Tuesday 23 June 2020

डीजल-पेट्रोल की महंगाई सरकारी मुनाफाखोरी



कोरोना के बाद से पूरी दुनिया अस्त व्यस्त हो गयी। थल, जल, नभ तीनों में यातायात ठहर जाने से जो जहाँ था वो वहीं रुके रहने को मजबूर हो गया। व्यापार और पर्यटन पर इसका जबरदस्त प्रभाव पड़ा। पेट्रोल-डीजल की मांग और कीमत भी ऐतिहासिक रूप से घट गयी। कच्चे तेल के उत्पादक अरब एवं अन्य देश संकट में आ गये। इस स्थिति का लाभ लेकर विभिन्न देशों ने कच्चे तेल का या तो स्टॉक कर लिया या फिर वायदे के सौदे के अंतर्गत सस्ते दर पर अग्रिम बुकिंग कर ली जिससे दाम बढ़ने पर भी कम दाम पर आपूर्ति होती रहे। इस स्थिति का लाभ उपभोक्ताओं को भी मिलना था। यद्यपि लॉक डाउन की वजह से पेट्रोल-डीजल की खपत न के बराबर रह गई। लेकिन बीते 1 जून से लॉक डाउन खत्म किये जाने के बाद जनजीवन सामान्य होते ही मांग में वृद्धि होने लगी। लेकिन भारत में वैश्विक स्तर पर घटी कीमतों का लाभ उपभोक्ता को देने की बजाय दाम बढ़ाते जाने का जो सिलसिला शुरु हुआ वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। अख़बारों में रोज सुबह कोरोना मरीजों की संख्या बढऩे के साथ ही पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी की जानकारी सामने आ जाती है। कोरोना के साथ ही सीमा पर संकट के बादल मंडराने के कारण जनमानस इस समय चुपचाप बर्दाश्त करता जा रहा है। लम्बे लॉक डाउन के कारण सरकार का राजस्व घटने से आने वाली परेशानियाँ भी जनता समझ रही है। मौके की नजाकत को देखते हुए विपक्ष भी विरोध की औपचरिकता निभा रहा है। चूँकि अभी भी परिवहन पूरी तौर पर शुरू नहीं हो सका है इस कारण पेट्रोल-डीजल की मांग भी सामान्य स्तर से काफी कम है किन्तु कीमतों में लगातार होने वाली वृद्धि का औचित्य किसी को समझ में नहीं आ रहा। सबसे बड़ी समस्या परिवहन का व्यवसाय करने वालों के सामने है। व्यापारिक गतिविधियाँ अभी तक पूरे शबाब पर नहीं आई हैं। कारखानों में काम शुरू हुए भी महज तीन हफ्ते बीते हैं। इस कारण उत्पादन भी इतना नहीं हुआ है जिससे ट्रकों की मारामारी हो। प्रवासी मजदूरों के पलायन से उत्पादन इकाइयाँ अपनी पुरानी रंगत पर नहीं लौट पा रहीं। ऐसे में महंगा डीजल-पेट्रोल दूबरे में दो आसाढ़ वाली स्थिति उत्पन्न कर रहा है। शराब की तरह ही डीजल-पेट्रोल भी सरकारी कमाई का बड़ा स्रोत है और वह भी नगद में। एक समय था जब इनके दाम सरकार अपनी लोकप्रियता बनाये रखने को ध्यान में रखते हुए तय करती थी। लम्बे समय बाद जब उनमें वृद्धि होती तो बड़ा बवाल मचता था। विपक्ष के बड़े-बड़े नेता सायकिल और बैलगाड़ी पर बैठकर विरोध जताते थे। तब शायद कच्चे तेल के उत्पादक देश भी संगठित नहीं थे। और न ही रोजाना दाम-घटने बढ़ने का खेल चलता था। लेकिन धीरे-धीरे कच्चा तेल भी बाजारवाद के अंतर्गत आकर शेयर बाजार की तरह रोज चढने-उतरने लगा। भारत में वाजपेयी सरकार ने हर 15 दिन में उनके दामों की समीक्षा करने की व्यवस्था बनाते हुए उसे राजनीतिक शिकंजे से मुक्त कर तेल कंपनियों पर छोड़ दिया। यद्यपि चुनावी मौसम