कश्मीर घाटी में बीते कुछ दिनों से आतंकवादियों के मारे जाने की खबरें आने से ऐसा लग रहा था कि अलगावादियों के हौसले कमजोर हो रहे हैं । लेकिन दो दिन पहले ग्राम पंचायत के एक युवा कश्मीरी पंडित सरपंच की हत्या ने ये संकेत दे दिया है कि जहर की खेती करने वाले अभी भी सक्रिय हैं । अजय पंडित नामक उक्त सरपंच संभवत: उन विरले लोगों में था जो पूरी तरह विपरीत हालातों में भी घाटी के अंदरूनी इलाके में रहने का दुस्साहस कर सके । ये भी हो सकता है कि सुरक्षा बलों द्वारा बीते कुछ दिनों से लगातार आतंकवादियों को मारे जाने से उत्पन्न बौखलाहट में कश्मीरी पंडित सरपंच की खुले आम हत्या की गयी हो लेकिन इस घटना ने एक बार फिर कश्मीर घाटी में रह रहे हिन्दू अल्पसंख्यकों की सुरक्षा पर पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया है । कश्मीरी पंडितों के संगठनों ने पूरी दुनिया में उक्त घटना पर रोष व्यक्त जताया है । लेकिन भारत के प्रगतिशील तबके ने खास तौर पर गंगा - जमुनी संस्कृति का गीत गाने वाले खामोश हैं । कश्मीर में मानवाधिकारों को लेकर आंसू बहाने वाली अरुंधती रॉय भी मौन हैं । कन्हैया कुमार और उनके वैचारिक अभिभावक तो यूँ भी कश्मीर घाटी में राष्ट्रवादी ताकतों को अपना दुश्मन मानते हैं । कश्मीरी पंडित खैर ऊँची जाति के हिन्दू हैं किन्तु वहां कई पीढ़ियों से रह रहे अनुसुचित जाति के लोगों तक को नागरिकता और मताधिकार नहीं मिलने पर देश की सेकुलर लॉबी ने भी उनकी पीड़ा को कभी नहीं सुना । केंद्र सरकार द्वारा गत वर्ष जम्मू कश्मीर से 35 ए और 370 हटाये जाने से इन लोगों को पहली बार वहां की नागरिकता मिल सकी । लेकिन कश्मीरी पंडितों को न उनका ख़ोया घर मिला और न ही सुरक्षा के आश्वासन के साथ पुनर्वास । आज भी देश के अनेक स्थानों पर हजारों ऐसे काश्मीरी पंडित हैं जो बीते तीन दशक से अपने ही मुल्क में शरणार्थी बने रहने का दंश झेल रहे हैं । उनमें से कुछ ने तो अपनी मेधा और मेहनत से जि़न्दगी को संवार लिया लेकिन अभी भी हजारों हैं जो खानाबदोश बने हुए हैं । न जाने कितने तो दोबारा कश्मीर लौटने की चाहत लिये ही चल बसे । अनेक युवा पढ़ लिखकर विदेश जा बसे लेकिन वहां भी कश्मीरी पंडितों के संगठनों से जुड़े रहकर वे अपनी विरासत को संजोये हुए हैं । आश्चर्य की बात ये है कि भारत की जो राजनीतिक बिरादरी कश्मीर को लेकर बेहद संवेदनशील नजर आती है उसके पास भी घाटी से निष्कासित कर दिए गये कश्मीरी पंडितों के घावों पर लगाने के लिए मरहम की कमी है । घाटी के अलगाववादियों से मिलने के लिए तो वे बेताब रहते हैं भले ही हुर्रियत वालों ने उन्हें दरवाजे के बाहर से ही भगा दिया किन्तु कश्मीरी पंडितों के बीच जाकर उनका दर्द जानने की सौजन्यता उनमें कभी नहीं रही । खुद को कश्मीर का सारस्वत ब्राह्मण बताकर जनेऊ धारण करने का स्वांग रचने वाले नेता भी अपने पूर्वजों की बिरादरी की बदहाली देखने कभी गये या उस बारे में संसद या बाहर कहीं बात की हो , ये भी किसी को नहीं पता । ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यही वह कश्मीरियत है जिसका गाना जिसे देखो बजाते फिरता है । ताजा घटना के संदर्भ में अब ये जरूरी हो गया है कि केंद्र सरकार कश्मीरी पंडितों के घाटी में सुरक्षित और सम्मानजनक पुनर्वास का रास्ता साफ़ करे । कश्मीर में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान कितना भी कहें लेकिन भारतीय सनातन संस्कृति और संस्कारों का प्रतिनिधित्व कश्मीरी पंडित ही करते हैं और जब तक घाटी में उनकी दोबारा प्रभावशाली मौजूदगी नहीं होती तब तक वहां अलगाववाद के बीज अंकुरित होते रहेंगे । कश्मीर समस्या के समाधान में रूचि रखने वालों को ये समझना होगा कि तीस साल पहले एकाएक कश्मीरी पंडितों को घाटी से जान - माल के साथ बहू - बेटियों की इज्जत बचाकर भागने के लिए बाध्य करना न तो क्षणिक उन्माद था और न ही सांप्रदायिक तनाव का परिणाम । वह पूरी तरह से घाटी को भारत से अलग करने का सुनियोजित षडय़ंत्र था जिसकी पटकथा पाकिस्तान में लिखी गई । समय का तकाजा है कि 35 ए और 370 हटाये जाने के बाद कश्मीरी पंडितों का घाटी में पुनर्स्थापन हो क्योंकि वे ही वहां राष्ट्रीय भावनाओं के सही प्रतिनिधि हैं । जब तक ऐसा नहीं होता तब तक घाटी में भारत की बात करनेवालों का अभाव बना रहेगा और अलगाववादी रुक रुककर घात लगाते रहेंगे ।
-रवीन्द्र वाजपेयी
No comments:
Post a Comment