Friday 27 September 2019

राम मंदिर : मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर .....

सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन राम मंदिर प्रकरण में क्या फैसला होगा ये तो पीठ में बैठे न्यायाधीशों पर ही निर्भर है लेकिन अब ये विश्वास होने लगा है कि 17 नवम्बर को प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के सेवा निवृत्त होने तक अदालती निर्णय आ जाएगा। गत दिवस श्री गोगोई ने साफ-साफ कह दिया कि 18 अक्टूबर तक ही बहस सुनी जावेगी। लगे हाथ वे यह भी बोल गये कि चार सप्ताह में फैसला लिखना भी किसी चमत्कार से कम नहीं होगा। गत दिवस एक वकील साहब जब नई अर्जी लेकर आये तो उन्हें श्री गोगोई ने डांट पिलाते हुए चलता किया। मुस्लिम पक्ष के अधिवक्ता की ओर से पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई के बाद दी गयी रिपोर्ट पर ऐतराज को भी उन्होंने ये कहते हुए अमान्य कर दिया कि अलाहाबाद उच्च न्यायालय में हुई बहस के दौरान आपत्ति क्यों नहीं लगाई गई? सुनवाई के दिन और फिर समय बढ़ाकर श्री गोगोई ने पहले ही ये संकेत दे दिया था कि वे सेवा निवृत्ति से पूर्व दशकों से चले आ रहे इस विवाद का कानूनी निपटारा कर देंगे। उनके इस रवैये से साफ हो गया कि यदि दृढ़ निश्चय किया जाए तब इस तरह के लम्बित प्रकरणों को भी अंजाम तक पहुँचाना कठिन नहीं है। वरना अलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा विवादित भूमि के तीन हिस्से करने संबंधी फैसले के विरुद्ध प्रस्तुत अपीलों पर बरसों सुनवाई का मुहूर्त ही नहीं आया। जब भी अदालत ने किसी भी तरह की पहल की तब-तब किसी न  किसी प्रकार का अड़ंगा लगाकर मामले को टाला जाता रहा। पिछले प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने भी इस बारे में काफी कोशिश की लेकिन उनके कार्यकाल का अंतिम समय न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तर पर मचे अंतद्र्वंद में बेकार चला गया। रोड़े तो श्री गोगोई के रास्ते में भी कम नहीं अटकाए गए लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद की राजनीतिक परिस्थितियों ने संभवत: सर्वोच्च न्यायालय को भी मानसिक संबल दे दिया। स्मरणीय है चुनाव के कुछ महीने पूर्व मुस्लिम पक्ष की तरफ से पैरवी करने वाले वरिष्ठ कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने ये दलील दी थी कि मामले की सुनवाई चुनाव के आगे सरका दी जाए क्योंकि उसके फैसले का राजनीतिक असर पड़ेगा। उस समय श्री गोगोई नियमित सुनवाई करते हुए मार्च 2019 तक निर्णय करने की बात कह चुके थे। लेकिन बीच में वे खुद कतिपय विवादों में फंस गए। लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार की वापिसी से देश में राजनीतिक अनिश्चितता पूरी तरह से खत्म होने के साथ ही राम मंदिर मामले को अटकाकर रखे हुए तत्वों का हौसला भी कमजोर हुआ। बीते दिनों मुस्लिम पक्ष द्वारा भगवान राम के जन्म को अयोध्या में स्वीकार किया जाना इसका संकेत है। बहरहाल श्री गोगोई की सख्ती और उससे भी बढ़कर इतिहास बनने के पहले इतिहास बना जाने की इच्छा शक्ति से अब ये उम्मीद पूरी तरह से पुख्ता हो चली है कि अपना सेवाकाल खत्म होने के पहले वे देश के सबसे विवादास्पद कानूनी विवाद का निपटारा कर जायेंगे। उनके साथ पीठ में बैठे बाकी न्यायाधीश भी पूरी मुस्तैदी से सुनवाई में न केवल जुटे हैं बल्कि पूरी रूचि भी प्रदर्शित कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि मंदिर और मस्जिद के नाम पर होने वाली राजनीति इस वजह से ठंडी पड़ चुकी है। अदालती फैसले का पूर्वानुमान लगाकर आधारहीन बयानबाजी करने वालों को प्रधानमन्त्री द्वारा सार्वजानिक तौर पर लताडऩे के बाद से उनके हौसले भी पस्त हैं। ये एक अच्छा संकेत है। लेकिन वह तभी सम्भव हुआ जब सर्वोच्च न्यायालय ने भी ये ठान लिया कि वह फैसला करके ही मागेगा। वरना तो हमारे देश में सबसे आसान काम अदालती पेशी टलवाना माना जाता है। ये कहना भी गलत नहीं होगा कि केंद्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने संबंधी जो ऐतिहासिक निर्णय लिया गया उसने भी श्री गोगोई और उनके सहयोगी न्यायाधीशों का मनोबल ऊंचा किया। जिस अनुच्छेद को हटाने की बात करने मात्र से राजनीतिक तूफान आ जाता था उसे दो दिन के भीतर हटा देना मामूली काम नहीं था लेकिन मोदी सरकार ने अभूतपूर्व दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए असंभव को संभव बनाकर दिखा दिया। जाहिर तौर पर इससे देश में एक माहौल बना और ये लगने लगा कि व्यवस्था का संचालन करने वाले जिम्मेदार लोग यदि ठान लें तो लंबित समस्याएं हल होते देर नहीं लगती। राम मंदिर वाले मामले में सर्वोच्च न्यायालय कोई अनोखा काम नहीं कर रहा। बस, उसने निपटारे की समय सीमा तय करते हुए सुनवाई शुरू कर दी और उसके बाद से जो वकील साहब बात-बात में सुनवाई टलवाने में लगे रहते थे वे ही कई दिन तक घंटों बहस करते दिख रहे हैं। इस प्रकरण के निपटारे के बाद उन तमाम मामलों में भी इसी तरह की समयबद्धता दिखाते हुए फैसले किये जाने चाहिए जिनकी वजह से देश को तरह-तरह के सिरदर्द झेलने पड़ते हैं। हमारे देश की राजनीति केवल चुनाव केन्द्रित होकर रह गयी है। किसी एक या कुछ दलों को दोषी ठहराया जाना तो गलत होगा क्योंकि तकरीबन प्रत्येक राजनीतिक दल कमोबेश चुनाव के मद्देनजर नीति बनाता और निर्णय करता है। ऐसे में न्यायपालिका से अपेक्षा की जाती है कि वह निर्भय होकर निष्पक्ष फैसले करते हुए उन अनिश्चितताओं को खत्म करने आगे आये जिनकी वजह से पूरा देश परेशान रहता है। फिल्म उमराव जान के एक गीत की ये पंक्ति इस बारे में बेहद प्रासंगिक है कि मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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