में सत्ताधारी दल अपनी सुविधानुसार डीजल-पेट्रोल के दामों में कमी या वृद्धि को नियंत्रित करने से बाज नहीं आये। मोदी सरकार के आने के बाद अब डीजल-पेट्रोल के दाम भी दैनिक अंतर्राष्ट्रीय घट-बढ़ से जोड़ दिए गये। ऐसा करने के पीछे खुद को जनता के गुस्से से बचाने का उद्देश्य था। और काफी हद तक वह पूरा भी हुआ किन्तु जब दाम लगातार गिरने लगे और उस पर मिलने वाले करों की मात्रा भी तदनुसार कम हुई तब केंद्र और राज्य सरकारों ने अपना खजाना भरते रहने के लिए एक्साइज और वाणिज्य कर को बढ़ाने का तरीका निकाल लिया। वर्तमान में जो स्थिति है उसमें पेट्रोलियम चीजें रोज महंगी करते जाने का तुक समझ में नहीं आता। मान भी लें कि वैश्विक स्तर पर मूल्य बढ़े हैं तब भी लॉक डाउन के दौरान खरीदे सस्ते कच्चे तेल का लाभ तो भारत की जनता को मिलना चाहिये। कोरोना राहत पर बेशक बहुत पैसा खर्च हो रहा है। वहीं करों की आय में ऐतिहासिक गिरावट हुई है। केंद्र और राज्य सरकारें नगदी के संकट से जूझ रही हैं। राहत और पुनर्वास पर अनाप-शनाप खर्च हो रहा है जिसे रोक पाना नामुमकिन है। अभी तक कारोबार ठीक से शुरू नहीं हो सका है इसलिए आने वाले कुछ महीने भी सरकार के लिए सूखे ही रहेंगे। ऐसे में कर्ज लेकर काम चलाना ही सरलतम विकल्प था। लेकिन बजाय कर्ज लेने के पेट्रोल-डीजल में मुनाफाखोरी करने का रास्ता चुना गया। इसके पीछे ये सोच बताई जा रही है कि कर्ज की अदायगी भी तो आखिरकार जनता पर नया कर या आधिभार थोपकर ही की जायेगी तो बेहतर है महंगा डीजल बेचकर कर्ज लेने से बचा जाए। लेकिन इसकी वजह से यात्री और माल वाहक वाहनों के भाड़े का निर्धारण करने में भारी अनिश्चितता बनी रहती है। व्यापारी एवं परिवहन कम्पनियाँ दोनों रोज-रोज बढ़ रही कीमतों से परेशान होते हैं। लॉक डाउन हटने के तीन सप्ताह बाद भी उद्योग-व्यवसाय रफ़्तार नहीं पकड़ सके हैं। ऐसे में परिवहन खर्च को लेकर व्याप्त अनिश्चितता गति अवरोधक का काम कर रही है। यदि सरकार मात्र राजस्व बटोरने के लिए डीजल-पेट्रोल महंगा करने में जुटी हुई है तब उसे जनता से तत्संबंधी अपील करना चाहिये लेकिन मौजूदा स्थिति में जिस तरह वे महंगे किये जा रहे हैं उससे तो सत्ता प्रतिष्ठान की असंवेदनशीलता के साथ ही एहसानफरोशी का भाव भी झलकता है। इससे तो अच्छा रहेगा सरकार 15 दिनों में एक बार कीमतों की समीक्षा का पुराना तरीका दोबारा लागू करे। कारोबारी अनिश्चितता के इस दौर में डीजल-पेट्रोल के दामों में वृद्धि एक तो पूरी तरह नाजायज है वहीं दूसरी तरफ  संकट के समय देश की जनता से जबरन वसूले जा रहे बढ़े हुए दामों के प्रति सरकार की तरफ  से धन्यवाद का एक शब्द भी नहीं सुनाई दिया। पेट्रोलियम पदार्थों के दामों में मुनाफाखोरी से केंद्र और राज्य दोनों ही सरकारों का जनविरोधी चेहरा सामने आता रहा है लेकिन सवाल ये है कि जो सरकार व्यापारी को मुनाफाखोरी के लिए दंडित करती है उसे कौन दंड देगा ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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