Monday 22 June 2020

माफिया पर फिल्में बनाते - बनाते खुद माफिया बन गए फिल्मी दुनिया की डर्टी पिक्चर सामने आई



हाल ही में तेजी से उभर रहे युवा अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत द्वारा आत्महत्या किये जाने के बाद से मुम्बई की फ़िल्मी  बिरादरी में जिस तरह का शीतयुद्ध शुरू हुआ है उसकी वजह से अनेक अनछुए पहलू  और नामचीन चेहरे अनावृत्त हो रहे  हैं | ये काम खोजी पत्रकार करते तब तो उसे महज गॉसिप कहकर हवा में उड़ाया जा सकता था किन्तु फिल्म उद्योग के भीतर से ही ये आरोप खुलकर सामने आ रहे हैं कि वहां परिवारवाद का कब्जा है | फ़िल्मी दुनिया के कुछ स्थापित परिवार और उनसे जुड़े बड़े सितारे किसी भी नवोदित अभिनेता - अभिनेत्री को तब तक नहीं जमने देते जब तक वह उनकी शरण में न आ जाए | फिर भी यदि वह अपनी प्रतिभा के बलबूते सफलता की राह पर बढ़ने लगे तब उसे रोकने के लिए वह सब किया  जाता है जो मनोरंजन की दुनिया का माफियाकरण होने का प्रमाण है |

सत्तर के दशक में अमेरिकी इतावली मूल के लेखक मारियो पूजो द्वारा रचित गॉड फादर नामक उपन्यास  पचास  और साठ के दशक में अमेरिका में माफिया गुटों के सामाजिक जीवन पर प्रभाव पर आधारित था | इस पर इसी नाम से बनी फिल्म को विश्व सिनेमा में सर्वाधिक प्रतिष्ठित माने जाने वाले ऑस्कर अवार्ड की विभिन्न श्रेणियों में पुरस्कृत होने का सौभाग्य भी मिला | फिल्म के कथानक में अपराध की दुनिया का माफिया हॉलीवुड के फिल्म जगत को किस तरह प्रभावित करता है उसका भी उल्लेख था | जिसमें नये कलाकारों को काम दिलवाने के साथ ही अवार्ड प्रक्रिया को प्रभावित करने का भी उल्लेख था |

भारत का फिल्म उद्योग भले ही हॉलीवुड जैसा भव्य और साधन सम्पन्न न हो लेकिन दुनिया में सबसे ज्यादा फ़िल्में हमारे देश में बनना कम महत्वपूर्ण नहीं है | बीते कुछ दशकों में भारतीय मूल के लोगों के दुनिया भर में फ़ैल जाने के कारण विशेष रूप से हिन्दी  फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार भी मिलने लगा है | यही कारण है कि अनेक युवा फिल्म निर्माता अपनी फिल्मों में अप्रवासी चरित्र रखते हैं | कुछ फिल्मों की पटकथाएँ तो पूरी तरह से विदेशों में रह रहे भारतीयों से सम्बन्धित ही रहीं |

फिल्म निर्माण में चूंकि काफी धन लगता है इसलिए बड़े - बड़े धन्ना सेठ इनमें निवेश करते रहे हैं | अक्सर ये लोग पर्दे के पीछे रहते हैं | लेकिन बीते कुछ दशकों में भारतीय फिल्म उद्योग भी महंगी फ़िल्में बनाने की तरफ अग्रसर हुआ और तब फिल्मों में पैसा लगाने वाले परम्परागत फायनेंसरों  की जगह कार्पोरेट जगत आगे आया और फिर बात धीरे - धीरे माफिया तक जा पहुंची | अक्सर ये चर्चा होती है कि भारत में बनने वाली अधिकतर फ़िल्में तो  सिनेमाघरों तक पहुँच ही नहीं पातीं तब उनमें धन लगाने वाले क्या करते हैं , ये कोई नहीं  बता सकता | लेकिन बात सिर्फ पैसा लगाने तक सीमित नहीं रहती | माफिया के इशारे पर कलाकार रखे और निकाले जाते है | फिल्म कब रिलीज होगी ये तक उनके द्वारा तय होने लगा है |

ताजा विवाद में ये बात सामने आ रही है कि मुम्बई के फिल्म जगत का  अपना एक स्वनिर्मित माफिया भी है जिसकी बागडोर चंद परिवारों के हाथ में होने से ये केवल उनके बेटे - बेटियों को ही अवसर देते हैं तथा अभिनय की दुनिया में कदम रखने  वाले प्रतिभा संपन्न युवक - युवतियों को या तो धक्के खाने  पड़ते हैं या फिर उन्हें निर्माता - निर्देशक  की अनुचित शर्तों के सामने समर्पण करना होता है | परिवार और कुछ बड़ी हस्तियाँ पहले भी  फिल्म उद्योग पर हावी थीं | कहते हैं लता मंगेशकर के कारण अनेक गायिकाएं प्रतिभाशाली होने  के बाद भी या तो अवसर से वंचित रह गईं या फिर इक्का - दुक्का सफलता के बाद गुमनामी के  अँधेरे में गुम हो गईं | कपूर खानदान तो बीती आधी सदी से भी ज्यादा से फिल्म उद्योग  पर छाया हुआ है  किन्तु जिस तरह की बातें बीते कुछ दिनों में सुनाई दीं वे चौंकाने वाली हैं |

