Tuesday 8 May 2018

अव्यवस्था रूपी आपदा से ग्रसित है आपदा प्रबंधन


पूरा उत्तरी, पश्चिमी और पूर्वी भारत धूल भरी आंधी -तूफान और बेमौसम बरसात से सहमा हुआ है। बीते सप्ताह ही लगभग 150 लोग मारे जा चुके थे। खेतों में पड़ा अनाज खराब होने, बिजली के खंबे उखड़ जाने के अलावा आगरा में ताजमहल की मीनारों के क्षतिग्रस्त हो जाने से हवा की गति का अंदाजा लगाया जा सकता है। कल आधी रात के वक्त दिल्ली और उससे सटे इलाकों में तूफानी हवाओं ने दहशत फैला दी। पश्चिमी विक्षोभ के परिणामस्वरूप उत्पन्न ये स्थिति यूँ तो मई में हर साल बनती है लेकिन इस साल लगता है कुदरत कुछ ज्यादा ही क्रोधित हो उठी है। ऐसा नहीं है कि  केवल भारत में ही प्रकृति का प्रकोप सामने आता हो। पृथ्वी का तापमान निरन्तर बढ़ते जाने से जो समस्याएं जन्म ले रही हैं वे स्वाभाविक ही हैं। विकसित देश अमेरिका में भी जंगलों की आग,  समुद्री  तूफान, बाढ़, बेतहाशा हिमपात जैसी प्राकृतिक आपदाएं जिस तरह जल्दी-जल्दी आने लगी हैं उससे ये तो लगने ही लगा है कि विज्ञान और तकनीक कितने भी विकसित क्यों न हों जाएं किन्तु वे ईश्वर द्वारा संचालित किसी भी व्यवस्था के मुकाबले कमजोर ही साबित होते हैं। अमेरिका ही नहीं यूरोप के संपन्न और शक्तिशाली देश भी प्राकृतिक आपदाओं को रोक पाने में जिस तरह असमर्थ साबित हो जाते हैं उससे कई सवाल खड़े हो रहे हैं। चीन भी इससे अछूता नहीं है। लेकिन उक्त सभी देशों में आपदा प्रबंधन बेहद उच्च कोटि का है जिस पर काफी खर्च भी किया जाता है। कुदरती कहर के बाद राहत और पुनर्वास के मामले में भी विकसित देशों की स्थिति भारत की तुलना में बहुत अच्छी है। यही वजह है कि हमारे देश में किसी भी आपदा का असर उसके गुजर जाने के काफी समय बाद तक प्रत्यक्ष दिखाई देता है। इन दिनों आंधी-तूफान नामक जो हमला प्रकृति ने किया हुआ है वह दो-चार दिनों में भले खत्म हो जाये किन्तु उसके घाव लम्बे समय तक रह-रहकर दर्द और दुख देते रहेंगे। प्रकृति एक समन्यवादी व्यवस्था है जिसमें हर छोटी बड़ी चीज के बीच कोई न कोई प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सम्बन्ध है। सम्बन्धों का ये संतुलन बिगडऩा ही ऐसी-ऐसी समस्याओं को जन्म दे रहा है जो अकल्पनीय होने से लाइलाज हैं। आंधी-तूफान, बाढ़, बर्फीली आंधियां, ग्लेशियरों का सिकुडऩा और ऐसी ही अन्य परिस्थितियाँ अचानक नहीं बनीं। बेहद सहनशील होने के बाद भी प्रकृति का धैर्य कभी न कभी तो जवाब देता ही और अब वह समय आ गया लगता है। भारत में 125 करोड़ से ज्यादा आबादी, अनियोजित शहरीकरण, भयावह प्रदूषण,  पर्यावरण संरक्षण के प्रति आपराधिक उदासीनता जैसी प्रवृत्तियों की वजह से प्राकृतिक विपदाएं बढ़ती ही जा रही हैं। सबसे अधिक चिंताजनक बात है आपदा प्रबंधन की लचर स्थिति। संचार माध्यमों और सूचना तकनीक के विकास के बाद भी किसी संभावित आपदा से बचाव के इंतज़ाम तो बड़ी बात हैं लेकिन उसके लौटने पर राहत और पुनर्वास की दयनीय स्थिति बड़ी समस्या बनती जा रही है। यही वजह है कि छोटी सी लगने वाली मुसीबत भी बड़ी बन जाती है। एक चुटकुला अक्सर सुनने में आता है कि जंगल में अकेले और बिना शस्त्र लिए घूमते समय यदि शेर सामने आ जाए तो क्या कीजियेगा और इसका रेडीमेड जवाब है कि हम क्या करेंगे जो कुछ करना है शेर करेगा। प्राकृतिक आपदाओं को लेकर भी यही स्थिति है। मौजूदा विपदा भी  एक-दो दिन भारत भ्रमण कर लौट जाएगी लेकिन उसके निशान लम्बे समय तक बने रहेंगे क्योंकि जिस तरह से देश की चिकित्सा सेवाएं बीमार हैं ठीक वैसे ही आपदा प्रबंधन का समूचा ढांचा भी अव्यवस्था नामक सरकारी आपदा से ग्रसित है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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