Thursday 4 June 2020

फसल बेचने की स्वतंत्रता : देर आये दुरुस्त आये



मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बारे में उनके आलोचक कुछ भी कहें लेकिन उनकी सरकार सदैव किसानों के हित में सार्थक कदम उठाती रही है। फरवरी में  सत्ता में लौटते ही कोरोना संकट आ गया लेकिन इस दौरान भी उन्होंने किसानों को फसल का वाजिब मूल्य दिलवाने के लिए कृषि उपज मंडी रूपी बाधा दूर करते हुए देश में कहीं भी अपना उत्पाद बेचने की जो सुविधा दी उसका अनेक राज्यों ने अनुसरण किया और अब केन्द्र सरकार ने उस व्यवस्था को पूरे देश के लिए लागू करते हुए किसानों को अपनी फसल देश में कहीं भी बेचने की छूट देकर एक क्रांतिकारी कदम उठाया जो सही मायनों में तो पहले ही उठा लिया जाना चाहिए था। कृषि उपज मंडी नामक व्यवस्था किसानों को आढ़तियों के शोषण से बचाने के लिए बनाई गयी थी। सिद्धान्त: वह एक अच्छा प्रयोग था किन्तु कालान्तर में वह भी राजनेताओं और अफसरों के भ्रष्ट गठजोड़ का अड्डा बन गया। उसके चुनावों में असली  किसानों की स्थिति महज मतदाता की रह जाती जबकि महत्वपूर्ण पदों पर नेता या माफिया किस्म के लोग जम जाते। परिणाम ये हुआ कि बजाय किसानों का फायदा होने के मंडियां उन्हें परेशान करने का कारण बन गईं। जिस तरह से बाजार में व्यापारी उन्हें भुगतान के लिए रुलाते थे उसी तरह का खेल कृषि उपज मंडियों में भी होने लगा। ऐसा नहीं है कि ये मंडियां पूरी तरह से अनुपयोगी हैं लेकिन वे अपनी स्थापना के व्यापक उद्देश्य से भटक गईं, ये कहना गलत नहीं होगा। हालांकि श्री चौहान पहले भी एक दशक से ज्यादा तक प्रदेश की सत्ता में रहे किन्तु किसानों के हित में अनेक अच्छे फैसले लेने के बावजूद कृषि उपज मंडी नामक भ्रष्टाचार के अड्डे से किसानों को मुक्ति दिलवाने के लिये न जाने क्यों इन्तजार किया गया ? इसी तरह से किसानों की आमदनी दोगुनी करने का लक्ष्य लेकर चल रही केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के दिमाग में भी ये छोटी सी बात क्यों नहीं आई ? खैर, कोरोना से उत्पन्न परिस्थितियों में मानव जाति के मन में सर्वशक्तिमान होने का घमंड जिस तरह टूटा उसी तरह से सरकार को भी आखिऱकार ये समझ में आने लगा कि वह हर क्षेत्र में प्रभावशाली और सफल नहीं हो सकती। इसीलिये इस दौरान उसने राहत पैकेज के नाम पर जिस तरह के सुधार किये उनको लेकर आलोचना के स्वर गूंज रहे हैं लेकिन ये बात पूरे तौर पर सही है कि 1991 में डा. मनमोहन सिंह द्वारा प्रारम्भ किये गए आर्थिक सुधारों को राजनीतिक दबावों के कारण पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका। जब भी थोड़ी कोशिश हुई तब कोई न कोई अड़ंगा आ गया। सही बात तो ये है कि नेता और नौकरशाहों का गठजोड़ अपना वर्चस्व कहीं से भी छोड़ना नहीं चाहता। यही वजह है कि समझ में ही नहीं आता कि कौन सा क्षेत्र सरकारी दखलंदाजी से मुक्त है और कौन सा नियन्त्रण में ? इसलिए किसानों की फसल को बेचने में लगे अवरोधक हटा देने के निर्णय की हर सुलझा हुआ व्यक्ति प्रशंसा करेगा। हालांकि ये बात भी सही है कि किसान समुदाय में आज भी शिक्षा और डिजिटल मार्कटिंग की समुचित जानकारी रखने वाले गिने-चुने हैं। लेकिन कृषि उपज मंडी वाली बाधा दूर होने से स्थानीय और बाहरी व्यापारी खुद उनके पास पहुँचने लगेगा। और उस समय वे ज्यादा भाव पर सौदा कर सकेंगे। रही बात मंडियों की आवश्यकता की तो वे अपना काम करती रहें। जो किसान उनके माध्यम से अपना अनाज बेचना चाहें वे बेशक उनकी सेवाएँ लेते रहें लेकिन जिन्हें ये लगे कि उन्हें सीधी बिक्री से लाभ मिल रहा हो वे मनमाफिक व्यापारी को बेचकर मुनाफा कमा सकते हैं। इस निर्णय को देर आये दुरुस्त आये कहना गलत नहीं होगा। पुरानी कहावत है राजा का कम नियमन करना है व्यापार करना नहीं। लेकिन हमारे देश में सरकारे खुद ही मुनाफाखोर हो उठीं और इसीलिये हर क्षेत्र में उनका नियन्त्रण या हस्तक्षेप होता रहा। अब जबकि सुधार प्रक्रिया एक बार फिर से शुरू हो गई है तब इसे और आगे बढ़ाना चाहिए। किसानों के अलावा उद्योग-व्यापार में भी सरकारी दखलंदाजी जरूरत से ज्यादा है। कोरोना काल में जब भारत खुद को विश्व के सबसे बड़े मैन्युफेक्चरिंग हब के रूप में स्थापित करने का ख्वाब संजो रहा है तब उसे वैश्विक स्तर पर ये छवि भी बनानी होगी कि भारत में उद्योग-व्यापार करना पूर्वापेक्षा न सिर्फ आसान वरन फायदेमंद भी हो गया है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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