Sunday 17 December 2023

दिग्विजय और कमलनाथ के शिकंजे से मुक्त होकर कांग्रेस ने अक्लमंदी दिखाई





       आखिरकार कांग्रेस ने उस बोझ को उतार फेंका जिसे वह न चाहते हुए भी ढो रही थी। ऐसा करना उसके लिए जरूरी था या मजबूरी ये तो वही जाने । लेकिन बीते तीन दशक से प्रदेश कांग्रेस दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की बंधुआ बनकर रह गई थी। स्व.अर्जुन सिंह के रहते तक तो फिर भी गनीमत रही किंतु उनके अवसान के उपरांत उक्त ये दोनों मठाधीश पार्टी संगठन पर  कुंडली मारकर ऐसे बैठे कि बाकी किसी को पनपने ही नहीं दिया। परिणामस्वरूप कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई। स्व. इंदिरा गांधी की कृपा से 1980 में छिंदवाड़ा से सांसद बनने के बाद श्री नाथ अंगद के पैर की तरह जम गए। इसी तरह दिग्विजय को अर्जुन सिंह ने रिश्तेदारी के चलते मुख्यमंत्री बनवा दिया जबकि दावा स्व.माधवराव  सिंधिया और स्व.सुभाष यादव का था। 

         उसके बाद कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जो जुगलबंदी चली उसने प्रदेश में कांग्रेस की समूची राजनीति को अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया। 2003 के विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद  उसको 2018 में सरकार बनाने का मौका मिला किंतु  चुनाव में पार्टी का चेहरा बनाए गए ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बनने से रोकने उक्त दोनों नेताओं ने जबरदस्त मोर्चेबंदी की । बावजूद इसके कि वे राहुल गांधी की पसंद थे । इस प्रकार श्री नाथ की मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा तो पूरी हुई परंतु उसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पूरी तरह चित्त हो गई। छिंदवाड़ा में श्री नाथ के पुत्र नकुल भी इसलिए जीत सके क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहां सभा नहीं की। वहीं गुना से श्री सिंधिया भी हार गए। 

          लेकिन कमलनाथ का राजयोग महज 15 महीने में ही खत्म हो गया और ज्योतिरादित्य ने उनका तख्ता पलटते हुए भाजपा का दामन थाम लिया। होना तो ये चाहिए था कि गांधी परिवार उस अवसर का लाभ लेकर दिग्विजय - कमलनाथ के शिकंजे से पार्टी को मुक्त करवा लेता। लेकिन दोनों ने हाईकमान को झांसा देते हुए श्री सिंह के खासमखास गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष बनवा दिया जबकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर श्री नाथ ही बने रहे। दरअसल उन्होंने गांधी परिवार सहित पार्टी हाईकमान के अन्य नेताओं को आश्वस्त कर दिया कि वे 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने में सक्षम हैं ।

        उल्लेखनीय है आर्थिक दृष्टि से काफी समृद्ध होने के साथ औद्योगिक जगत में भी श्री नाथ के काफी नजदीकी रिश्ते हैं। जिन गौतम अडानी के विरुद्ध राहुल गांधी दिन - रात चिल्लाया करते हैं उनके बारे में श्री नाथ ने आज तक कुछ नहीं बोला। पार्टी ने उनके आश्वासन पर भरोसा करते हुए 2023 के चुनाव के लिए उनको पूरी छूट दे दी। पार्टी के भीतर अनेक युवा चेहरे श्री नाथ और दिग्विजय के विरुद्ध आवाज उठाते रहे किंतु उन सभी को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया । चुनाव की समूची व्यूह रचना श्री नाथ ने अपने हाथ में ले ली और दिग्विजय सिंह घूम - घूमकर उनके पक्ष में माहौल बनाने में जुटे रहे। उम्मीदवारों के चयन से लेकर प्रचार तक पर  दिग्विजय और कमलनाथ हावी रहे। आखिर में तो पूरा नियंत्रण श्री नाथ ने ले लिया और दिग्विजय तक को किनारे करने से बाज नहीं आए। पार्टी के केंद्रीय पर्यवेक्षक रणदीप सुरजेवाला तक निठल्ले बैठे रहे। 

        श्री नाथ इस हद तक स्वेच्छाचारी हो चले थे कि चुनाव की घोषणा के पूर्व भोपाल में आयोजित इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन की रैली तक रद्द कर दी। और तो और सपा तथा जनता दल (यू) को चार - छह सीटें देना तो दूर उल्टे अखिलेश यादव के प्रति बेहद सस्ते शब्दों का प्रयोग कर आग में घी डाल दिया। उनकी कार्यप्रणाली से गांधी परिवार तक अप्रसन्न था किंतु चाहकर भी कुछ न कर सका क्योंकि म.प्र में कांग्रेस में उनके सिवाय कोई और नजर ही नहीं आता था। लेकिन 3 दिसंबर की दोपहर होते - होते तक उनका कथित आभामंडल पराजय के अंधकार में डूब गया। 
 
       20 साल पहले कांग्रेस ने दिग्विजय का पराभव देखा और अब कमलनाथ भी उसी गति को प्राप्त हुए। इस दौरान  भाजपा ने दूसरी पीढ़ी को आगे लाने की कार्य योजना को तो सफलता के साथ लागू कर दिया किंतु  कांग्रेस अधेड़ से बूढ़े होते दो नेताओं के शिकंजे में फंसकर छटपटाती रही। अब , जब सब कुछ लूट चुका तब जाकर पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को होश आया या यूं कहें कि हिम्मत हुई दिग्विजय और कमलनाथ से पिंड छुड़ाने की। गत दिवस जीतू पटवारी , उमंग सिंगार और हेमंत कटारे को क्रमशः प्रदेश अध्यक्ष ,नेता प्रतिपक्ष और उप नेता प्रतिपक्ष बनाकर पार्टी हाईकमान ने लंबे समय बाद अक्लमंदी का परिचय दिया। हालांकि इन तीनों से 2024 के महा - मुकाबले में किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद करना तो उन्हें दबाव में डालने का  कारण बनेगा किंतु कम से कम पार्टी में ये संदेश तो गया कि नई पीढ़ी के लिए भी गुंजाइश है और नौजवानों की भावनाओं और अपेक्षाओं को समझने वाला प्रदेश नेतृत्व आ गया है। 

         यद्यपि कांग्रेस से ये अपेक्षा करना तो व्यर्थ है कि वह किसी से कुछ सीखेगी क्योंकि उसमें श्रेष्ठता का भाव आज भी यथावत है किंतु इतना तो कहा ही सकता है कि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के चेहरे देखते - देखते जो ऊब पार्टी के भीतर महसूस की जाती थी उससे तो आजादी मिलेगी।  भाजपा ने सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान को हटाकर नया नेतृत्व जिस तरह दिया उसके बाद कांग्रेस के लिए भी ऐसा ही करना मजबूरी बन गया था किंतु एक झटके में तीन युवा चेहरे सामने लाकर आलाकमान ने निश्चित रूप से जो साहस दिखाया उसके लिए वह बधाई का पात्र है।

इस नई टीम के समक्ष कुछ महीनों बाद ही लोकसभा चुनाव की चुनौती खड़ी होगी  किंतु  थके और लगातार हारते आ रहे दो नेताओं से मुक्त होकर कांग्रेस में जितना भी उत्साह आएगा वह भविष्य की दृष्टि से उसकी सेहत सुधारने में सहायक होगा , इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है।

-रवीन्द्र वाजपेयी 

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