Thursday 7 January 2021

किसान आन्दोलन : सर्वोच्च न्यायालय की मध्यस्थता से ही निकलेगा रास्ता




कृषि कानूनों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने  सरकार के अनुरोध पर सुनवाई कुछ दिन और आगे बढ़ा दी। हालाँकि सरकार द्वारा आन्दोलनकारियों के साथ बातचीत जारी रहने की दलील पर अदालत ने ये टिप्पणी भी की कि लेकिन हो कुछ नहीं रहा। इससे आशय यही था कि बीते सवा महीने के दौरान किसान संगठनों और केंद्र सरकार के बीच आधा दर्जन से ज्यादा बैठकों के बावजूद गतिरोध यथावत है। वैसे सर्वोच्च न्यायालय का अब तक का रवैया हस्तक्षेप से बचने का रहा है। कानूनों पर रोक लगाने की मांग को भी अभी तक उसने स्वीकार न करते हुए  दोनों पक्षों को आपसी सहमति से विवाद सुलझाने का अवसर प्रदान किया। बीच में अपनी तरफ से एक समिति गठित करने जैसी बात भी कही थी। उसके बाद शीतकालीन अवकाश की वजह से सुनवाई रुकी रही। सरकार और किसान नेताओं  के बीच होने वाली आगामी बैठक में भी  अगर बात न बनी तब न्यायालय मामले की सुनवाई करेगा। लेकिन इस बीच जो कुछ भी हुआ उससे एक बात तो साफ़ है कि किसान संगठनों की शर्तें मान लेना सरकार के लिए संभव नहीं है। कानूनों को वापिस लिए जाने की जिद बेमानी लगती है क्योंकि उनमें संशोधन किया जाना ही तरीका होता है जिसके लिए किसान संगठन तैयार नहीं हैं। दूसरी बात जिस पर गतिरोध बना है वह है न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप  देना। सरकार इस बात की लिखित गारंटी देने को तो राजी है कि न तो मंडियां खत्म होंगी और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी की मौजूदा व्यवस्था में कोई व्यवधान आयेगा किन्तु उसे कानूनी बनाने से उत्पन्न होने वाली समस्या का अंदाज लगाकर वह ऐसा करने का साहस शायद ही जुटा सके।  किसान आन्दोलन का समर्थन कर रहे  तमाम विशेषज्ञ भी दबी जुबान ये स्वीकार करते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी बनाने के फलस्वरूप सरकार दिवालिया हो जायेगी।  जिस तरह मुफ्त बिजली ने लगभग सभी राज्यों के बिजली मंडलों को कंगाली की दशा में पहुंचा दिया ठीक उससे भी बुरी हालत न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी स्वरूप प्रदान करने से होने की आशंका व्यक्त की जा रही है। पिछली बैठक शुरू होते ही जब सरकार की तरफ से  एक - एक मुद्दे पर सिलसिलेवार बात का प्रस्ताव रखा गया  त्योंही किसान नेताओं ने दो  टूक कह दिया कि कानून वापिस लिए बिना कोई चर्चा नहीं होगी।  हालांकि इसके बाद भी घंटों चली बैठक में क्या होता रहा ये समझ से परे है।  अगली बैठक की तारीख तय करने का औचित्य क्या था ये भी कोई बता नहीं पा रहा। देश भर में जो चर्चाएँ हो रही हैं उनसे एक बात तो स्पष्ट है  कि नए कानून कृषि  सुधारों की दिशा में उठे कदम हैं  और इससे किसानों को दूरगामी लाभ भी होंगे। लेकिन सरकार की विफलता ये है कि वह किसानों को अपनी बात समझा नहीं पा रही। ये तर्क भी दिया  जा रहा है कि जब किसानों को ये कानून नहीं चाहिए तब सरकार जबरन उन्हें लादने पर क्यों  आमादा है ?  लेकिन ये तर्क इसलिए गले नहीं उतरता क्योंकि केंद्र और राज्य  सरकारों द्वारा  आये दिन ऐसे  कानून बनाए  जाते हैं जिनको आम जनता पसंद नहीं करती तो क्या वे भी वापिस ले लिए जाएँ ?  किसानों की चिंता गैर वाजिब है ये मान लेना तो उनके साथ अन्याय होगा लेकिन  वे पूरी तरह सही भी नहीं कहे जा सकते। टेबिल पर आते ही बातचीत में अड़ंगे डालने वाली शर्तें रख देना इस बात का प्रमाण है कि किसान संगठन जोर - जबरदस्ती से अपनी बात मनवाना चाह रहे हैं जिसके लिए सरकार राजी नहीं है। कृषि मंत्री कह भी चुके हैं कि  ताली दोनों हाथों से बजती है। ऐसी हालत में आन्दोलन कितना भी खिंचे किन्तु वह अपनी  मांगें पूरी नहीं करवा सकेगा। सरकार हर बैठक में आग्रह करती है कि वह  किसानों द्वारा सुझाये गए संशोधनों पर विचार करने तैयार है लेकिन किसान संगठनों को लगता है सरकार  समय व्यतीत करने की चाल चल रही है जिससे आन्दोलन थककर दम तोड़ दे। दूसरी तरफ सरकार भी राष्ट्रीय राजधानी के चारों तरफ के व्यस्त मार्गों पर कब्जा जमाये बैठे हजारों किसानों को बलपूर्वक हटाये जाने पर होने वाली प्रतिक्रिया से  पूरी तरह वाकिफ है। किसान संगठन भी इस बात को जानते हैं कि आन्दोलन में हिंसा की  छोटी सी घटना उनके प्रति सहानुभूति को खत्म कर देगी। लेकिन सवाल ये है कि गतिरोध आखिर कब तक चलेगा क्योंकि ये सरकार और किसानों से हटकर  एक राष्ट्रीय मुद्दा है। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि सामाजिक जीवन की भी रीढ़ है। देश की बड़ी आबादी अभी भी ग्रामीण इलाकों में रहती है। शहरों में बढ़ती बेरोजगारी को दूर करने में आज भी गाँव सहायक बन सकते हैं। इसके लिए कृषि सुधार समय की मांग है। मोदी सरकार द्वारा लाये गये कानूनों को सुधार के रूप में तो देखा   जा रहा है लेकिन किसानों के मन में इसे लेकर ये धारणा है कि इससे उनको नुकसान हो जाएगा। ऐसे में समस्या ये हैं कि इस गतिरोध को सुलझाए कौन ? चूँकि राजनीतिक दल अपने चुनावी फायदे से आगे बढ़कर कुछ और सोचते नहीं हैं इसलिए उनसे अपेक्षा करना बेकार है। ऐसी हालत में सर्वोच्च न्यायालय ही एकमात्र आशा की किरण बच रहती है। बेहतर हो सरकार और किसान संगठन दोनों सर्वोच्च न्यायालय की मध्यस्थता स्वीकार करने के लिए राजी हों। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय को भी एक  समय सीमा में  निर्णय की गारंटी देनी होगी। मौजूदा विवाद में न तो कानूनों को सीधे - सीधे वापिस लेना कोई विकल्प है और न ही किसानों को नजरंदाज करते  हुए आगे बढ़ जाना। लोकतंत्र नियन्त्रण और संतुलन के सिद्धांत से संचालित होता है। दोनों पक्ष उस भावना को समझकर आगे बढ़ें तो समाधान तक पहुँच सकते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी


No comments:

Post a Comment