ये कहना गलत नहीं होगा कि आज भारतीय फिल्म उद्योग से जुड़े परिवारों के बेटे व्  बेटियां कुछ ज्यादा ही फिल्मों में दिखाई दे रहे हैं | उनके पिता उन्हें बाकायदा पेशेवर अंदाज में स्थापित  करते और  अपना पैसा  लगाकर उनके लिये  फ़िल्में बनाते हैं | लेकिन इसमें कुछ गलत नहीं है क्योंकि हर पिता ऐसा करता है | और फिर फिल्म चले न चले ये परिवार नहीं दर्शक तय करते हैं | लेकिन इसके कारण किसी  ऐसे कलाकार का भविष्य  चौपट करना गलत है जो बिना किसी समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि के आया हो | संघर्ष क्षमता और प्रतिभा के बल पर हासिल  सफलता उसके लिए तब दुश्मन बन जाती है जब  वह फिल्मी दुनिया के चौधरी बने बैठे सरगनाओं का दरबारी नहीं बनता | नवोदित अभिनेत्रियों के साथ होने वाला घृणित  व्यवहार अक्सर सामने आता रहा है | हाल के वर्षों में टीवी सीरियलों में भी नये  अभिनेता - अभिनेत्रियों को अवसर मिलने लगा है किन्तु एक - दो सीरियल के बाद काम न मिलने की  वजह से अनेक कलाकार अवसादग्रस्त होते हुए आत्महत्या की राह पर बढ़ गए | अभिनेत्रियों के शोषण की घटनाएँ  भी सामने आया करती हैं  |

यही वजह है कि सुशांत की आत्महत्या के बाद विशेष रूप से मुम्बई का फिल्म उद्योग दो खेमों में बंट गया है | खुलकर ये आरोप लग रहा है कि किस तरह चन्द परिवार और कुछ अभिनेता मिलकर पूरे फिल्म जगत के भाग्यविधाता बन गये हैं| बात अभिनेताओं से होते हुए गायकों , संगीतकारों , गीतकारों और पटकथा लेखकों  तक भी जा पहुँची है | सुशांत सिंह पहले कलाकार नहीं हैं जिसने आत्महत्या जैसा  कदम उठाया | 

लम्बे समय से ये सिलसिला चला आ रहा है | अनेक मौतों पर आज तक रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है | मुम्बई दंगों के मुख्य आरोपी दाउद इब्राहीम के घरेलू जलसों में नाचने -  गाने वाले कलाकार भी किसी से छिपे नहीं हैं | जो फिल्म जगत माफिया को खलनायक के तौर पर पेश कर अपनी देशभक्ति का ढिंढोरा पीटता फिरता है , वही आज बुरी तरह से उसके शिकंजे में फंसा हुआ है | हालाँकि जो कुछ भी कहा जा रहा है उसके पीछे व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा और असफलता से उपजी भड़ास भी हो सकती है किन्तु जिस  बड़ी संख्या में विरोध के स्वर गूँज रहे हैं उन्हें देखते हुए इस तरफ भी ध्यान जा रहा है  | ऊपरी चमक - दमक से परे इस उद्योग का असली चेहरा कितना भयावह है , ये संदर्भित घटना से सामने आया है | सुशांत सिंह ने तो अपनी मौत का कोई भी कारण नहीं लिख  छोड़ा किन्तु उसकी वेदना को व्यक्त करने वाली इतनी आवाजें फिल्म  जगत में से ही उठ रही हैं कि सभी को कुंठा या ईर्ष्या से प्रेरित मानकर उपेक्षित नहीं  किया जा सकता |

हालाँकि  परिवारवाद  अनेक क्षेत्रों में दिखाई  देता  है | लेकिन फिल्म उद्योग के भीतर चलने वाली डर्टी पिक्चर के दृश्य जिस तरह सामने आ रहे हैं उनसे उन सब बातों की पुष्टि हो जाती है जिन्हें गॉसिप और अफवाह मानकर हवा में उड़ा दिया जाता था |

फिल्मों में जो दिखाया जाता है वह असल  ज़िन्दगी में सत्य ही हो ये सोचना तो अव्यवहारिक होगा परन्तु पूरी तरह उल्टा होता है  ये देख - सुनकर अचरज होता है | सुशांत सिंह ने मृत्यु के पहले किसी से कुछ कहा हो ये भी पता नहीं चला लेकिन जिस बड़ी संख्या में फिल्मी  हस्तियाँ उसके साथ हुए उपेक्षापूर्ण व्यवहार  के विरोध में खुलकर सामने आती जा रही हैं उनसे ऐसा लगता है जैसे अनेकानेक सोये हुए ज्वालामुखी एक साथ फूट पड़े हों |

हालांकि इस सबसे फ़िल्मी दुनिया में कोई सुधार होगा ये कह पाना कठिन है क्योंकि जो व्यवसाय माफिया के कब्जे में आ गया हो तथा जहां अवार्डों का फैसला तक दुबई से आये फोन या अनैतिक सौदेबाजी से होता हो उसमें रातों - रात बदलाव  की उम्मीद करना व्यर्थ है किन्तु इस दौरान पानी  को हिलाने पर तलहटी में जमी गंदगी जिस तरह सतह पर आकर तैरने लगती है , ठीक वैसा ही कुछ - कुछ सुशांत सिंह की मौत के बाद सामने आ रहा है |

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