के शिकंजे में फंसे उन 13 लोगों की सांस चलने दी और जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय वाली कहावत एक बार फिर सत्य साबित हो गई।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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